आहार विहार विज्ञान - स्वास्थ्य सम्बन्धी विशेष सन्देश जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय के वार्षिक समारोह में:-

आहार विहार विज्ञान - ( पोस्ट - क)
स्वास्थ्य सम्बन्धी विशेष सन्देश जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय के वार्षिक समारोह में:- 

देखिये हमारे शास्त्रों में धर्म की परिभाषा की गई है-

 यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः (वैशेषिक दर्शन)

 जिससे इहलौकिक पारलौकिक परमार्थ सिद्ध हो उसका नाम धर्म है। भावार्थ ये कि हम दो हैं एक हम नाम की आत्मा और एक हम नाम का शरीर, दोनों का उत्थान कम्पलसरी है। अगर कोई कहता है कि शरीर तो मिथ्या है। ऐसा कोई विश्व में ज्ञानी नहीं है जो शरीर के बिना एक सेकंड भी रह सके। आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अभिन्न है। बिना शरीर के आत्मा नहीं रहती, सदा साथ रहती है। तो शरीर की उन्नति भी परमावश्यक है। वेद कहता है

अत्याहारमनाहरम्। (अमृतना. उप. २८ )

देखो खाना, पीना, सोना सब संयमित रखना मनुष्यो ! अगर इसमें गड़बड़ करोगे तो शरीर में अनेक प्रकर के रोग होंगे तो तुम्हारा मन भगवान् की ओर नहीं जा सकता। क्योंकि तुम्हारे भीतर देहाभिमान है, देह की फीलिंग होगी और देह के दुःख से भगवान् के चिन्तन के स्थान पर देह का चिन्तन होगा। इसलिये शरीर को स्वस्थ रखने के लिये आहार-विहार सब संयमित होना चाहिये। हमने इसको कोई महत्त्व नहीं दिया। भगवान् ने गीता में भी कहा अर्जुन!

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ (गीता ६.१७)

 कोई भी कर्मी ज्ञानी योगी हो, शरीर को स्वस्थ रखना परमावश्यक है। अगर नहीं रखोगे तो- 

तन बिनु भजन वेद नहिं बरना (तुलसीदास)

शरीर के बिना भगवान् की उपासना कैसे करोगे ? इसलिये डॉक्टरों के अनुसार समझ करके वैज्ञानिक ढंग से कितना विटामिन प्रोटीन ए.बी.सी.डी. ये सब चाहिये। शरीर को स्वस्थ रखना है। कितना ही बड़ा आदमी हो, खरबपति हो अगर वो स्वयं स्वस्थ रखने का संयम नहीं करता तो करोड़ों डॉक्टर लगा दो उसके पीछे, वो कुछ नहीं कर सकते डाक्टर। वो रोता रहेगा पूरे जीवन । बिस्तर पर पड़ा रहेगा। क्यों ? अरे वो कभी व्यायाम नहीं करता, वो कभी विटामिन प्रोटीन का ध्यान नहीं रखता मनमाना खाता है, मनमाना सोता रहता है तो फिर दण्ड भोगना पड़ेगा। डॉक्टर साहब क्या करेंगे बिचारे । इसलिये शरीर स्वस्थ रखने के लिये हमको सावधान रहना है। फिर भी एटमॉसफियर से रोग हो जाते हैं, वंश से रोग हो जाते हैं, एटॉमिक हानियों से हो जाते हैं बड़े-बड़े संयमी को बड़े-बड़े डॉक्टरों को भी हो जाते हैं। इसलिये डॉक्टर की जरूरत पड़ती है।

तो मरीज में भगवान् है ये बुद्धि में लाकर उसका इलाज करना चाहिये।

और नम्बर एक, मधुर भाषण सबसे बड़ा इलाज। एक मेरा क्लास फेलो था इन्दौर में, बहुत गरीब था बिचारा । उसने हमारे ही साथ आयुर्वेद में आचार्य किया था। वो इतना मीठा बोलता था जैसे कोई घोर संसारी आदमी अपनी प्रेयसी से बोलता है ऐसे, बहन जी ! बहुत जल्दी आप ठीक हो जायेंगी। भाई साहब! तो उसके यहाँ मरीजों की भीड़ लगी रहती थी। नॉलिज कोई विशेष नहीं थी। हमसे तो उसने सीख सीख करके डिग्री ली थी। लेकिन मधुर भाषण से मरीजों को आराम हो जाता था। ये बहुत बड़ा इलाज है, मधुर बोलना, मीठा बोलना। ये आधा इलाज है। मरीज का अगर मन प्रसन्न रहे तो आधा इलाज तो वही है, दवा बाद में। ये डॉक्टर लोग भी जानते हैं कि उसके मन को प्रसन्न रखना चाहिये ।

