पंचम पुरुषार्थ तथा पुरूषार्थ चातुष्ट्य के बारे में डिटेल में , तो सुनिय श्री महाराज जी के श्री मुख से :-

कुछ लोग जानना चाहते थे न पंचम पुरुषार्थ तथा पुरूषार्थ चातुष्ट्य के बारे में डिटेल में , तो सुनिय श्री महाराज जी के श्री मुख से :- 
सबसे इम्पॉर्टेन्ट ग्रन्थ हमारे यहाँ श्रीमद्भागवत है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चार पदार्थों का निरूपण वेदों में, शास्त्रों में, पुराणों में, महाभारत में भरा पड़ा है, स्मृतियों में। ये प्रेय मार्ग है। माना कि मोक्ष श्रेय मार्ग है, लेकिन फिर भी वास्तविक श्रेय नहीं और धर्म, अर्थ, काम, तो प्रेय है ही हैं- डिक्लेयर्ड तो ये धर्म, अर्थ, काम- इन तीनों का निरूपण तो तमाम भरा पड़ा है वेदों में। यानी एक लाख वेद मंत्र में अस्सी हजार वेद मंत्र धर्म, अर्थ, काम सम्बन्धी हैं, इतना डिटेल और बीस हजार मंत्र में मोक्ष और भक्ति ये दोनों है। तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का निरूपण बहुत अधिक है। भरा पड़ा है। लेकिन भागवत का निर्माण जो हुआ है वो-

 धर्मः प्रोज्झित कैतवः (भागवत १.१.२)

ये भागवत ग्रन्थ कैतव रहित है। कैतव माने छल, ठगपना, धूर्तता। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-ये ठग हैं, ये ठग लेते हैं जीव को। तो भागवत में कहा कि हम पाँचवाँ बतायेंगे- पुरुषार्थ 'पंचम पुरुषार्थ सेई प्रेम महाधन।' गौरांग महाप्रभु ने कहा, पाँचवाँ पुरुषार्थ है भगवत्प्रेम ।

तो ये चार कैतव हैं, छल हैं, कपट हैं, गड़बड़ हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इनसे ऊपर है भागवत ग्रन्थ। जब भागवत का प्रारम्भ हुआ, तो परीक्षित को शाप हो गया था कि एक सप्ताह में तक्षक सर्प तुम्हें खा लेगा और तुम मर जाओगे। तो परीक्षित ने सोचा कि हफ्ते में अपना कल्याण कर लेना चाहिये। तो शौनकादिक परमहंस जहाँ शुकदेव परमहंस भी थे, वहाँ परीक्षित ने जाकर के एक प्रश्न किया -
पुंसामेकान्ततः श्रेयस्तन्नः शंसितुमर्हसि ॥ ( भागवत १.१.९) -

आप सब लोग परमहंस हैं, परमज्ञानी है, भगवत्प्राप्ति किये हैं तो आप लोगों के सामने हम एक प्रश्न कर रहे हैं कि वास्तविक श्रेय क्या है ? श्रेय जो वेद ने कहा न
'अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयः' एक श्रेय मार्ग होता है। वो श्रेय क्या है ? ये पहला प्रश्न है भागवत का दो श्रेय होते हैं-
 'पुंसामेकान्ततः श्रेयस्तन्नः शंसितुमर्हसि ॥' 

जो सर्वश्रेष्ठ श्रेय हो, वो बताइये। यानी मोक्ष नहीं चाहते। मोक्ष भी श्रेय है क्योंकि माया से निवृत्ति हो जाती है, भवबन्धन समाप्त हो जाता है, आवागमन समाप्त हो जाता है। लेकिन इतना ही हम नहीं चाहते, हम प्रेमानन्द भी चाहते हैं। इसलिये वो श्रेय बताइये आप लोग ।

परीक्षित कहते हैं - महाराज! एक बात मैं बता दूँ पहले ही कि-

प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलावस्मिन् युगे जनाः ।
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ॥ (भागवत १.१.१०)

परीक्षित कहते हैं कि कलियुग है, तो युग का प्रभाव शरीरों पर पड़ता है। यानी हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, ये सब कमजोर हैं, मन्द बुद्धि के लोग होंगे।

