योगक्षेमं वहाम्यहम्
पोस्ट संख्या :- 1
योगक्षेमं वहाम्यहम् पर श्री महाराज जी द्वारा डिटेल में व्याख्या तथा निर्देश उन्हीं के श्री मुख से:-
अपने गुरु, अपने मार्ग और अपने इष्टदेव में अनन्यता होनी चाहिये अर्थात् उन्हीं तक अपने जीवन को सीमित कर देना चाहिये। उसके बाहर न देखना है, न सुनना है, न सोचना है, न जानना है, न करना है और अगर कोई विरोधी वस्तु मिलती है तो उससे उदासीन हो जाना है- न राग, न द्वेष । अनन्यता का अर्थ बताते हैं नारद जी-
अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता। (ना.भ.सूत्र १०)
अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है। यह 'अनन्य' शब्द बहुत इम्पॉर्टेन्ट है, भगवत्प्राप्ति के बाद भी काम देगा आपको |
इसीलिये गीता में बार-बार प्रत्येक अध्याय में अनन्य' शब्द का प्रयोग किया है -
तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च। (ना.भ.सूत्र ९)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (गीता ९.२२)
भक्तों को, साधकों को प्रथम अवस्था में यह डाउट रहता है कि अगर हम लोक-वेद का परित्याग करके केवल भक्ति ही करेंगे तो हमारा यह शरीर व्यवहार कैसे चलेगा ? बड़ी गड़बड़ हो जायेगी अर्थात् एक जो लोक-वेद का पालन करते हुए भक्ति करते हैं तो वे सब लौकिक-वैदिक कर्मों को भगवान् को समर्पित करते हैं और भक्ति करते हैं और रागानुगा-भक्ति वाले लोक-वेद का स्वरूपतः परित्याग कर देते हैं जो परमावश्यक कार्य है शारीरिक, केवल उतना मात्र करते हैं लेकिन यह शंका रहती है साधकों को तो भगवान् उसका निराकरण करते हैं कि- योगक्षेमं वहाम्यहम् ।
तुम लोग चिन्ता न करो। तुम्हारे योगक्षेम को 'मैं' वहन करूँगा, डायरेक्ट 'मैं'। जो तुमको नहीं मिला है मटीरियल या स्पिरिचुअल, वह सब मैं दूँगा और जो मिला है, उसकी मैं रक्षा करूँगा - फिजिकल भी और स्पिरिचुअल दोनों।
महाभारत के एक बहुत बड़े भाष्यकार हुए हैं- जगन्नाथ मिश्र, उन्होंने एक लाख श्लोकों का भाष्य लिखा है। बहुत प्रख्यात शास्त्रों वेदों के विद्वान्। तो वो गीता के इस श्लोक का भाष्य लिख रहे थे
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (गीता ९.२२)
तो उनके दिमाग़ में एक डाउट पैदा हुआ कि योगक्षेम भगवान् स्वयं वहन करेंगे, यह बात कुछ समझ में नहीं आती। भगवान् स्वयं योगक्षेम क्यों वहन करेंगे? अरे, किसी से करा देंगे। तमाम शक्तियाँ हैं उनकी, अनन्त देवी-देवता स्वर्ग वाले तमाम, किसी को इशारा कर देंगे-हाँ भई, इसको खाना दे दो,
भूखा है हमारा भक्त। यह लोक-वेद का परित्याग कर केवल मेरी भक्ति करता है। तो उन्होंने वहाम्यहम् इस शब्द को पसन्द नहीं किया और उस 'वहा' के ऊपर उन्होंने हड़ताल लगा दी और लगा करके उसके ऊपर लिख दिया ददा। वहाम्यहम् ठीक नहीं जँचता, इसलिये ददाम्यहम् कर देना चाहिये, और ऐसा करके चले गये गंगा जी नहाने और घर में उनके आटा, दाल, चावल, कुछ नहीं। आज फाका होने की बात थी। ठाकुर जी को बड़ा खराब लगा कि यह तो हमारे ही वाक्य पर पैन चला रहा है। वहाम्यहम् को ददाम्यहम् कर दिया इसने। अरे! अर्थ तुम चाहे जो लिखो लेकिन मूल में क़लम क्यों चलाते हो और वह भी भगवान् की वाणी में? योगक्षेमं वहति ।
इतने में ठाकुर जी एक बालक के वेष में, साधारण कपड़ों में- मोरमुकुट, कटि, काछनी वगैरह नहीं- साधारण वेष में और एक गठरी सिर पर रखा आटा, दाल, चावल की बीस किलो की, रख करके जगन्नाथ मिश्र के घर पहुँचे।
तो उनकी बीबी थीं तो उन्होंने कहा- बेटा, तू कौन है? मैं (उनके पति का नाम बताया) जगन्नाथ मिश्र का शिष्य हूँ और यह सामान भेजा है उन्होंने- आटा, दाल, चावल, खाना बनाने के लिये। तो उनके मुँह पर चोट लगी थी, तमाम मुँह पिचक गया था ठाकुर जी का। उन्होंने कहा- बेटा! तुमको किसने मारा? इतना छोटा-सा है अभी, इतना बड़ा गट्ठर ले आया है एक तो उन्होंने कहा कि माँ! हमको जगन्नाथ मिश्र ने मारा। क्यों ? चुप हो गये ठाकुर जी, क्यों क्या बतावें? एक तो इतना बड़ा बोझा लाद दिया छोटे-से बच्चे के ऊपर और उसको मारा भी। यह सठिया गया है जगन्नाथ मिश्र, बुढ़ापे में। अब ठाकुर जी चले गये। जगन्नाथ मिश्र वापिस लौटे तो स्त्री डाँटने लगी। अरे! बुढ़ापा आ गया तुम्हारा, तुम कैसे होते जा रहे हो आजकल ? छोटे-से बच्चे को तुमने इतना मारा कि उसके सारे मुँह में घाव हो गये ? जगन्नाथ मिश्र कहते हैं- क्या बकबक कर रही है ? कौन-सा बच्चा ? किसको हमने मारा? उन्होंने कहा- जो यह रख गया है। जिसके हाथ तुमने भेजा है आटा, दाल, चावल, सब यह सामान। मैंने भेजा है। तेरा दिमाग़ तो यही है ? अब