आजकल इतने डिप्रेशन के रोग चल रहे हैं दुनिया भर में, मन प्रसन्न नहीं है, टेन्शन है सबको। तो क्या करेगा डॉक्टर ?
वो गोली दे देते हैं डॉक्टर लोग, वो नशे में रहता है दिनभर, पागल सरीखा। ये इलाज है उसका। और क्या करेगा डॉक्टर।

तो डॉक्टरों को भी बहुत नम्रता से, मधुरता से और भगवद् भावना से मरीजों के साथ पेश आना चाहिये और सबको आहार-विहार का सुन्दर प्रयोग, सही प्रयोग, वैज्ञानिक प्रयोग करना चाहिये और प्रमुख रूप से मन को स्वस्थ रखने के लिये हरि गुरु को सदा अपने साथ मानना चाहिये। ये सब अभ्यास करते हुये जनता की सेवा ये हम लोगों का कर्तव्य है ।
स्वास्थ्य सम्बन्धी विशेष सन्देश जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय के वार्षिक समारोह में:- 
तो, ये संसार बड़ा आवश्यक है। यहाँ तक कि जो ब्रह्मज्ञानी हो जाते हैं, भगवत्प्राप्ति कर लेते हैं, चाहे ज्ञानी हों चाहे भक्त हों, उनको भी इस संसार की आवश्यकता है। इतना इम्पॉर्टेन्ट है संसार। वेदव्यास, भगवान् के अवतार, उन्होंने वेदान्त जब लिखना शुरू किया तो एक सूत्र बना दिया पश्वादिभिश्चाविशेषात् ॥ (ब्रह्म सू.)

जैसे पशु-पक्षी को शरीर के लिये खाना चाहिये, पानी चाहिये, हवा चाहिये, ऐसे ही परमहंसों को भी, महापुरुषों को भी खाना चाहिये। नहीं तो राधे राधे भूल जायगा । अरे शरीर ही नहीं रहेगा। ये शरीर तभी तक रहेगा जब तक कि शरीर को आप संसार देंगे- विटामिन प्रोटीन सब चीजें ठीक-ठीक लिमिट में। मनमाना करेंगे तो दण्ड भोगना पड़ेगा। अरे, हम तो जो मन में आता है वो खाते हैं। तो फिर रोज अस्पताल जाते हैं, ये भी होगा। जो मन में आता है वो खाते हैं तो ।

तो संसार देह के लिये बनाया है भगवान् ने और भगवान्
सम्बन्धी श्रेय मार्ग आत्मा के लिये बनाया है। हम दो हैं, एक हम और एक हमारा शरीर । इसीलिये मार्ग भी दो हैं, हम माने आत्मा के लिये भगवान् और देह के लिये संसार दोनों परमावश्यक हैं। अगर भगवान् को हम भूल जायेंगे तो चौरासी लाख में घूमेंगे, अगर हम संसार का अपमान करेंगे तो शरीर ही नहीं रहेगा हमारा। ये संसार मिथ्या है बोलने वाले शंकराचार्य वगैरह से पूछो कि भीख माँग के खाते हो, गृहस्थियों के घर पर ? हाँ। क्यों खाते हो? ये तो मिथ्या है, मिथ्या का सेवन क्यों करते हो? तुम तो कहते हो संसार है ही नहीं, सब भ्रम है।

तो इस प्रकार हमें समझना है कि श्रेय मार्ग भी हमारे लिये आवश्यक है और प्रेय भी आवश्यक है लेकिन मन का अटैचमेन्ट श्रेय मार्ग में ही हो। यानी भगवान् का उपभोग, संसार का उपयोग, दोनों शब्दों पर ध्यान दो, भगवान् का तो उपभोग करना है वहाँ से आनन्द मिल रहा है और संसार का उपभोग नहीं, उपयोग माने आवश्यकता की पूर्ति, शरीर चलाने के लिये। ठीक टाइम पर खाओ, ठीक-ठीक खाओ अर्जुन !

