योग का वास्तविक अर्थ
( योग का वास्तविक अर्थ )
भक्ति धाम - मनगढ़ में योग शिविर के अवसर पर श्री महाराज जी का संदेश -
देखिये योग शब्द का अर्थ है मिलन। जीवात्मा परमात्मा का मिलन। उसको योग कहते हैं। जीवात्मा परमात्मा का मिलन क्यों नहीं होता? इसका एक कारण है - मन ।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । (ब्रह्मबिन्दू. उप. २)
इसी मन को वश में करने के लिये पतजंलि ने एक शास्त्र का निर्माण कर दिया, लम्बा चौड़ा दर्शनशास्त्र, योग दर्शन । और उन्होंने कहा कि जीवात्मा परमात्मा के मिलन में जो बाधक है मन, उस मन की वृत्ति पर निरोध करना पड़ेगा। वो संसार की ओर भागता है, भगवान् से मिलने नहीं देता। क्योंकि वो माया का संसार है और माया का पुत्र, मन है। इसलिये अपने सजातीय विषय की ओर नैचुरल भाग रहा है। अब विपरीत दिशा में मुड़ने के लिये प्रयत्न करना होगा। इसलिये उन्होंने योग की परिभाषा बताई -
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ (पातं. योग. १.२)
चित्तवृत्ति का निरोध करो। कैसे करें? बहुत से उपाय बताये। जैसे-
वीतरागविषयं वा चित्तम्। (योगदर्शन १.३७)
एक ये भी मार्ग है कि किसी महापुरुष का चिन्तन और अष्टांग योग तो है ही है। अष्टांग योग के द्वारा मन को समाधिस्थ कर लिया जाता है, निर्विकल्प कर दिया जाता है। उसका वर्क बन्द कर दिया जाता है। लेकिन इसके लिये पतजलि ने कहा ये सब करना परिश्रम का काम है, साधना करनी होगी, अभ्यास करना होगा। जैसा कि गीता में कहा गया -
अभ्यासेन तु कौन्तेय (गीता ६.३५) अभ्यास करने के लिये शरीर स्वस्थ रहना आवश्यक है।
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। (सुक्ति)
चाहे भौतिक उत्थान हो, चाहे आध्यात्मिक उत्थान हो, दोनों में शरीर स्वस्थ रहना परमावश्यक है और प्रथम इसकी आवश्यकता है। ‘शरीरमाद्यम्' कहा है। पहले शरीर स्वस्थ करो तब आगे बढ़ो। नहीं तो तुम मन का निरोध करने चलोगे, वो चाहे महापुरुष में लगाओ, चाहे भगवान् में लगाओ और कहीं दर्द हो रहा है आपके शरीर में, तो मायाबद्ध दर्द का चिन्तन करेगा, महापुरुष और भगवान् का चिन्तन नहीं हो सकेगा। तो शरीर के लिये उन्होंने ये योग, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये सब बताये। इससे शरीर भी स्वस्थ रखो और साथ-साथ मन पर भी कन्ट्रोल करो अर्थात् भगवान् में लगाओ। यम, नियम अर्थात् श्रीकृष्ण की भक्ति करो, ये नियम है। ऐसे नहीं मन पर कन्ट्रोल होगा। इसको आनन्दसिन्धु में डुबोओ। वो आनन्द ही तो चाहता है। संसार में क्यों भाग रहा है बेचारा ? चप्पल जूते खाता है, फिर वहीं जाता है। क्योंकि वो बिना आनन्द के चैन से बैठेगा नहीं, एक क्षण को भी कोई मन अकर्मा नहीं रह सकता।
न हि कश्चत्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। (गीता ३.५)
इसलिये यम नियम बताया गया। फिर उसके बाद आसन । ये क्रम से चलना चाहिये। आसन क्या है ? व्यायाम है। वैज्ञानिक जो व्यायाम है, उसको आसन कहतें हैं। बहुत प्रकार के होते हैं और नये-नये भी हो रहे हैं। जिससे हमारे शरीर के प्रत्येक अंग को परिश्रम पड़े। ये शरीर ऐसा बनाया गया है कि अगर परिश्रम न करोगे तो, जिसको व्यायाम कहते हैं आप, उसमें घुन लग जायगा, रोग पैदा हो जायगा और ज्यादा परिश्रम करोगे तो भी दीमक खा जायगा। ये जितना भी शरीर के लिये आवश्यक है, वो लिमिट में होना चाहिये, वैज्ञानिक होना चाहिये। जो अच्छा लगे वो खाये जाओ, तो बीमार हो जाओगे। तो ठीक-ठीक खाना है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नाव बोधस्य योगो भवति दुःखहा। (गीता ६.१७)
अर्जुन से भगवान् ने कहा खाना, पीना, सोना, जागना ये सब संयमित और वैज्ञानिक होना चाहिये। हमारे शरीर का निर्माण जिन-जिन तत्त्वों से हुआ है उन उन तत्त्वों को इस शरीर को पूरी लिमिट में देना होगा। एक विटामिन कम हो जायगा तो फिर आपके शरीर का हिसाब गड़बड़ हो जायगा। जैसे एक इंजन में सैकड़ों पुरजे होते हैं। एक तार निकल जाय तो एक करोड़ की मशीन बैठ जाती है। ऐसे ही बहुत समझदारी के साथ मन पर कन्ट्रोल करने के लिये ये खान-पान, सोना-जागना सब करना चाहिये।
भाग :-२ ( योग का वास्तविक अर्थ )
भक्ति धाम - मनगढ़ में योग शिविर के अवसर पर श्री महाराज जी का संदेश -