वह उसके खिलाफ, वह उसके खिलाफ और कन्फ्यूज़न दोनों को। जगन्नाथ मिश्र की यह पता नहीं कि ठाकुर जी आये थे, सामान दे गये थे और उनकी स्त्री की यह पता नहीं कि जगन्नाथ मिश्र को पता ही नहीं है कुछ, मारने-पीटने की कौन कहे ? सामान भेजने की कौन कहे ? तब सब डिटेल बताया जगन्नाथ मिश्र की श्रीमती ने। तब जगन्नाथ मिश्र लगे दहाड़ मारकर रोने। अरे! मेरे प्राणवल्लभ को चोट लगी। मैंने हड़ताल लगा दिया था जो वहाम्यहम् के ऊपर और ददाम्यहम् लिख दिया था, इसलिये यह सब हुआ। तो भगवान् योगक्षेम वहन करते हैं। उसकी चिन्ता नहीं करना है अनन्य भक्त को, कि लोक-वेद का परित्याग हो रहा है तो हमारा क्या होगा ? अरे! - अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
जब इन लोगों का वह रक्षक है तो जो शरणागत है -
स भक्तान् किमुपेक्षते ॥ (पा. गीता)
वे योगक्षेम वहन करेंगे। नारद जी ने एक सूत्र बना दिया, इसके लिए -
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ।
(नारद भ.सू. ६१)
लोक-वेद को तुमने त्याग दिया है इसलिए लोक की हानि या वेद की हानि में चिन्ता नहीं करना। मैं योगक्षेम वहन करूँगा। अगर देवता लोग क्वेश्चन करेंगे कि उसने वैदिक कर्म छोड़ दिया, तो हम जवाब देंगे और लौकिक जगत् के लिए भी हम योगक्षेम वहन करेंगे।
श्री महाराज जी ( भगवद् गीता भाग -५ ) शेष फिर अगले पोस्ट संख्या :- २ में ।
योगक्षेमं वहाम्यहम्
श्री महाराज जी के श्री मुख से :-
निवेदितात्मभिश्चिन्ता न कार्या क्वापि कदापि न ।
निवेदनं च स्मतर्व्यं सर्वदा तादृशैर्जनैः ॥
निवेदन को स्मरण करो। लोक-हानि में, संसारी वस्तुओं के अभाव में टेन्शन मत लाओ, चिन्ता न करो। कभी-कभी भगवान् लोक-हानि जानबूझकर कर देते हैं -
यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः । (भागवत १०.८८.८)
वास्तव में तो संसार का जितना भी अभाव है -
देशत्यागो महान्व्याधिर्विरोधो बन्धुभिः
सह धनहानिरपमानञ्च मदनुग्रहलक्षणम् ॥ (नारद पां.)
संसारी पदार्थों का जो अभाव है, वह भगवत्कृपा ऑलरेडी है ही है ताकि हमारा भक्त उसमें उलझ न जाये। भगवान् को चिन्ता है क्योंकि योगक्षेम वहन करना है।
नारद जी कहते हैं -
अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता। (नारद भ.सू. १० )
अन्य का आश्रय न ले, वह अनन्य भक्त है। यह अन्य के आश्रय का क्या मतलब है ? श्रीकृष्ण, उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके सन्त इतने में मन रहे तो वह एक ही बात है। वह अनन्य रहेगा। इसके बाहर गया अगर, तो अन्य हो जायेगा और अगर अन्य हुआ, तो योगक्षेमं वहाम्यहम् नहीं होगा। यह अनन्य शब्द बहुत ही इम्पॉर्टेन्ट है। जिस दिन यह शब्द आप लोगों की बुद्धि में बैठ जायेगा और आप अनन्य हो जायेंगे फिर सब करतलगत हो जायेगा। इसीलिये अनन्य के लिए गीता में, जहाँ बड़ी-बड़ी बातें कही गई हैं
जन्मान्तर सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥ (गीता ७.३)
हज़ारों जन्मों में कोई प्रयास करता है। फिर हज़ारों जन्म प्रयत्न करने के बाद कोई सिद्धि को प्राप्त करता है फिर उन सिद्धों में भी कोई माया से उत्तीर्ण होता है। ये हजारों जन्मों के मामले हैं। वहीं गीता यह भी कहती है
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (गीता ८.१४)
अरे अर्जुन! मैं बड़ा आसान हूँ अगर कोई अनन्य हो जाये। भजन तो सब करते हैं लेकिन अनन्य होकर भजन नहीं करते। उनके मन का अटैचमेन्ट मेरे अन्दर 'भी' है, लेकिन 'ही' नहीं है। केवल मेरे अन्दर रहना चाहिये। यह बात निरन्तर होनी चाहिये। यो मां स्मरति नित्यशः ।
सततं ध्यान दो! एक श्लोक की एक लाइन में दो बार एक ही शब्द को बोला है।
अनन्यचेताः सततं माने निरन्तर, हमेशा और यो मां स्मरति नित्यशः माने हमेशा, सदा। ये दो बार क्यों कहा? हम लोगों की खोपड़ी ठीक करने के लिये कि देखो, मैं बार-बार कह रहा हूँ हमेशा। यह नहीं कि एक घण्टे के लिए साधना करने बैठे तो अनन्य भावना बना ली और उसके बाद अन्य का अवलम्ब रिअलाइज़ कर रहा है। अन्य का अवलम्ब क्या? जैसे- धन का अवलम्ब, पैसे का अवलम्ब । अरे साहब! पैसा जिसके पास है, सब मुट्ठी में है उसके ।
एक महात्मा अमेरिका गये, तो वहाँ के एक बहुत बड़े फिलॉसफर ने क्वेश्चन किया कि आपके भारत में क्या खास बात है ? कोई एक खास बात बताओ तो उस महात्मा ने उत्तर दिया- हमारे भारत में एक ऐसी बात है जो आपके देश में कहीं नहीं मिलेगी। क्या ? हमारे यहाँ कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको धन से झुकाया नहीं जा सकता। धन से, पैसे से उनको झुकाया नहीं जा सकता, ऐसे हमारे यहाँ कुछ लोग हैं। यानी स्पिरिचुअल मैन जो अनन्य हैं, वे ।
