बिना गुरू शरणागति के भगवान कि भक्ति संभव नहीं ।

जब मायाधीन जीव भगवान की सेवा और भक्ति करने में सक्षम होता तो फिर वो उनसे सेवा,भक्ति तथा प्रेम दे दो,यह याचना क्यों करता भला ! इसलिए जीव भगवान कि भक्ति नहीं कर सकता है, उनकी भक्ति पाने के लिए जीव को गुरू के शरण में जाना हीं होगा । उनकी बतलाई मार्ग का अनुसरण करके जीव को अपना अंत:करण शुद्ध करना हीं होगा, फिर गुरू स्वरूप शक्ति द्वारा उसके अंतःकरण को दिव्य बना कर उसको प्रेम दान कर देगा , फिर जीव को भगवान कि भक्ति , उनकी सेवा , उनका प्रेम, उनका लोक मिल जाएगा सदा के लिए , फिर जीव सदा के लिए आनंदमय हो जाएगा । 
इसलिए बिना गुरू के शरणागति के कोई जीव अनंत जन्म तक भगवान का नाम लेता रहे कभी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता । 
ऐसा भी नहीं की आपलोगों ने अपने पिछले अनंत जन्मों में उनकी भक्ति नहीं की होगी । पर सफल क्यों नहीं हुए ? क्योंकि रसना से , इंद्रियों से आपलोगों ने भगवान कि , तथा गुरू कि भक्ति किया, लेकिन एक काम नहीं किया आपलोगों ने किसी वास्तविक महापुरुष कि शरणागति नही की। इसलिए काम नहीं बना आज तक आपका । और अगर आपने इस मानव जीवन में भी गुरू कि शरणागति नहीं करेंगे तो पता नहीं आगे कितनी और जन्म फिर बीत जाए चौरासी लाख में , आप भगवान कि सेवा , भक्ति, तथा प्रेम कभी प्राप्त नहीं कर सकेंगे , इसको नोट कर लिजिए अपनी डायरी में । :- श्री महाराज जी ( भगवद्गीता ज्ञान )

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प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।