संकीर्तन यज्ञ प्रणयन व प्रतिष्ठापन , पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी के पुस्तक "भक्ति रत्नाकर शिक्षाष्टकम्" से
इस पोस्ट को पढ़ना , पढ़कर जानना हम सभी के लिए अत्यंत जरूरी है । -
पूज्यनीयां रासेश्वरी देवी जी के पुस्तक " भक्ति रत्नाकर शिक्षाष्टकम्" के बिषय संख्या -१ पेंज नंबर 19-28 को प्रसतूत कर रहा हूं ,
इस पुस्तक के आगे के अति महत्वपूर्ण दुर्लभ प्रवचनों को पढ़ने के लिए कृप्या " भक्ति रत्नाकर शिक्षाष्टकम्" को खड़ीदे ।
इस पुस्तक में पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी ने श्री गौरांग महाप्रभु और श्री कृपालु महाप्रभु के भक्ति सिद्धांतों के समानता को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है जो अत्यंत दुर्लभ है । तो प्रस्तुत है इस पुस्तक का एक भाग -
संकीर्तन यज्ञ प्रणयन व प्रतिष्ठापन
अनेक ग्रंथों में नाम का माहात्म्य बतलाया गया है। नाम की महिमा गाई गई है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।
यह वृहन्नारदीय पुराण मंत्र कहता है- नाम के अतिरिक्त और कोई भी कल्याण का मार्ग नहीं है। कौन-से युग में ?
- कलियुग में। 'श्रीमद्भागवत' में भी बड़ी महत्वपूर्ण बात बताई गई-
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः ।
कीर्त्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंग: परं ब्रजेत्।
दोषों से युक्त है यह कलियुग ! लेकिन अनेक दोषों से युक्त होने पर भी इसमें एक गुण है। यह एक गुण सब दोषों को ढके हुए है। एक गुण सब पर भारी है। 'नास्ति एको गुण:'- दोष ही दोष है। लेकिन! एक गुण है भगवान्नाम। कलियुग में एक ही सबसे बड़ी बात है। यदि कोई साधक भगवन्नाम का सहारा ले लेता है और उसकी गति एकमात्र नाम में हो जाती है, 'गतिर्न्यथा!' तो उसे अन्यत्र कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। अन्य कोई उपाय करने की आवश्यकता नहीं। और न ही माया से मुक्ति का इस कलियुग में कोई उपाय है। सो, सदा याद रखें कि उद्धार का एक ही उपाय है- नाम संकीर्तन !
चाहे सूरदास हों, गाते रहे नाम। नानक हों, गाते रहे नाम। मीरा हों, गाती रहीं नाम-
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु,
कृपा कर अपनायो।
उसी प्रकार तुलसी ने भी गाया नाम-
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि ।
संतत सुनिअराम गुन ग्रामहि ।।
कलयुग केवल राम अधारा ।
सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा ।।
श्री रामकृष्ण देव आए और उन्होंने भी नाम की महिमा बताई-
डाक देखी मन डाकार मतो।
केमन श्यामा थाकते पारे ।
अरे! उनका नाम बुलाकर तो देखो। तुम सही-सही बुला लो और श्यामा रुक जाएँ ! यह कतई संभव नहीं। यह तो हो ही नहीं सकता कि तुम श्यामा को बुलाओ और वे न आएँ। तुम्हारा बुलाना ही सही नहीं है। श्री रामकृष्ण देव कहते हैं कि बुलाते हो तो बुलाने के समान बुलाओ न! एक्टिंग क्यों करते हो ? क्यों सभ्यता का पालन कर रहे हो? जैसे अपने बेटे, पति, पत्नी आदि को बुलाते हो, वैसे बुलाओ। जब-जब वृन्दावन के रसिक आए, उन्होंने जीवों को नाम धारण करवा कर इसे पक्का करवा दिया। नाम के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है। ये सब भक्तियोगी संत और रसिक हैं। चाहे स्वामी हरिदास हों, चाहे हितहरिवंश! ये सब कलिकाल के हैं। इन सबने नाम- संकीर्तन को मंगलकारी बताया।