तो धन का बल हमको मदान्ध किये रहता है श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥
कोई मायाधीन जीव ऐसा हो ही नहीं सकता कि अधिक धन हो और वह अनन्य हो जाये। बाइबिल में यहाँ तक लिखा है कि सुई के छेद से करोड़ों ऊँटों के काफिले भले ही निकल जायें, लेकिन पैसे वाला ईश्वरीय मार्ग में नहीं चल सकता। कथमपि नहीं चल सकता। ये जो चलते हुए दिखाई पड़ते हैं, यह सब लौकिकता है, एक्टिंग है, बनावट है। करोड़ों का मंदिर बनवा रहा है अरबपति, धर्मशालायें बनवा रहा है, अनेक प्रकार के अनाथालय खोले हुए है, गोशालाएँ खोले हुए है। यह सब पैसा कमाने का ज़रिया है, प्रतिष्ठा पाने का और उसके द्वारा फिर पैसा कमाने का। तो धन-बल से अनन्यता नष्ट हो जायेगी। इसलिये हमारे दो रोटी के प्रबन्ध के अलावा जो पैसा हो, उसको परमार्थ में लगा देना चाहिये। वह खतरे की चीज़ है, अपने पास मत रखो। बड़े-बड़े कहलाने वाले योगीन्द्र-मुनीन्द्र भी संसारी सम्पत्ति के वैभव के चक्कर में पड़ कर भगवान् को भूल गये। बाली को मारा राम ने, सुग्रीव को राज्य दे दिया। वह भूल गया। लक्ष्मण ने याद दिलाया, अरे भाई ! वो माताजी सीताजी की खोज करना है और तुमने कुछ खयाल नहीं किया! कौन सीता ? कौन सीता अरे ! हमारे प्रभु राम की... । कौन राम ? सुग्रीव कहता है- कौन राम ? लक्ष्मण को क्रोध आया, उन्होंने बाण निकाला, अग्निबाण और तान दिया- बताऊँ, कौन राम ? ओ ओ ! याद आया, याद आया। यह देखिये, मद सुग्रीव को ! जिसने प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि बाली को कोई नहीं मार सकता विश्व में और राम ने मार दिया। यह अनुभव, चमत्कार का अनुभव प्रत्यक्ष किया, ताड़ के वृक्षों का भेदन भी देखा और फिर भी भूल गया। यह ऐसा भयानक है। जब वहाँ तक नहीं छोड़ता तो-
नर पामर कर केतिक बाता।
लेकिन अगर आप लोग अपने-आप से पूछेंगे कि मेरे पास एक करोड़ है, पचास लाख है, क्या मैं अहंकार करता हूँ? नहीं, बिल्कुल नहीं। अपने-आप क्वेश्चन, अपने-आप आन्सर। आपकी बुद्धि नहीं बता सकती कि आप में वह धन गड़बड़ी पैदा कर रहा है, ईश्वर की ओर जाने से रोक रहा है, वह खींच रहा है अपनी ओर। यह आपको पता नहीं चलेगा। ये भगवान् जानते हैं, आपका गुरु भी जानता है, धन-मद । इसी प्रकार पोस्ट का मद, अनेक प्रकार के मद होते हैं जिनका हम आश्रय लिये हुए हैं और उनके कारण अनन्यता में बाधा पहुँच रही है, हम अनन्य नहीं बन पा रहे हैं । चाहते हैं लेकिन ये रुकावटें आ जाती हैं बीच में। कोई दूसरे के आश्रय लेता है, अन्याश्रय - हमारे बाप ऐसे हैं, हमारी माँ ऐसी है, हमारा बेटा ऐसा है, हमारा भैया ऐसा है, हमारा पड़ोसी ऐसा है, हमारे दस दोस्त हैं, ऐसे ऐसे हैं। हम जो चाहें, सो कर लें । अरे! प्राइम मिनिस्टर तो हमारा क्लास फैलो है। यह दूसरे का अवलम्ब लिया। जीवों का अवलम्ब ।
पहली बात तो किसी जीव के शरीर का एक क्षण का भरोसा ही नहीं। शरीर का नम्बर दो- अगर शरीर उसका, आप भगवान् के यहाँ से लिखवा भी लें कि हाँ, सौ वर्ष रहेगा तो उसकी चित्तवृत्ति का भरोसा नहीं। अरे रोज स्त्री, पति, बाप, बेटे में खटपट होती है, आप लोगों का अनुभव है। तो चित्तवृत्ति का अगर एक स्वरूप हो तो खटपट क्यों हो। बदलता रहता है चित्त, उसके चिन्तन, उसके विचार, उसके आइडियाज़। तो शरीर का भी ठिकाना नहीं, चित्त का भी ठिकाना नहीं। ऐसे लोगों का अवलम्ब ले रहे हैं आप ! वह क्या टिकाऊ होगा ? चार दिन आपने बड़ी तारीफ की। यह दोस्त बड़ा अच्छा है, बड़ा अच्छा है। अरे! बड़ा बदमाश निकला, बड़ा स्वार्थी है, ये तो बड़ा चार सौ बीस है, ये तो बड़ा नम्बरी लोफर है और जब भगवान् और महापुरुषों ने कहा था कि सभी जीव एक से हैं स्वार्थी, इनमें अपनापन मत मानो, इनका फेथ न करो। ये चार दिन विश्वास में लेंगे और पाँचवें दिन विश्वासघात कर जायेंगे, स्वार्थ के लिये। और अगर यह भी न हो तो भी हमें वो क्या दे देंगे जिनका आश्रय ले रहे हैं।
सम्मीलने नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति ॥ (सूक्ति-विक्रमादित्य)
जिस क्षण में हमको शरीर छोड़ना होगा, ये सारे आश्रय छूट जायेंगे। वो भले ही सबके सब आपके पीछे जहर खा के मर जायें फिर भी आपके साथ नहीं जायेंगे। उन्होंने जो आत्महत्यायें की हैं, उनके दण्ड भोगने के लिये उनको नरक भेजा जायेगा।
