सेवा के प्रकार

श्री महाराज जी का आदेश साधकों के लिए निचे है" सेवा के प्रकार " । 
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सेवा तीन प्रकार की होती है । मनुजा, तनुजा , वित्तजा,
 मन से सेवा करना जब तक भगवान नहीं मिलेंगे तब तक आप लोग क्या करेंगे ? ध्यान करेंगे । तो ध्यान का मतलब आंख बंद किया मन से सोचा श्यामसुंदर सामने खड़े हैं । अब उनको हम नहला रहे हैं , अब उनका शरीर पोछ रहे हैं , अब उनको कपड़ा पहना रहे हैं , अब उनको खाना खिला रहे हैं, सब मन से करेंगे , ये सेवा है, ये लिखी जाएगी सेवा उसी प्रकार जैसे - गोलोक में भक्त लोग सेवा करते हैं । आप जो मन से सेवा करेंगे इसको मानसी सेवा कहते हैं । ये सबसे ऊँची होती है ।
 सवसे श्रेष्ठ ।अब कब तक ? जब तक भगवत प्राप्ति नहीं होती तो उसकी सिद्धि के लिए तनु , वित्तजा ।

शरीर से सेवा, भगवान के मंदिर में मूर्ति की सेवा अथवा कोई संत मिल जाए वो भी भगवान का दूसरा रूप है, उसकी शरीर से सेवा यह तनुजा कहलाती है ।
और तीसरी वित्तजा धन से सेवा करना । हमारे पास जितना भी धन है वो सब भगवान का है इसलिए उनकी सेवा में लगाना है । हमारा अधिकार उतने ही धन पर है जितने में हमारे शरीर का पालन पोषण हो जाए ।

यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत सस्तेनो दण्डमर्हति ।। ( भा. ७-१४-८)
जितने धन से शरीर चल जाए , जीवित रहे, इससे अधिक अगर कोई धन रखता है अपने पास तो - "सस्तनो" वो चोर है और "दण्डमर्हति " उसको दंड मिलेगा । तुम धन को बैंक में रखते हो, या जमीन में गाड़ के सोना चांदी रखते हो , या बाल बच्चों को देते हो, तुम्हें क्या अधिकार है ? भगवान् के निमित्त संत के निमित्त उसका उपयोग करो । नहीं धन है तो कोई दंड नहीं मिलेगा । एक पैसा है, हांँ, एक पैसे का दान किया । हांँ वो अरबपति के अरब के दान के बराबर है ।
भगवान के यहां नहीं चलता कि हमने एक अरब किया है इसने तो दस रूपया दिया है । अरे तो उसके पास दस रूपया ही था सब कुछ दे दिया उसने । तुम्हारे पास एक अरब था तो तुमने सब कुछ दे दिया । दोनों का बराबर दान माना जाएगा । 
तो इस प्रकार मनुजा , तनुजा , वित्तजा ये तीन प्रकार की सेवा होती है । लेकिन तीनों सेवा स्वामी की इच्छा के अनुसार हो, अपनी इच्छानुसार नहीं । हमारी तो इच्छा है। ये तुम्हारी इच्छा है । तुम्हारी इच्छा तो तुम अपनी सेवा कर रहे हो, फिर स्वामी की सेवा नहीं है। - श्री कृपालु महाप्रभु ( गुरू सेवा - पेंज १३,१४)

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