और प्रेमावतारी गौरांग महाप्रभु! उन्होंने तो इसे यज्ञ रूप में प्रकटित ही किया और इस धरा को 'हरि-बोल' नाम संकीर्तन का दान दिया। इससे पहले लोग नाम संकीर्तन के महत्व को समझते ही नहीं थे। गौरांग महाप्रभु कौन हैं? गौरांग महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण हैं। इन्होंने भक्त रूप में इस धरा पर अवतार लिया और प्रेमावतारी कहलाए।
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति कलौ वक्ष्यति प्रत्यहम्।
नित्यं यज्ञायुतं पुण्यं तीर्थकोटिसमुद्भवम्।
- स्कंद पुराण
स्कंद पुराण कहता है कि कलियुग में यदि कोई जीव निरन्तर कृष्णनाम लेता है तो उस जीव को नित्य दस हजार यज्ञ तथा करोड़ों तीर्थों का फल प्राप्त होता है।
गौरांग महाप्रभु जी ने इसे ही बहुत सुंदर कहा है- संकीर्त्तन-यज्ञे करे कृष्ण-आराधन ।
सेइ त सुमेधा पाय कृष्णेर चरण ||
- श्रीचैतन्य चरितामृत
सुमिधा माने बुद्धिमान । जो संकीर्तन यज्ञ करते हुए श्रीकृष्ण की आराधना करता है- 'सेइ त सुमेधा', वही तो बुद्धिमान है। वह बुद्धिमान क्या पाता है ? - श्रीकृष्ण की सेवा। यहाँ यज्ञ का क्या अर्थ है ? 'यज्' धातु से 'यज्ञ' शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है- पूजा करना, अर्पण करना। और आराधन का मतलब होता है- मन से संग करना। तो यज्ञ का मतलब पूजा करना और आराधन का मतलब मन से संग करना। पूजा माने अर्चना, अपने आपको अर्पित करना।
गौरांग महाप्रभु कह रहे हैं कि इस कलियुग में यदि कोई जीव संकीर्तन यज्ञ कर ले, भगवान के नाम को धारण कर ले और जिस नाम को धारण किया है, उसकी आराधना करे तो ऐसे जीव को बुद्धिमान कहा जाएगा। ऐसे बुद्धिमान को क्या मिलेगा? - श्रीकृष्ण की प्रत्यक्ष सेवा ।
इसी बात को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वयं श्रीकृष्ण को भक्त रूप धारण कर इस धरा पर आना पड़ा। श्री कृष्ण चैतन्य गौरांग महाप्रभु बनना पड़ा। उन्होंने स्वयं इस यज्ञ को उन्मेषित, प्रकटित और स्थापित किया। वैसे तो वे नामी ही हैं और उनके रोम-रोम में आनन्द-ही-आनन्द है, लेकिन उस नाम को भक्त बनकर कैसे धारण करना है, स्वयं करके दिखलाया। गौरांग महाप्रभु ने यह सिद्ध कर दिया कि कलियुग में नाम संकीर्तन ही अनर्थ-निवृत्ति, दुःख-निवृत्ति और परमानन्द प्राप्ति का एकमात्र उपाय है।
गौरांग महाप्रभु ने अवश्य ही इस यज्ञ को उन्मेषित, प्रकटित और स्थापित किया, पर वे अपने लिए ही नहीं वरन् दूसरों के लिए भी बड़े कड़े थे। चूँकि संन्यास ग्रहण किया था, इसलिए सब लोग उनके पास नहीं जा सकते थे। लोग उनके पास जाने के लिए व्याकुल रहते थे, लेकिन सबको पास जाने का मौका नहीं मिल पाया। वे ज़्यादा किसी से मिलते-जुलते ही नहीं थे। उन्होंने स्वयं न कोई सम्प्रदाय, न कोई मिशन और न ही कोई स्मारक बनाया इसलिए अनुयायियों को किसी भी प्रकार की सेवा करने का मौका नहीं मिला। लेकिन इन्हीं प्रेमावतारी गौरांग महाप्रभु ने फिर से आने की इच्छा बनाई।