तो कुछ लोग जीवों का आश्रय लेते हैं, कुछ लोग धन वगैरह मटीरियल मैटर का आश्रय लेते हैं। कुछ लोग अपना आश्रय लेते हैं। हमें और किसी पर विश्वास नहीं जी, हम स्वयं ... । हाँ, हम किसी के सामने सिर नहीं झुकाते। हम सिर कटा सकते हैं लेकिन सिर झुका सकते नहीं। (हँसी) जैसे कोई पागल बोले, फुल मैड। रोज सिर झुकाता है कामी हो कर, क्रोधी हो कर, लोभी हो कर। इन दोषों का गुलाम बन करके और गधों के आगे, कूड़ा-कबाड़ा मनुष्यों के आगे सिर झुकाने वाला यह वाक्य बोलता है, हम किसी को सिर नहीं झुका सकते। अगर कोई कामनाओं का गुलाम न हो, तो वह चैलेन्ज कर सकता है, हम किसी के आगे सिर नहीं झुकायेंगे। अगर एक भी कामना, एक सेकण्ड को भी आई तो आपका यह गुमान नहीं चल सकता। प्यास लगी, दीनता आई - पानी पिला दो, मर जाऊँगा। भूख लगी - कोई खाना खिला दो, मर जाऊँगा। इसी प्रकार जितने भी दैहिक मानसिक रोग हमारे हैं, इनके रहते हुए हम ऐसी बातें करें या सोचें तो इससे बड़ा पागलखाने में तो कोई पागल होगा नहीं लेकिन हम सब लोग ऐसा करते हैं, समय-समय पर। जहाँ कहीं ज़रा रुआब दिखाना है अपना- हाँ, हम साहब, देखिये साहब! हमने आज तक किसी के आगे हाथ नहीं फैलाये। अरे! पैदा होते ही रोने लगे तुम। तुमको भूख लगी, माँ के दूध के लिये। हाथ नहीं फैलाये ? बड़े आये, हाथ न फैलाने वाले। तुम लाये क्या थे, माँ के पेट से ? सब यहीं तो तुमको मिला हाथ फैलाने से, और कैसे मिला? अरे! किसके आगे तुमने हाथ नहीं फैलाया ? तुम्हारी हैसियत है क्या ? तुम्हारा तो स्वत्व भी नहीं है अपना, उस पर भी तुम नाज़ नहीं कर सकते कि मैं तो अपना हूँ। तुमको भी भगवान् ने अपनी शक्ति दी है, इसलिये तुम 'तुम' हो। वरना तुम तुम न रह जाओ। यह शरीर भी भगवान् ने दिया। गर्भ में इसको भगवान् ने तैयार किया। आगे चलकर के माँ के स्तनों से दूध दिया फिर संसार में तमाम खाद्य पदार्थ दिये। और तुम सब भूल गये और कहते हो- मैं हूँ। यह 'मैं-मैं' की बीमारी ने ही हमको बरबाद किया। तो अपना आश्रय लेना, अपने बल का अहंकार करना, यह भी अन्याश्रय है। अन्याश्रयाणां त्यागः बता रहा हूँ ।
धन आदि का आश्रय लेना, वो भी गलत। मनुष्यों या अन्य जीवों का आश्रय लेना, वो भी गलत । अपना आश्रय लेना, वह भी गलत ।
- श्री महाराज जी ( भगवद्गीता भाग -५)
शेष अगले पोस्ट संख्या -३ में
पोस्ट संख्या -३ योगक्षेमं वहाम्यहम्
देखो, जब द्रौपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था दुःशासन के द्वारा तो द्रौपदी ने उस साड़ी को दाँत से दबाया, पूरी ताकत से। द्रौपदी पंचकन्याओं में है। यह साधारण स्त्री नहीं, सदा सोलह वर्ष की रहती हैं- द्रौपदी, कुन्ती, मन्दोदरी, तारा, अहिल्या इतनी शक्ति शरीर में। उसने कहा- कैसे यह खींच कर हमको नंगी कर सकता है ? और साथ में मन से पुकार रही है- द्वारिकावासिन्! ठाकुर जी खाना खा रहे थे द्वारिका में। सब रानियाँ बैठी हैं। खाना खाना बन्द और आँख एकदम सामने और गस्सा मुँह का मुँह में, अन्दर नहीं निगल सके, बाहर नहीं उगल सके। ऐसी पोज़ीशन तो स्त्रियों ने कभी देखी नहीं थी।
क्या हो गया महाराज! आज कोई कंकर-वंकर आ गया क्या ? प्रायः ऐसा होता है, हम लोग जब खाते रहते हैं बड़े आनन्द में, कोई बढ़िया खाना और कंकर आ गया, तो उस समय जो मुँह बनता है हमारा- आँख और मुँह, वह एक विचित्र ढंग का होता है। उस समय शीशा तो होता नहीं कि आप लोग देख सकें अपना मुँह लेकिन और लोग देख लेते हैं। ऐसी कुछ झाँकी हो गई ठाकुर जी की लेकिन उस झाँकी से वहीं बैठे रहे। आये नहीं। क्यों? स्वबलाश्रय था उसका। द्रौपदी ने अपने दाँत का बल लगाया था। मैं रक्षा कर लूँगी अपनी और साथ में पुकारा भी था यानी 'भी' लगाया था, 'भी' और ठाकुर जी कहते हैं- अनन्य ।
माने 'ही' लगाओ। दस हजार हाथी का बल दुःशासन में, जहाँ हज़ारों मनुष्यों का बल मिल कर भी एक हाथी के बल के बराबर नहीं हो सकता और जो दस हजार हाथी के बल वाला व्यक्ति है, उससे टक्कर ले रही है द्रौपदी। तो जब खींचा दुःशासन ने पूरी शक्ति से तो साड़ी थोड़ी खिसकी, पूरी ताकत लगाने पर भी तो द्रौपदी ने कहा, मैं तो हार जाऊँगी। एक बार में उसके झटके से थोड़ी-सी खिसकी, अब दोबारा झटका देगा तो हो सकता है कि मेरे दाँत से साड़ी छिन जाये। तो द्रौपदी ने आँख बन्द कर लिया। दोनों हाथ ऊपर उठा दिया- हा नाथ! यानी स्वबलाश्रय- अपने बल का जो उसको आश्रय
था, अहंकार था, वह मिट गया। बस, तत्काल ! वहाँ से आना-वाना थोड़े ही है, वो तो वस्त्र में भी व्याप्त हैं, द्रौपदी में भी व्याप्त हैं, दुःशासन में भी व्याप्त हैं।