अभी किसी से एक बात कहो, वो शाम को भूल जाता है और हम तो अनुभव करते हैं आप लोगों के साथ दिन-रात रह करके, कि पाँच मिनट में आप लोग भूल जाते हैं। हमने किसी से कहा उसको फोन कर दो। थोड़ी देर बाद हमने पूछा फोन किया ? वो कहता है नहीं भूल गये। कैसी मेमोरी है! मेमोरी तो साठ वर्ष के बाद कमजोर होती है, साइंस कहती है, मस्तिष्क सिकुड़ जाता है, तो याददाश्त कमजोर होती जाती है साठ साल के बाद और अस्सी के बाद तो बहुत ही कमजोर हो जाती है। आदमी कहता है, मैं सामान भूल जाता हूँ। चश्मा कहाँ रखा है, स्वयं ढूँढ़ रहा है। लेकिन हम तो इन बच्चों को देखते हैं और फिर लोग कहते हैं, पढ़े-लिखों में ज्यादा याददाश्त होती है। अरे! हम तो पीएच. डी. लोगों के साथ रहते हैं, खूब देखते हैं।

तो परीक्षित कहते हैं महाराज! ये कलियुग है, यहाँ सब मन्दबुद्धि लोग होंगे। तो शरीर भी सबका रोगी होगा और

मन भी बड़ा चंचल होगा कलियुग में, तो महाराज! इस युग के अनुरूप श्रेय मार्ग बताइयेगा। आप कोई साधन बता दें सत्ययुग वाला तो वो यहाँ नहीं चलेगा। लोग नमस्ते कर लेंगे, हम नहीं कर सकते भई । हाँ।

अरे गुरु जी ने कह दिया वाल्मीकि को मरा-मरा कहते रहो, यहीं बैठ कर । जब तक हम लौट के न आवें उठना नहीं। हे भगवान् ! हम तो छः घण्टे भी नहीं बैठ पाते। एक घण्टे में भी कभी यों पैर करते हैं कभी यों करते हैं। जैसी गुरु आज्ञा, उसके सारे शरीर को दीमक खा गये लेकिन गुरु आज्ञा का पालन करता रहा। तो महाराज ! कलियुग में ये सब नहीं चलेगा। लोग गुरुजी को नमस्ते कर लेंगे, भगवान् को भी नमस्ते कर लेंगे। तो कलियुग के हिसाब से श्रेय क्या है, बताइये - 

भूरीणि भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागशः ।
अतः साधोऽत्र यत्सारं समुद्धृत्य मनीषया ॥
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां येनात्मा सम्प्रसीदति ॥ (भागवत १.१.११)
शास्त्र-वेद पढ़ करके कोई श्रेय मार्ग समझ ले, अरे ! पागल हो जायगा, समझना तो 'बहुत दूर है। क्यों? वो इतना विस्तार है, 'श्रोतव्यानि विभागशः ।'

साधोऽत्र यत्सारं समुद्धृत्य मनीषया ॥ (भागवत १.१.११)

 तुलसीदास जी कहते हैं कि -

श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूटै न अधिक अधिक अरुझाई ॥ 

जितना पढ़ोगे शास्त्र वेद उतने उलझते जाओगे और पागल भी हो सकते हो। पहले तो तुम्हारी उमर ही नहीं इतनी कि शास्त्र-वेद पढ़ लो पूरा। सौ वर्ष में नहीं पढ़ सकते। अरे, पढ़ने का मतलब समझना। एक शास्त्र में सारा जीवन लगा देते हैं काशी में लोग और फिर भी कन्फ्यूज़्ड हैं। तो फिर सारे शास्त्र, वेदान्त, न्याय, सांख्य वगैरह चार-चार लाख श्लोक वेदव्यास ने बनाये और इतनी स्मृतियाँ, इतने निबन्ध, ये सब पढ़ लेना और समझ लेना और कोई काम न करना, तो ये कैसे सम्भव है। तो महाराज ! संक्षेप में हम लोगों की बुद्धि के अनुरूप श्रेय क्या है, बता दीजिये।

बहुत बढ़िया प्रश्न है। वो कर्म, ज्ञान, भक्ति कुछ नहीं पूछ रहे हैं। वो सीधी-सीधी बात पूछ रहे हैं कि हम कलियुग के मनुष्यों के लिये जो कुछ श्रेय हो वो बता दीजिये। तो शुकदेव परमहंस बोले-

स वै पुंसां परो धर्मों यतो भक्तिरधोक्षजे ।
 अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति ॥ ( भागवत १.२.६)