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये पाँच तो शरीर के लिये प्रमुख हैं और ध्यान, धारणा और समाधि ये तीन मन पर कन्ट्रोल करने के लिये हैं। ध्यान भगवान् का ध्यान करो। भगवान् का ही ध्यान क्यों करें जी ? अपनी मम्मी का, डैडी का क्यों न करें ? भगवान् शुद्ध वस्तु हैं इसीलिये मन भगवान् में लगाओगे तो मन शुद्ध होगा। अगर आपकी मम्मी महापुरुष है, भगवान् को पा चुकी है, तो कर लो। क्योंकि वो-
वीतरागविषयं वा चित्तम् (योगदर्शन २.३७)
तो ध्यान से पार हो गया। जैसे गन्दा कपड़ा होता है। तो अगर उसको गन्दे पानी से धोओगे तो और गन्दा होगा। शुद्ध निर्मल जल से धोओगे तो और उज्वल होगा। तो भगवान् और भगवान् को प्राप्त कर लेने वाले महापुरुष ये शुद्ध हैं। इनमें इसीलिये मन का अटैचमेन्ट करना आवश्यक है, इससे मन शुद्ध होगा। ये ध्यान सबसे प्रमुख वस्तु है। तो उससे क्या काम करना है ? मन भगवान् में जबरदस्ती लगाना । लगाना, पहले लगेगा नहीं, लगाना होगा।
आप लोगों में बहुत से अधिकांशतः ग्रेजुएट हैं। लेकिन दर्जा एक में भी अगर आपको दाखिला लेना है तो अपने बच्चे को जबरदस्ती भेजना होगा स्कूल। वो नहीं जाना चाहता। वो चार साल माँ की गोद में खेला है। ये अभ्यास हो गया है उसको । अब स्कूल में जाना पड़ेगा, बैठना पड़ेगा, मास्टर का डण्डा, उसकी डाँट, ये सब उसके नेचर के खिलाफ हैं। माँ को भी बड़ा प्यार है, अटैचमेन्ट है। दिन में चार बार चिपटाती है, दूध पिलाती है, नहलाती-धुलाती है, स्पर्श करती है। अपने बेटे के स्पर्श से सुख मिलता है माँ को । उसको भी अपने मन पर कन्ट्रोल करना है और बेटे को भी करना है। और स्कूल जाना है। ये अभ्यास है। यानी लगाना ये ध्यान है। लगाते लगाते लगाते फिर नैचुरेलिटी आयेगी। क्या ? लग जाना। पहले लगाना फिर लगाते लगाते लगने लगेगा।
पहले बच्चे शौक से सिगरेट पीते हैं, जरा साहब लगेंगे। शराब, पहले बेमनी से अपने दोस्त के कहने पर पीता है। आदमी। लेकिन दस बीस, पचास बार पीने के बाद फिर शराब कहती है मुझे पिओ अन्यथा हम टेन्शन पैदा करेंगें। जड़ वस्तु। और वो तो आनन्दसिन्धु हैं जिसमें तुम मन लगा रहे हो, रूपध्यान कर रहे हो। अगर बार-बार बार-बार लगाओगे तो आनन्द का अनुभव होगा, आभास होगा तो फिर लगने लगेगा। अब आराम हो गया। बच्चा अब कहता है मम्मी से, मम्मी ! अरे सवा 6 बज गये, जल्दी खाना दो, स्कूल जाना है। अरे बेटे, पहले तो हमने रसगुल्ला दिया तब भी तू नहीं जा रहा था ? अरे मम्मी तब तो बुद्धू थे, जानते नहीं थे पढ़ने का लाभ, अब मैंने जान लिया है। ऐसे ही जब ये मन लगने लगेगा भगवान् में तो फिर सारी दुनिया एक तरफ हो जाय जैसे सूरदास कहते हैं -
हृदयाद्यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ॥(विल्बमंगल- कृष्ण कर्णा.)
हृदय ते जब जाउगे मर्द बदौंगो तोय।
भगवान् को चैलेन्ज कर रहे हैं सूरदास । ये सब बाद में होगा लेकिन पहले सरेन्डर करना होगा, ध्यान फिर जब लगने लगेगा तो उसको कहते हैं धारणा और फिर जब डूब जायगा, अपने स्वरूप में स्थित हो जाना, ये योग का अन्तिम रूप। मन का वर्क बन्द हो जाता है समाधि में, न संसार का स्मरण, न अपना स्मरण। जैसे गहरी नींद में आप लोग सोते हैं उसमें न संसार का सपना देखते है और न अपना ध्यान है। शून्यावस्था। इसके बाद फिर और अवस्थायें होती हैं। लेकिन उनको पतजंलि ने नहीं लिखा है। जो प्रेम की अवस्थायें होती हैं उसके आगे। लेकिन इस समाधि में भी इतना सुख है कि संसार के सब के सब सुख व्यर्थ सिद्ध होते हैं। कहीं उसका आकर्षण नहीं होता, प्रायः ।
तो इस प्रकार पतजंलि के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए ये योग का प्रचार किया गया। इसमें एक शरीर के लिये है, एक मन के लिये है। तो शरीर को भी स्वस्थ रखना है, साथ-साथ मन को भी भगवान् में लगाना है तब योग पूरा होगा। क्या पूरा होगा ? -
संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्म परमात्मनोः। (याज्ञवल्क्य)
जीवात्मा और परमात्मा का मिलन हो गया, बस योग पूरा हो गया।
:- श्री महाराज जी । ( भगवद् गीता भाग -6)
**************समाप्त ***************
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