वह आना-जाना कुछ नहीं है। यह तो ऐसे ही खिलवाड़, तमाशा है। जब कुछ दिनों बाद द्रौपदी ने एक दिन एकान्त में ठाकुर जी से कहा- क्यों जी ! हम तो काफी देर से तुमको बुला रहे थे और तुम देर में पहुँचे वहाँ, हमारे वस्त्र को बढ़ाने के लिये। यह देर क्यों लगाई ? तो ठाकुर जी ने मजाक में कहा कि भई ! ऐसा है कि तुमने कहा था- द्वारिकावासिन्! तो मैं तो सब जगह रहता हूँ। तुमने द्वारिकावासिन् क्यों कहा? इसलिये मैं पहले द्वारिका गया फिर वहाँ से लौट के आया। (हँसी) हाँ, लेकिन यह सब ऐसे जोक है। उनको कहाँ जाना है, कहाँ आना है ? ऐसा कोई परमाणु नहीं जिसमें वो व्याप्त न हों। तो स्वबलाश्रय जैसे ही द्रौपदी का गया, अम्बरावतार हो गया। तो अपने बल का आश्रय भी खतरनाक। अब इससे आगे चलिए।
एक देवबलाश्रय होता है, देवताओं का बल । देवताओं को प्रसन्न कर ले कोई- इन्द्र को, वरुण को, कुबेर को और उनके बल के अहंकार में रहे तो यह भी अन्याश्रय हो गया। ये मूर्ख लोग हैं, जो अज्ञानी हैं
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः (गीता ७.२०) कामनाओं के गुलाम होने के कारण लोग हृतज्ञाना: जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है, ऐसे लोग अनेक देवताओं को प्रपन्न होते हैं, शरणागत होते हैं, उनका आश्रय लेते हैं, उनका अवलम्ब लेते हैं और अगर सही-सही अवलम्ब है तो वे देवता लोग फल देते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई वो कल्पना है। फैक्ट है लेकिन वो देवता लोग ही निरवलम्ब हैं, आपका अवलम्ब क्या बनेंगे, बेचारे । वो भी माया के दास हैं। जब तक माया के अण्डर में जीव है, तब तक वही स्वयं निरवलम्ब है। कोई ठिकाना नहीं उसका, न उसके मन का, न उसके शरीर का। किसी चीज़ का उसका ठिकाना ही नहीं है, कब तक रहेगा तो अवलम्ब क्या होगा ? तो देवताओं का अवलम्ब कोई ले भी ले, तो-
यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ (गीता ९.२५)
जिसका जो अवलम्ब लेगा, उसकी प्रॉपर्टी मिल जायेगी,
बड़ी कृपा करेगा। आप किसी भिखारी की शरण में जाइये, वह बड़ा दयालु हो, और कहे- मैं तुम पर कृपा करता हूँ। जो कुछ मेरे पास है, मेरा सर्वस्व ले लो। उसका झोला ले लिया, उसने झोला देखा, तो उसमें कुल पाँच पैसे का सिक्का था। जिसके पास जो है, वही तो देगा। वो बेचारे देवता लोग स्वयं भिखमंगे हैं, वो आपको क्या निहाल करेंगे ? उनका अपना ही ठिकाना नहीं है।
तो देवताओं की भक्ति करने वाले घोर मूर्ख हैं। हम जो भक्ति करते हैं देवताओं की, यज्ञ वगैरह, वह तो भगवान् के पास जाता है सैन्ट्रल गवर्नमेन्ट में, हैड ऑफिस में, लेकिन हमको फल भगवान् का नहीं मिलता, उस देवता का मिलता है। वह अविधिपूर्वक मेरी ही भक्ति कर रहा है लेकिन मेरे फल से वंचित है।
:- श्री महाराज जी ( भगवद्गीता भाग-५)
शेष अगले पोस्ट संख्या -४ में
पोस्ट संख्या -4 ( योगक्षेमं वहाम्यहम्)
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ (गीता ९.२३)
एक शंकर जी के भक्त थे, उपमन्यु उनका नाम था। तो शंकर जी को कुछ विनोद सूझा तो उन्होंने अपना स्वरूप बनाया इन्द्र का और अपने बैल को बनाया ऐरावत, त्रिशूल को बनाया वज्र और इन्द्र का पूरा साज-बाज सब बना करके ऐरावत हाथी पर बैठकर के और उपमन्यु के पास पहुँचे। तो उन्होंने देखा- अरे ! स्वर्ग सम्राट् इन्द्र हमारे घर आया है ! वो खड़े हो गये, नमस्कार किया, स्वागत किया, बैठाया। तो इन्द्र ने कहा- बेटा! वर माँगो। मैं तुमसे खुश हूँ, वर माँगो वरं ब्रूहि तो उपमन्यु ने कहा कि देखिये साहब! । सम्मान करना अलग बात है। सम्मान तो आये हुए शत्रु का भी करना चाहिये। इसलिये मैंने कर दिया। लेकिन आप जो कह रहे हैं- माँगो-वाँगो, तो मैं मँगता नहीं हूँ। अच्छा बाबा! मैं कुछ दे रहा हूँ, अपनी ओर से। मैं लेता भी नहीं हूँ किसी से।
अपिकीटः पतंगो वा भवेयं शंकराज्ञया ।
न त्विंद्राहं त्वयादत्तं त्रैलोक्यमपि कामये ॥ (महाभारत)
भगवान् शंकर अगर हमको आज्ञा दे दें- नरक में जाओ. कीड़े-पतंगे बन जाओ, मैं विभोर होकर उसको स्वीकार करूँगा लेकिन शंकर जी के अलावा, तुम इन्द्र हो, चाहे जो हो, मैं किसी और की दी हुई कितनी बड़ी वस्तु हो, हम स्पर्श नहीं कर सकते। यह अनन्यता ।
देवी-देवताओं में शत्रुता नहीं लानी है। याद रखना। देवी देवताओं को नमस्कार करो, उनको प्रणाम करो, सम्मान करो, ये भगवान् की विशेष विभूतियाँ हैं-
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । -
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ (गीता १०.४१)
लेकिन मन का अटैचमेन्ट यानी शरणागति केवल श्रीकृष्ण में हो। कुछ लोग कहते हैं कि जो प्रेम की आचार्या हैं गोपियाँ, उन्होंने देवी की भक्ति की, कात्यायनी व्रत। आप लोगों ने पढ़ा-सुना होगा भागवत में। तो देवी की भक्ति क्यों की?
