अनन्यता परमावश्यक है ।

श्री कृपालु महाप्रभु जी :- एक संत भी है लेकिन वो हमारे मार्ग के अनुकूल नहीं हैं। उसका मार्ग कुछ और है। वो पूर्ण संत है ठीक है लेकिन हम जिस मार्ग से चल रहे हैं उस मार्ग का हमें कोई सहायक हो तो हमें लाभ मिलेगा। 

अगर उस मार्ग के अलावा और मार्ग द्वारा गया है वो संत तो ठीक है दूर से नमस्कार कर लो लेकिन उसका संग भी कुसंग हो जायगा तुम्हारे लिये क्योंकि वो और चीज बतायेगा तो तुम कहोगे वो गलत बोलता है। इसे कुछ नहीं आता। और यदि वाकई संत हो तो फंस गये तुम नामापराध में । 

इसलिये किसी के चक्कर में पड़ना ही नहीं है। अगर तुमको ये विश्वास है कि हमने जो कुछ समझा है ठीक समझा है और अब मुझे करना ही करना है। वरना बहुत से ऐसे होते हैं, कोई बाबा जी आये, चलो सत्संग कर आवें। वो बाबा जी भोंदूभट्ट, कुछ जानते नहीं, अंडबंड बोल गये, हम उसको सुन रहे हैं ठाट से और सुनने के बाद गलत-फलत खोपड़ी में भर गया और अब साल भर बाद गुरु जी मिलेंगे, छः महीने बाद, उनसे पूछेंगे गुरु जी ऐसा कैसे है ? ये किसने कहा तुमसे ? वो किसी के लेक्चर में गये थे वहाँ सुना था। क्यों गये थे? वो बाबाजी थे, संत थे, महात्मा थे। अरे भई कोई कपड़ा रंगा ले, कोई भी किताब पढ़ कर बोलने लगे तो संत जी हो गये वो ? अरे तत्त्वज्ञान तो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ के द्वारा मिलता है। वो कोई ऐसी चीज थोड़े है कि कोई भी किताब पढ़कर जो कुछ भी बोलेगा वो शास्त्रीय तत्त्वज्ञान है।
( श्री महाराज जी - भगवद् गीता ज्ञान -३ )

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प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।