कर्मयोग की साधना कैसे करें ( डिटेल में समझें अच्छी तरह से उदाहरण के साथ श्री महाराज जी के श्री मुख से ) ? श्री कृपालु महाप्रभु जी कि दिव्य वाणी

कर्मयोग की साधना कैसे करें ( डिटेल में समझें अच्छी तरह से उदाहरण के साथ श्री महाराज जी के श्री मुख से ) ? श्री कृपालु महाप्रभु जी कि दिव्य वाणी :- 

कर्मयोग का अर्थ प्रायः गीता के द्वारा सभी को विदित है। गीता कहती है-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। (गीता ८.७)

अर्थात् प्रतिक्षण हमारा स्मरण करो एवं साथ ही इन्द्रियों का कार्य करते रहो। भावार्थ यह कि मन निरन्तर श्यामसुन्दर में हो एवं कर्त्तव्य कर्म करते रहो । अस्तु, इस कर्मयोग को क्रियात्मक रूप से कैसे किया जाय यह गम्भीर प्रश्न है क्योंकि इन्द्रियाँ बिना मन के सहयोग के कर्म नहीं कर सकतीं, यथा-आँख, कान आदि जो देखने-सुनने का कार्य करते हैं, वह मन के सहयोग से ही करते हैं। यह सबके अनुभव की बात है कि यदि मन अन्यत्र कुत्रापि संलग्न होगा तो अन्य कर्म करने में इन्द्रियाँ समर्थ नहीं हो सकतीं, फिर युद्ध सरीखा सूक्ष्म कार्य बिना मन-बुद्धि के किया जाय, यह कैसे सम्भव है ? और शर्त यह है कि भगवान् का स्मरण भी प्रतिक्षण किया जाय। 'यो मां स्मरति नित्यशः " तेषां नित्याभियुक्तानाम्’ ‘एवं सततयुक्ता ये' 'तेषां सततयुक्तानाम्' इत्यादि वाक्यों द्वारा यही निर्विवाद सिद्ध है कि स्मरण निरन्तर होना चाहिये यदि यह प्रश्न हल हो जाय तो गीता का कर्मयोग क्रियात्मक रूप से किया जा सकता है। 

दो प्रकार के कर्म होते हैं :- 
आइये, इस पर विचार कर लें। देखिये, कर्म दो प्रकार का होता है - एक तो वह जिसमें मन-बुद्धि का संयोग मात्र होता है, दूसरा कर्म वह जिसमें मन-बुद्धि का संयोग ही नहीं वरन् मन-बुद्धि की आसक्ति भी होती है। यदि इन दोनों का अन्तर समझ में आ जाय तो कर्मयोग का क्रियात्मक रहस्य समझ में आ जाय। ऐसे तो आप सब लोग समझते हैं, केवल मुझे संकेत मात्र करना है। कोई नई या अपरिचित बात नहीं है।

कल्पना कीजिये कि किसी पतिव्रता स्त्री का पति इंग्लैण्ड में है एवं स्त्री उस पति से पूर्णतया प्रेम करती है। आज चार साल बाद उसका पति आया है। स्त्री ने पति के लिए कई प्रकार के खाने बनाये हैं। बड़े प्यार के शब्दों में खाना परोसा एवं खिलाया और यह पूछा - 'कहिये, खाना अच्छा बना है ?' पति ने भी उत्तर दिया, 'हाँ'। अब कल्पना कीजिये शाम को किसी शारीरिक कारणवश स्त्री खाना नहीं बना सकी। उसने अपने रसोइये से कहा, 'देखो, तुम्हें इस समय खाना बनाना होगा और देखो, अमुक-अमुक तरकारी, अमुक-अमुक पदार्थ बनाना होगा।' रसोइये ने कहा, 'अच्छा सरकार।' उसने खाना बनाना प्रारम्भ किया। स्त्री की भाँति खाना परोसा एवं उसी प्रकार पति ने खाया । पुनः रसोइये ने पूछा, 'खाना अच्छा है ?' पति ने उसी प्रकार कह दिया 'बहुत अच्छा है।'