क्योंकि अनन्य भक्तों में टॉप पर हैं गोपियाँ, उनके आगे और कोई सीट नहीं। अरे! गवर्नर जो ब्रह्मा, विष्णु, शंकर हैं, ये भी नीचे हैं। तो उन्होंने कात्यायनी व्रत क्यों किया ? कात्यायनी देवी को नमस्कार क्यों किया ? सिर क्यों झुका ? सिर झुकाने में पाप नहीं है।
भिक्षामटन्नरिपुरे श्वपाकमपि वन्दते ॥ (भक्ति र.सि. १.३.३३)
भगवान् के भक्त तो चाण्डाल के आगे सिर झुका देते हैं, देवताओं की कौन कहे। सिर झुकाना कोई पाप नहीं है क्योंकि वह भक्त यह देखता है कि इस चाण्डाल के अन्तःकरण में मेरे श्यामसुन्दर बैठे हैं। यह फैक्ट है, कल्पना नहीं। भावना नहीं बनाना है। प्रत्येक जीवात्मा के अन्दर परमात्मा बैठा हुआ गवर्न करता है, कर्म-फल देता है; इन्द्रिय, मन, बुद्धि को तत्तत् कर्म करने की शक्ति देता है। यह फैक्ट है। उसको देख रहा है भक्त, उसको नमस्कार कर रहा है और अगर उसके विषय में कोई हेल्पर हो तो उसको नमस्कार तो करना ही चाहिये, अच्छा ही है वह तो ।
गौरांग महाप्रभु अपने शिष्यों का पैर पकड़ कर रोने लगते थे- प्रेमदान कर दो, और वह बेचारा गुरु से आशा कर रहा है और गुरु जी उसके पैर पकड़ करके रो रहे हैं कि हमको प्रेमदान कर दो। हाँ, नोट कीजिये- भागवत में आया है कि गोपियों ने कहा-
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरुते नमः । (भागवत १०.२२.४)
हे देवी जी! कात्यायनी देवी! हम आपको नमस्कार करते हैं कि हमारे पति श्यामसुन्दर बनें, यह वर दो। जैसे- सीता ने वर माँगा था पार्वती जी से, यानी मैं आपको नहीं चाहती, आपके द्वारा श्रीकृष्ण को चाहती हूँ। मेरे 'अन्य' में आश्रय नहीं है हमारा। हम देवी को आश्रय नहीं मान रहे हैं। जैसे- हम खाना खाते हैं। किसलिये ? भजन करना है। अगर शरीर में खाना नहीं जायगा तो भक्ति -साधना नहीं हो सकती तो खाना हमारा आश्रय नहीं है आश्रय तो है श्रीकृष्ण-भक्ति लेकिन वह हेल्पर है इसलिए उसका हम अवलम्ब लेते हैं। वह हमारा एम नहीं। आगे कहा, बड़ा सुन्दर । श्रीकृष्ण ने कहा, गोपियों से-
संकल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम्।
मयानुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति ॥ (भागवत १०.२२.२५)
सत्यो भवितुमर्हति क्योंकि मदर्चनम् तुम लोगों ने कात्यायनी व्रत के बहाने जो मेरी अर्चना की है, मेरी भक्ति की है, मैं अनुमोदन करता हूँ, मैं एडमिट करता हूँ, मैं जानता हूँ। मैं देख रहा हूँ, तुम लोग केवल मेरी भक्ति कर रही हो और संसार को दिखा रही हो कि मैं कात्यायनी व्रत कर रही हूँ। यह मैं जानता हूँ क्योंकि अगर कोई अविवाहिता लड़की इस प्रकार का डायरेक्ट नाटक करे कि मैं उस लड़के को चाहती हूँ तो आज से पाँच हजार वर्ष पहले के हमारे समाज में कितनी भयंकर बात होगी। तो यह बात प्राइवेट है, इसलिये कात्यायनी व्रत के बहाने तुम लोगों ने मदर्चनम् - मेरी भक्ति की। तो मयानुमोदितः मैं उसको स्वीकार करता हूँ और मैं तुम्हारा प्रियतम बनूँगा। अरे! देखिये तुलसीदास जी को, गणेश जी इत्यादि की वो वन्दना कर रहे हैं, अपने ग्रन्थों में गाइए गणपति जग वन्दन ।
लेकिन गणपति से माँगते क्या हैं?
माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहुँ रामसिय मानस मोरे ॥ (वि. पत्रिका)
तो हम किसी की भी हैल्प से अपने आश्रय में ही मन का अटैचमेन्ट रखें। हाँ
बने तो रघुवर ते बने, बिगरे तो भरपूरि ।
बने तो अपने इष्टदेव से, बिगड़े तो अपने इष्टदेव की उस क्रिया पर विभोर हो जाओ, ऐतराज नहीं।
:- श्री महाराज जी ( भगवद्गीता भाग-५ )
शेष अगले पोस्ट संख्या ५ में
पोस्ट संख्या -५ ( योगक्षेमं वहाम्यहम्)
श्री महाराज जी के श्री मुख से गीता ज्ञान :-
तुकाराम इतने बड़े सन्त हुए। उनकी बीबी बड़ी कर्कशा थीं और खाने-पीने का कोई हिसाब नहीं। एक दिन कहीं से गन्ना मिल गया तुकाराम को, ले आये और अपनी बीबी से कहा कि भई, यही मिला है आज भिक्षा में, काम चला लो फिर कल देखेंगे। बीबी को गुस्सा आया, उठा के गन्ना मार दिया उन्होंने पीठ पर तुकाराम के। गन्ने के दो टुकड़े हो गये। तुकाराम हँसने लगे। उन्होंने कहा- तोड़ना पड़ता। अच्छा है, आधा तुम ले लो, आधा हम ले लें। वहाँ कोई
फीलिंग का सवाल ही नहीं, किसी के किसी भी व्यवहार से। और हम लोग कहाँ हैं? अगर हमारे इष्टदेव, हमारे गुरु भी हमको डाँट दें, तो बाण लग जाता है। कितना अभी हमारा स्तर नीचे गिरा हुआ है।
तो देवताओं का भी आश्रय नहीं लेना है क्योंकि वो भी निराश्रय हैं। बेचारे काल, कर्म, स्वभाव, गुण माया के अण्डर में हैं।
एक बार - मैं बचपन में, मेरा स्वभाव कुछ आवश्यकता से अधिक गड़बड़ था, चंचल । हमारे यहाँ गाँव में आम जब पकना शुरू होता है, उस समय तमाम बच्चे आम के पेड़ पर चढ़ते हैं और गिरते हैं और जब खतम होने वाला होता है आम के पकने का सीजन, उस समय भी बहुत-से लड़के यहाँ गिरते हैं, मरते हैं, फ्रैक्चर होता है। तो एक आम पका हुआ था, बड़ी ऊँची डाल पर, , उसको कई पत्थर मारे, उसमें लगा नहीं, वह गिरा नहीं। वह असल में पीला दिख रहा था लेकिन पका नहीं था करेक्ट इसलिये वह चोट खाकर भी नहीं गिरा। मुझको भी गुस्सा आया, 'मैं इसको तोड़ के मानूँगा'।
मैं चढ़ गया पेड़ पर और वह बड़ी पतली डाल थी। । लेकिन, अब जिद्द तो जिद्द। मैं पतली डाल पर चढ़ता गया, चढ़ता गया। आम हाथ में आया और खुशी हुई और डाल टूट गई। वो डाल टूट के बीच में, दूसरी डाल पर हम आ करके गिरे और वह डाल भी टूट गई। अब दोनों डाल लेकर हम ज़मीन पर धराशायी हुए। थोड़ी देर चक्कर-फक्कर भी आया होगा लेकिन घर में नहीं बताया, कुछ चोट-वोट तो लगी ही।
तो अगर हम ऊपर से गिरे और आधार ही कमजोर है, तो दोनों को ले के हम नीचे गिरेंगे। वह इन्द्र हो, वरुण हो, कुबेर हो, जिसका हमने अवलम्ब लिया है, जब वही बेचारा निराश्रय है तो हमको क्या अवलम्ब देगा ? और फिर सीधी-सी बात यह भगवान् कहते हैं- या तो हम या हमारी फैमिली रहेगी तुम्हारे अन्त:करण में और या तो हमारे माया वालों को रख लो। यह घपड़-सपड़ नहीं चलेगा। यह अन्धकार और प्रकाश के समान विरोध है। तुम अपनी मम्मी और अपनी बेटी और अपनी बीबी और अपने पति को भी रखो, और मुझको भी रखो मैं ऐसे घर में नहीं रहता। बिल्कुल क्लीयर, क्लीन स्लेट, बिल्कुल कोई भी आपके अन्तःकरण में राग या द्वेष के भाव से न रहे। राग या द्वेष दोनों भाव से, अनुकूल या प्रतिकूल, कोई भी अटैचमेन्ट आपके मन का कहीं न हो, ऐसे अनन्य आप बन जायें, तब समझो कि आप अनन्य हैं।
तो अपना बल भी छोड़ो, औरों का ये राजस व्यक्तियों का बल भी छोड़ो, मटीरियल वस्तुओं का बल भी छोड़ो और स्वर्गादिक लोकों के देवताओं का बल भी छोड़ो। तब अनन्य बनने की चेष्टा करो। देखिये ब्रज में अभी पाँच हजार वर्ष पहले श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। उस अवतार में क्या हुआ ? इन्द्र यज्ञ हुआ करता था, ब्रज में। इन्द्र के लिए यज्ञ हो, उनकी पूजा हो, वन्दना हो, आरती हो और फिर प्रार्थना हो - हे इन्द्र ! मेरे ब्रज में अच्छी वृष्टि करो। पानी बरसाने के लिये आज भी यज्ञ होता है। आजकल पाखण्ड से होता है, उस समय में ठीक-ठीक होता था, यज्ञादिक। पानी भी बरसता था, इन्द्र प्रसन्न भी होता था । यह सब फैक्ट है।
इसीलिये परम्परा से चला आया है। वह यज्ञ भी विधिवत् होता था। वह उपासना विधिवत् होती थी तब इन्द्र प्रसन्न होता था । खाली मुँह से मंत्र बोल के -
इदमिन्द्राय नमः स्वाहा।
ऐसे नहीं। श्रीकृष्ण ने कहा- भई, मेरे अवतार लेने का मतलब क्या हल हुआ? अगर ये लोग इन्द्रादिक की पूजा ही करते रहे और हम संसार से चले भी जायें अपने लोक में और हमारे ही घर में यह अंधेर हो, तो लोग कहेंगे- अरे, बड़े काबिल थे गीता-ज्ञानी, पहले अपना घर तो ठीक कर लेते। उनके ब्रज में गड़बड़ हो रही है। इसलिये भगवान् ने रिस्क लिया और उन्होंने पहले सब बच्चों को मिलाया फिर सब बच्चों से प्यार करने वाले जो बड़े-बूढ़े थे, उनको मिलाया। उसमें दो पार्टी हुईं। एक पार्टी ने कहा- वाह वाह ! हमारे पुरखों से चला आया है, यह कैसे बन्द करेगा यह नन्द का छोकरा, जरा-सा ? अरे! एक सीनियरिटी का ऐसा एडवान्टेज होता है कि चाहे वह कितना ही महामूर्ख अँगूठा छाप हो लेकिन वह एक डॉट लगा ही देगा पढ़े-लिखे बड़े से बड़े विद्वान् को अरे बेटा! धूप में बाल सफ़ेद नहीं हुए हैं, समझ में आया ?