श्रेय है- श्रीकृष्ण की भक्ति । श्रीकृष्ण की भक्ति, ब्रह्म की नहीं। ब्रह्म की भक्ति भी होती है।

 एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ (गीता ९.१५ )

एकत्व से भी भक्ति होती है। अभेद भक्ति कहते हैं उसको, ज्ञान मार्ग वाली, वो नहीं भेद भक्ति मैं दास वो स्वामी यानी सगुण सविशेष साकार भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति । बस ये श्रेय है। लेकिन भक्ति में दो शर्त हैं- ऐसी भक्ति हो दो शर्तों से युक्त ।

क्या हैं दो शर्त ? पहली शर्त है अहैतुकी, बिना कारण के भक्ति करो यानी बिना कामना के भक्ति करो। अपनी कामना बना के भक्ति करने मत जाओ। क्या भीड़ होती है बद्रीनारायण, वैष्णो देवी, तिरुपति मन्दिर लेकिन नाइन्टी नाइन प्वाइन्ट नाइन परसेन्ट सकाम। मैं तो कहता हूँ सेन्ट परसेन्ट लेकिन चलो, एक प्वाइन्ट दे दो शायद कोई निष्काम भक्ति का रहस्य समझता हो और बिना कामना के भक्ति करे। संसारी कामना न सही, पारमार्थिक कामना सही। कामना हो, वो गलत।

श्यामसुन्दर के सुख की कामना हो ऐसी भक्ति, ये भावार्थ है। अपने सुख की कामना से भक्ति नहीं करना है। अपने स्वामी की इच्छा में इच्छा रख कर उनके सुख के लिये, सेवा के लिये भक्ति माने सेवा, भक्ति शब्द का अर्थ है कि 'भज्' धातु होती है संस्कृत में उसका अर्थ होता है सेवा 'भज सेवायाम्' पाणिनि व्याकरण में लिखा है। भज धातु सेवा अर्थ में होती है।

तो सेवा का मतलब क्या ? स्वामी को सुख देना। संसार में भी हम सेवा करते हैं बाप की, माँ की, किसी की तो
क्या मतलब है उसका, उनको सुख देते हैं। उनको जो कुछ चाहिये वो देते हैं, वही मतलब है सेवा का - 

भज इत्येषवैधातुः सेवायां परिकीर्तितः । 
तस्मात्सेवा बुधैः प्रोक्ता भक्तिः साधन भूयसी ॥ (गरुड़ पुराण)

वेदव्यास कह रहे हैं ।

तो, पहली शर्त है कामनाओं को त्याग कर श्रीकृष्ण की भक्ति करना।‘सर्वाभिलाषिताशून्यम्' पहली शर्त और दूसरी शर्त क्या है- 'अप्रतिहता' उसके ऊपर किसी का अधिकार न हो, यानी कोई मिक्श्चर न हो, कर्मकाण्ड का, ज्ञानकाण्ड का, किसी चीज़ का प्योर भक्ति और वो निरन्तर हो ऐसे नहीं काम चलेगा कि हम तो एक घण्टा साधना में बैठते हैं। एक घण्टा, और तेईस घण्टा क्या करते हैं? तेईस घण्टा गँवाते हैं, एक घण्टा कमाते हैं। तो रोकड़ बाकी क्या होगी ? कमाई तो बहुत कम है आपकी, एक घण्टे की और खराब करते हैं आप तेईस घण्टे । ये नहीं चलेगा -

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। (गीता १२.१)

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । 
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (गीता ८.१४) 
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (गीता १.२२)

हर जगह हिदायत कर रहे हैं भगवान्, नित्य मन को मुझमें रखना होगा।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर। (गीता ८.७)

सदा मन को भगवान् में रखना ऐसी भक्ति, क्षणिक नहीं। तो ऐसी भक्ति जो निष्काम भी हो और निरन्तर हो और कोई मिक्श्चर न हो, ऐसी भक्ति ही सबसे सरल, सबसे उत्तम श्रेय है। यही धर्म है, यही श्रेय मार्ग है, यही लक्ष्य है। यानी भगवान् श्रीकृष्ण की ओर चलना ये श्रेय मार्ग है और माया की ओर चलना ये प्रेय मार्ग है।

:- श्री कृपालु महाप्रभु जी ( भगवद् गीता ज्ञान भाग -6)

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