अब विचार यह करना है कि कर्म तो दोनों के एक सरीखे ही हैं, एवं खाने का स्वाद भी एक सा है, फिर इन दोनों के कर्म में अन्तर क्या है । अन्तर यह है कि स्त्री का कर्म मन-बुद्धि आसक्तियुक्त है एवं रसोइये का कर्म केवल मन -बुद्धि-युक्त है। किन्तु इसका पता कैसे लगाया जाय ? पता तब लगा, जब पति को खाना खिलाने के बाद वह स्त्री पड़ोसिन-सहेली के पास गयी तो बहुत खुश थी एवं बड़ी प्रसन्नता में फुदकती हुई सहेली से कहती है, “आज हमारे वे आये हैं।" ऐसा कहकर सहेली को चिपटा लेती है। किन्तु जब रसोइया खाना बनाकर खिलाने के बाद घर गया तो अपनी स्त्री से कहने लगा, “आज पता नहीं कहाँ से साहब आ मरे हैं, खाना बनाते-बनाते कचूमर निकल गया, पूरे चार घंटे में खाना बन पाया। मेम साहब ने आर्डर दे दिया- यह यह खाना बनाना होगा, अब बनाने वाला मरे-जिये, उनकी बला से । संसार में सबसे निकृष्ट नौकरी रसोइये की है," इत्यादि। अब सोचिये स्त्री का तो पति में प्रेम है, अतएव पति के निमित्त कर्म में आसक्ति है, किन्तु
रसोइये का साहब में प्रेम नहीं है, उसे कर्म में मन-बुद्धि तो लगाना पड़ा किन्तु प्रेम न होने के कारण सुख का अनुभव नहीं हुआ। उसका प्रेम तो अपनी स्त्री आदि में है। अस्तु, जिस प्रकार रसोइया अपने स्त्री- बच्चों में मन लगाकर खाना बनाना रूपी कर्म करता है, उसी प्रकार आपको भी भगवान् में मन लगाकर संसार के कर्म करने हैं, उनमें सुख नहीं अनुभव करना है।

देखिये, एक नर्स या डाक्टरनी अस्पताल में अनेक बच्चे पैदा कराती है, किन्तु उसे कोई सुख नहीं होता, क्योंकि उसकी आसक्ति नहीं होती। इसका प्रमाण तब पक्का-पक्का मिलता है जब किसी का बच्चा मर जाता है। अर्थात् किसी के बच्चे के मरने पर नर्स इतना ही कह देती है कि माफ कीजिएगा, मैंने तो बड़ा प्रयत्न किया, किन्तु ईश्वर को ऐसा ही मंजूर था। अच्छा, अब आप बच्चे को लेकर बाहर पधारिये । उस बच्चे की माँ की हालत खराब है, रो रही है, उसके अब तक एक ही लड़का हुआ, वह भी मरा हुआ, किन्तु नर्स की आसक्ति नहीं है, अतएव उस बच्चे को बाहर निकाल कर दूसरा कार्य करने लगती है। हमें भी उसी नर्स की भाँति ड्यूटी करना है, कर्तव्यपालन-मात्र करना है, सुख या दुःख नहीं अनुभव करना है।

एक खजांची नियमानुसार लाखों रुपये बैंक से देता है, किन्तु कोई दुःख नहीं होता। किन्तु उसे आज जो वेतन मिला है, कल्पना कीजिए, उसमें से 500 रुपये कहीं गिर गये। घर जाने पर पता लगा। अब वह उस 500 रुपये के लिए चिन्तित है, मार्ग में खोज रहा है एवं अपनी बुद्धि व लापरवाही को कोस रहा है। किन्तु उन लाखों रुपयों की चिन्ता उसे नहीं है, क्योंकि वह तो उसका रुपया था ही नहीं, सरकारी रुपया था, सरकारी आर्डर के अनुसार दे दिया गया, उसके पास से क्या गया ? इत्यादि ।

यदि सच पूछा जाय तो जितने कार्य बेमनी से किये जाते हैं अर्थात् जिन कार्यों के करने में सुख नहीं मिलता किन्तु करने पड़ते हैं, वे सब मन-बुद्धि-युक्त कर्म हैं एवं जिन कर्मों के परिणाम में सुख मिलता है, वे मन-बुद्धि-आसक्ति युक्त कर्म होते हैं। मन-बुद्धि युक्त कर्तव्य पालनमात्र के कर्म आपके दैनिक जीवन में अधिक मात्रा में होते हैं।