तो किसी प्रकार सबको समझाने की चेष्टा किया, मनाने की, फिर भी कुछ लोगों का मूड ऑफ रहा और विरोध करते रहे- नहीं नहीं, यह नहीं हो सकता। इन्द्र की पूजा हो । अरे साहब! वो तो बड़े आदमी हैं, नन्दजी । उनके यहाँ क्या है, नहीं भी चार साल पानी बरसेगा तो तमाम धन-धान्य भरपूर भरा पड़ा है और हम लोग तो भई ऐसे नहीं चला सकते बिना पानी की वर्षा हुए, हमारा सब हिसाब-किताब नहीं बैठेगा इसलिये हम पूजा करेंगे लेकिन अधिकांश ने मान लिया। इतने ही पर इन्द्र का मूड ऑफ हो गया। यह कौन-सा छोकरा है ? इन्द्र क्या जब ब्रह्मा को नहीं पता है यह कौन-सा छोकरा है, तो इन्द्र बेचारे को क्या पता होगा। और पता कराने वाले भी तो वही गुरु घंटाल हैं, जिसको पता करा दें उसको पता हो जाये और जिसको न पता करावें, वह चाहे ब्रह्मा का बाप हो, उससे क्या होता है।
तो इन्द्र का मूड ऑफ हुआ, उसने वृष्टि की जो महाप्रलय में वृष्टि होती है। यह जो धान कूटती हैं स्त्रियाँ, उसका जो मूसल होता है नीचे का, जिसमें लोहा लगा रहता है गोल-गोल, उतनी मोटी धार से पानी की वृष्टि होती है, महाप्रलय में। अब इन्द्र को गुस्सा आया तो उसने अपनी पूरी पावर लगा दी। तो ब्रजवासियों में जो लोग इन्द्र की पूजा के अनुकूल थे, उन लोगों ने कहा- मैं कह रहा था कि अनर्थ करेगा यह बच्चा । देख लो, अब देखो, कहाँ जाओगे भाग के ? और इधर श्रीकृष्ण की जो पार्टी थी, उन्होंने कहा- अब बोलो। इन्द्र की पूजा बन्द कराया और देखो! यह क्या हो रहा है ? ठाकुर जी ने कहा- घबराओ मत। उन्होंने गोवर्धन पहाड़ को उठा लिया। सब ब्रजवासी नीचे आ गये और एक हफ्ते यह नाटक हुआ, उसके बाद फिर आया इन्द्र और माफी माँगा, रोया-गाया। आप लोग सब जानते हैं। यानी देवताओं की उपासना अनन्य भक्ति में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिये केवल -
यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ (गीता ९.२५)
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ (गीता ७.२३)
भगवान् बार-बार इशारा करते हैं गीता में- देखो, केवल मेरी भक्ति करनी होगी। यह धर्म-वर्म का चक्कर छोड़ो। मैंने लोक-वेद दोनों का परित्याग बता दिया है। तो वेद का परित्याग का मतलब - देवताओं का परित्याग हो गया। ये देवता लोग जो हैं, ये वेदों से प्रतिपादित हैं। जितनी भी यज्ञादिक क्रियायें हैं, वेदों के द्वारा सम्पादित होती हैं और उनमें इन इन्द्रादिकों को हव्य दिया जाता है। ठीक है, जिसको इन्द्रादिकों का ऐश्वर्य चाहिये, स्वर्ग चाहिये या उनकी पॉवर चाहिये, उनको उनकी भक्ति करनी चाहिये लेकिन वह भी अनन्य रहे। वहाँ भी शर्त है, इन्द्र की उपासना करने वाले को भी फिर किसी राक्षस में मन का अटैचमेन्ट नहीं करना होगा। वहाँ भी शर्त है।
तो तस्मिन् अनन्यता अन्य के आश्रय को त्याग देना, अन्तःकरण से ध्यान रखना, जितनी बातें मैं बता रहा हूँ, ये सब अन्तःकरण से सम्बन्ध रखती हैं - -
चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत्। (मैत्रेय्यु. उप. १.५)
वेदों का चैलेन्ज है कि यह संसार जो भयानक आप लोग कहते हैं, यह संसार भयानक नहीं है। 'चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत्।' यह चित्त आपका अंतःकरण ही संसार है, इसलिये अनन्य भक्ति इसी अंतःकरण को ही करनी है।
तो इस प्रकार अन्य का आश्रय अन्तःकरण से निकाल देना और केवल अपने गुरु, अपने भक्ति-मार्ग और अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण में ही निरन्तर सेन्ट परसेन्ट मन का लगाव होना, यह अनन्यता है। यह अनन्यता का स्वरूप ही श्रीकृष्ण को बन्दी बना लेता है। श्रीकृष्ण उसके अण्डर में हो जाते हैं।
श्री महाराज जी ( भगवद्गीता भाग -५ समाप्त)
श्री राधे ।
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