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
 युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ (गीता ६.१७)

ये भगवान् को जो श्रेय मार्ग में चलकर भगवान् को पाना चाहते हो, तो वहाँ भी एक शर्त है, प्रेय को ठीक-ठीक अपनाओ। युक्त आहार, युक्त विहार, युक्त सोना, युक्त जागना सब लिमिटेड, कुसंग से भी बचना, हर प्रकार की सावधानी यानी प्रेय का अपमान नहीं करो। उसको सावधानी के साथ स्वीकार करो तो शरीर स्वस्थ रहेगा।

 तो भगवान् की भक्ति कर सकोगे। अर्जुन को, जो अर्जुन उर्वशी पर कन्ट्रोल कर रहा है, जीत गया। उर्वशी ने जिसके आगे सरेण्डर कर दिया. उससे हार गयी, वो अर्जुन भगवान् के सामने बैठा है। भगवान् कहते हैं, ऐ अंडबंड नहीं खाना-पीना सोना-जागना नहीं तो ये सब चलेगा नहीं, ये धनुषबाण सब खतम हो जायेगा और वो मन भी और गड़बड़ हो जायेगा। 

ये जो मन है, ये साधनावस्था में पहली कक्षा में तो ये अन्न से मन बनता है। अन्न से तीन चीज़ बनती हैं, एक तो मन और एक रस। अन्न का पेट में आँतों के द्वारा मन्थन होकर रस बनता है, रस से रक्त, फिर मांस, फिर मेदा, फिर हड्डी, फिर मज्जा, फिर वीर्य और कुछ हिस्सा उसका लेट्रीन बन जाता है और एक हिस्सा उसका मन बनता है, सूक्ष्म मन। मन पर प्रभाव पड़ता है खाने-पीने का तामसी खाना खाओगे तो तामसी वृत्ति होगी, राजसी खाओगे राजसी वृत्ति होगी, सात्त्विक खाना खाओगे तो सात्त्विक भावना पैदा होगी अधिक ।

तो ये खाना-पीना, ये सब मनमाना नहीं है कि हम भक्ति करते हैं हमको क्या, जो चाहे सो खायें जितना चाहे, ऐसा नहीं चलेगा। हाँ, सिद्ध हो जाओ, भगवत्प्राप्ति कर लो, फिर तो सब चलेगा। फिर तो न खाओ तो भी चलेगा वो तो आगे वाली बातें हैं। अरे, सिद्धि मिल जायगी तो कोई जरूरत ही नहीं। भूख-प्यास भी खतम कर सकते हो। लेकिन साधनावस्था में तो बहुत आवश्यक है ये प्रेय वाला मायिक जगत् और श्रेय तो कम्पलसरी है ही है।

इस प्रकार श्रेय प्रेय का समन्वय करके साधना करनी है। जैसे आत्मा और देह का समन्वय है, देह के बिना आत्मा नहीं रहती। ऐं! नहीं रहती ! और हम मर जाते हैं तब ? तब भी एक देह साथ जाता है, सूक्ष्म शरीर, आत्मा देह से रहित नहीं, गोलोक में भी। अब तो शरीर समाप्त हो गये सब ? नहीं। वहाँ भी दिव्य शरीर मिलता है। आत्मा शरीर के बिना नहीं रहता और शरीर आत्मा के बिना नहीं रह सकता। आत्मा निकल गया तो शरीर जीरो बटे सौ, सड़ गया। हाँ, वो जो ब्यूटी कम्पटीशन में आई थी उससे बदबू आने लगी। अब उसकी ओर कोई देखता भी नहीं है। हटाओ - हटाओ, निकालो बाहर ।

तो इस प्रकार तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मा का भी हिसाब बैठाना है, देह का भी हिसाब बैठाना है। जैसे देह आत्मा का सम्बन्ध अन्योन्य रूप से है ऐसे ही श्रेय और प्रेय का है। 

यानी भगवान् और मायिक जगत् का। ये जगत् भगवान् ने बनाया है। भगवान् बेवकूफ नहीं है, उसने काम का बनाया है संसार। ये संसार सत्य है ये मिथ्या नहीं है, सत्य भगवान् से सत्य संसार बना है। ये मिथ्या इसलिये आप कह सकते हैं कि भगवान् नित्य है, जीव नित्य है और संसार अनित्य है । इसका प्रलय हो जायेगा, फिर बनेगा, फिर प्रलय हो जायगा, इतना सा अन्तर है। 

-श्री कृपालु महाप्रभु जी । (प्रवचन संकलन पुस्तक भगवद् गीता ज्ञान भाग-6)
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