आसक्ति रहित कर्म-

कुछ लोग कहते हैं कि यदि स्त्री, पुत्र, पिता आदि में आसक्ति न हो तो कर्म ही अच्छे न होंगे; फिर तो बेगारी ही होगी। यह कहना भोलापन है। सच तो यह है कि प्यार होने पर कार्य सही नहीं हो पाता । यथा - एक छोटा-सा बच्चा दूध अधिक पी गया, पेट में दर्द हो गया, वह रो रहा है। माँ ने उसके रोने की आवाज सुनी, वह बर्दाश्त न कर सकी, उसने पुनः अपने स्तनों में बच्चे का मुँह लगा दिया बच्चा पुनः दूध पीकर और भी दुःखी हो गया । किन्तु माँ तो आसक्त है न, अतएव वह नर्स के समान ड्यूटी नहीं कर सकती। नर्स ठीक समय पर ही ठीक मात्रा में दूध देती है, चाहे बच्चा रोये, चाहे सर पटके। यह देखिये, प्यार में बच्चे को हानि है अर्थात् राग-रहित अवस्था में ही ड्यूटी सही हो सकती है।

एक जज के सामने कोई मुकदमा आता है। यदि जज का किसी भी पार्टी से न प्यार है न खार है तो न्याय होगा। यदि प्यार है तो पक्षपात होगा यदि द्वेष है तो भी अन्याय होगा। अतएव राग-द्वेष रहित अवस्था में ही कर्म श्रेष्ठ होता है।

सब के अनुभव की बात है कि प्यार में, कार्य में कुछ न कुछ गड़बड़ी अवश्य होती है। देखो, जिसमें प्यार होता है, उसके दर्शन, स्पर्श आदि में अधिक सुख मिलता है। परिणाम स्वरूप बुद्धि सम नहीं रहती, जिससे कार्य में गड़बड़ हो जाती है। इसी प्रकार ईर्ष्यादि-युक्त क्रोध में भी बुद्धि खो जाती है, तब भी कार्य सही नहीं हो पाता। अतएव सही-सही कार्य राग-द्वेष-रहित अवस्था में हो सकता है।

ईश्वर में प्यार संसार में व्यवहार

यदि ईश्वर से प्यार करें एवं संसार में व्यवहार करें तो हमारा व्यवहार भी ठीक-ठीक चले एवं ईश्वर प्राप्ति की समस्या भी हल हो जाय। गोपियों को देखिये -

या दोहनेऽवहनने मथनोपलेपप्रेङ्खङ्खनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ । 
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्य धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ॥ (भागवत १०.४४.१५)

अर्थात् गृहस्थी के प्रत्येक कर्म करती हुई श्यामसुन्दर से निरन्तर प्रेम कर रही हैं। देखिये, विदेह जनक परमहंस राज्य कार्य कर रहे हैं; ध्रुव, प्रह्लाद राज्य कार्य कर रहे हैं; अर्जुन भी युद्ध कर रहा है। इसी प्रकार आपको भी कार्य करना है। भावार्थ यह कि कर्मयोग करने का सबको पूर्ण अभ्यास है। जैसे स्त्री, पुत्र, पति आदि दस-बीस लोगों में मन-बुद्धि की आसक्ति रखते हुए बाकी सबके प्रति कर्त्तव्य पालन-मात्र करते हो, उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, पति आदि में भी कर्त्तव्य पालन मात्र करो। मन का स्वभाव प्रेम करना तो है ही, उसे भगवान् में लगा दो। बस, तुम्हारे दोनों कार्य चलते रहें। यही बुद्धिमत्ता 'योगः कर्मसु कौशलम्' वाला गीता का सिद्धान्त है। देखिये, जैसे पहिया चलता है, किन्तु धुरी स्थिर रहती है, वैसे ही मन को भगवान् में स्थिर रखिये एवं शरीरेन्द्रिय से कर्म करते रहिये।

यदि कोई यह कहे कि ईश्वर से प्रेम बढ़ जायगा तो कर्म गड़बड़ होने लगेगा, तो प्रथम तो ऐसा कम होगा और यदि
हो भी तो उसकी परवाह न करो। अन्ततोगत्वा कर्म छूट भी जाय तो तुम उस जिम्मेदारी से मुक्त हो । जान-बूझकर कर्म छोड़ देना एवं ईश्वर-प्रेम भी न करना अनुचित है, वह दण्ड का भागी होगा।

इस प्रकार गृहस्थादि के कार्य करते हुए मन को ईश्वर में लगाते हुए कर्मयोग का क्रियात्मक पालन करना चाहिये। प्रथम अभ्यास करना पड़ेगा, पश्चात् अपने आप होने लगेगा। पहले जब साइकिल चलाना सीखते हो तो कठिनाई महसूस होती है, पश्चात् अभ्यास हो जाने पर हाथ पैर से काम होता रहता है और आप बात भी करते रहते हैं। ऐसे ही थोड़ा अभ्यास करने पर स्वयं होने लगेगा।
-श्री महाराज जी ( भगवद्गीता ज्ञान भाग-३ )

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