मन का खेल

"योगिन: कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंच्श्रली ।" ( भागवत ५-६-४) 
भगवान ने कहा यह मन जो है यह मिलकर के विश्वासघात करता है । इसलिए सब बड़े-बड़े ऋषि मुनि योगी सब धोखे में आ जाते हैं । इस दुश्मन से सदा होशियार रहो । मन कर रहा है कि सो जाएं, मन कर रहा है कि उसको मारे , मन कर रहा है वैसे ही आप कर गए ।

 मन दुश्मन था आपने उसे दोस्त मान लिया । उसने आत्मा का सर्वनाश कर दिया । इसलिए एक पहला नंबर वाला अभ्यास तो यह है कि आप सदा यह रिलाइज करें कि वह हमारे ह्रदय में बैठे हैं , सब नोट करते हैं , नंबर दो रूपध्यान का अभ्यास करें , यह अकेले एकांत की साधना है , एकांत में बैठकर रूपध्यान की साधना करें ।

 रूपध्यान अत्यंत आवश्यक है, इसके बिना कोई लाभ नहीं होगा चाहे अनंत जन्म बीत जाए , पाने वाला सात दिन मे़ तो क्या सात सेकेंड में भगवान को प्राप्त कर लेता है , दृढ़ता होनी चाहिए , दृढ़ विस्वास और समर्पण , पूर्ण शरणागति । नहीं तो हम वहीं के वहीं रहेंगें , आगे नहीं बढ़ेंगे । रूपध्यान साधना हीं हमें आगे बढ़ाएगा । थोड़े दिन मेहनत जरूर होगा , फिर अपने आप होने लगेगा , फिर धीरे धीरे रूपध्यान में आनंद आने लगेगा । - श्री महाराज जी ( साधना का सार , पेंज ६ , ७ )

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