गौरांग महाप्रभु इस बार भक्तियोग रसावतारी बनकर आए। उस समय जो साधक चैतन्य महाप्रभु के पास जाने के लिए तरसते थे, जो सेवाओं से वंचित रहे, उन्होंने इस अवतार में कृपालु महाप्रभु की भरपूर सेवा और सान्निध्य पाया। जगद्गुरु कृपालु जी महाराज ऐसी कृपालुता के मूरत कि मन-तन-वाणी हर प्रकार से कृपालु ! ताकि कोई शिकायत ही न रह जाए। वृद्ध, किशोर, बालक सबका आह्वान। सब आ जाओ। मेरे पास कोई संकोच नहीं । डरो मत। यहाँ सब अपनाए जाते हैं।
उन्होंने अपने पिछले अवतार में पास की सेवा का अवसर ही नहीं दिया! सबको पास जाने से भी डर लगता था। और इस अवतार में! सबको अपना लिया। क्यों? - जब सर्वजन के लिए भक्तियोग रसावतार बनकर आए तो भक्ति रस सबको लुटाएँगे न! इसलिए इस अवतार में कोई कठोरता नहीं, कोमलता-ही-कोमलता। दयालुता-ही-दयालुता! कृपालुता-ही-कृपालुता!! स्वयं अँगुली पकड़-पकड़कर हर साधक को अपनी दिव्य वाणी और दिव्य दर्शन से भक्ति की शिक्षा दी। इन्होंने कोई शिकायत नहीं रहने दी।
जहाँ महाप्रभु राधाभाव आविष्ट लीला संगोपन कर अपने धाम चले गए, वहीं इस अवतार में उसी राधाभाव से कृपालु महाप्रभु के रूप में उनकी वृन्दावन में लीला आरम्भ हुई। उसी राधाभाव में! यहीं से उन्होंने अपना सत्संग आरम्भ किया। इस प्रकार उस परम तत्त्व ने ही गौरांग महाप्रभु के रूप में संकीर्तन यज्ञ को उन्मेषित किया और अब इस अवतार में कृपालु महाप्रभु के रूप में उसी लीला को आगे बढ़ाया। किस प्रकार ?
श्यामा श्याम नाम रूप लीला गुण धामा।
गाओ रो के रूपध्यानयुक्त आठु यामा।। जहाँ गौरांग महाप्रभु जी ने अंतरंग भक्तों को रूपध्यान संकीर्तन कराया, वहीं आम लोगों के लिए उनका उपदेश था- येन केन प्रकारेन 'हरि-बोल' बोलो। मन नहीं है तो भी बोलो, आदत बनाओ। लेकिन, इस अवतार में महाप्रभु जी ने कृपालु महाप्रभु जी के रूप में एक-एक को सिखाया ! इन सबको एक साथ अपने रूपध्यान में लाओ ! इसमें नाम भी हो, रूप भी हो, लीला भी हो, गुण भी हो, धाम भी हो, उनके जन भी हों। और उसके लिए सामग्री भी प्रस्तुत कर दी- 'प्रेम रस मदिरा', 'राधा गोविन्द गीत', 'श्यामा श्याम गीत’, ‘भक्ति शतक' आदि। गाओ, खूब गाओ! और रूपध्यान की विधि भी सिखा दी। अंत:करण की शुद्धि के उपाय भी बता दिए। उन्होंने नाम की महत्ता को स्थापित करने के लिए ही इस अवतार में इतना परिश्रम किया।
उन्होंने जोर देकर कहा- कलियुग में एकमात्र नाम ही तुम्हारा कल्याण कर सकता है, दूजा कोई उपाय नहीं ।
जिस भाँति श्री गौरांग महाप्रभु जी ने अपने 'अष्टपदी' में नाम माहात्म्य का सार प्रदान किया है और साथ ही उन्होंने इसे अनुभवात्मक रूप से स्वयं विस्तार से करके दिखाया है। उसी भाँति जगद्गुरु स्वामी श्री कृपालु जी महाराज ने भी इसे शाब्दिक एवं अनुभवात्मक दोनों रूप में प्रस्तुत किया है। इन्होंने अपने ग्रंथ 'राधा गोविन्द गीत' के 'संकीर्तन' भाग में इसी विषय पर सुन्दर प्रकाश डाला है। इसमें इन्होंने न केवल विशद व्याख्या की है बल्कि स्वयं साधकों के मध्य उपस्थित रहकर अथक परिश्रम कर इसकी अनुभवात्मक शिक्षा भी प्रदान की है। जिस प्रकार से चैतन्य महाप्रभु जी ने जगत को अनुभवात्मक रूप से हरिनाम संकीर्तन की शिक्षा प्रदान की है। श्रीकृष्ण भक्ति कैसे की जाती है, उन्होंने इसे स्वयं करके दिखाया, ठीक उसी भाँति श्री महाराज जी ने भी इसे अपने अवतार काल में किया। इन्होंने भी भगवन्नाम को प्राथमिकता दी और इसे सार व परम साधन बताया। प्रभु के नाम लेने के विषय में प्रत्येक आचार्य ने एक-सी ही बात कही हैं। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, जगद्गुरु रामानुजाचार्य, जगद्गुरु निम्बाकाचार्य, श्री चैतन्य महाप्रभु जी और कृपालु जगद्गुरु श्री जी महाराज, सभी एक ही बात कहते हैं। शब्द अलग-अलग हैं, किन्तु भाव एक है।
चैतन्य महाप्रभु नामग्रहणकारी को यह कहते हैं कि यदि ईश्वर प्राप्ति करना चाहते हो, तो सर्वप्रथम व्याकुलता बढ़ाओ। व्याकुलता परमावश्यक है! बिना व्याकुलता के भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस व्याकुलता को पैदा करना ही होगा, इसे बढ़ाना ही होगा। हमें उन्हें पुकारना ही होगा।
ब्रजवासियों ने इसी व्याकुलता को 'लालसा' कहा । रामानुजाचार्य ने इसे 'ताप' कहा। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने इसको 'मुमुक्षुत्व' कहा। चैतन्य महाप्रभु ने इसे 'व्याकुलता' ही कहा। अब जगद्गुरु कृपालु जी महाराज ने इसी 'लालसा', 'ताप', 'मुमुक्षुत्व' और 'व्याकुलता' को इस अवतार काल में 'परम व्याकुलता' कहा। उन्होंने इसी 'व्याकुलता' के आगे 'परम' लगा दिया ।
उसको पाने की लालसा रखने वाले के विषय में 'गीता' में कहा गया है-
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
एक अर्थार्थी होता है, एक ज्ञानी होता है और एक आर्त होता है। अर्थार्थी भगवान से पूरा बहिर्मुख होता है। वह उपासना या पूजा आदि करता है, पर केवल अपनी संसारी इच्छाएँ की पूर्ति के लिए। दूसरा होता है जिज्ञासु! जिज्ञासु जानना चाहता है- मैं कौन हूँ? मैं इस जगत में क्यों आया हूँ आदि। उसका एकमात्र उद्देश्य अपनी जिज्ञासाओं को पूर्ण कर लेना है। वह अर्थार्थी के समान बर्हिमुख नहीं, वरन् अन्तर्मुखी होता है। इस जिज्ञासु से ऊपर होता है आर्त ! जो उनको पाने लिए व्याकुल रहता है, उसे आर्त कहते हैं । इसी आर्त के संबंध में चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं- यदि तुम आर्त हो, तो तुमसे भक्ति होगी। श्री महाराज जी भी कहते हैं कि पहले आर्त बनो। यानी पहले व्याकुलता पैदा करो और फिर तुम्हारी यही व्याकुलता परम व्याकुलता की अवस्था तक पहुँच जाए। यानी उनके बिना न रहा जाए, ऐसी परम व्याकुलता हो जाए। तो, चैतन्य महाप्रभु और कृपालु महाप्रभु दोनों ही कहते हैं कि व्याकुलता पैदा करनी होगी, लालसा पैदा करनी होगी। परम व्याकुलता से पुकारो ! पुकारोऽऽऽ!!
हे देव! हे दयित! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करुणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम !
हा हा कदानुभवितासि पदं दृशोर्मे।।
:- पूज्यनीयां रासेश्वरी देवी जी के पुस्तक " भक्ति रत्नाकर शिक्षाष्टकम्" के बिषय संख्या -१ पेंज नंबर 19-28
इस पुस्तक के आगे के अति महत्वपूर्ण दुर्लभ प्रवचन को पढ़ने के लिए कृप्या " भक्ति रत्नाकर शिक्षाष्टकम्" को खड़ीदे ।
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