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Showing posts from September, 2023

क्या निष्काम भाव से हरि गुरू की भक्ति व सेवा से हमको सुख नहीं मिलेगा ?

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क्या निष्काम भाव से हरि गुरू की भक्ति व सेवा से हमको सुख नहीं मिलेगा ?  श्री महाराज जी :- वास्तविक जो सेवा की भावना है वो यही है कि अपने सुख की कामना ना हो ।  तो अपने को कभी सुख ही नहीं मिलेगा क्या ? अरे दु:ख निवृत्ति तो हो गई भगवत प्राप्ति पर वो तो छोटी मोटी चीज है। माया निवृत्ति हो गई, सब हो गया । लेकिन फिर तो हम ज्ञानियों की तरह हो गए जब हमको सुख ना मिला ।  नहीं ऐसा नहीं है । जब हम स्वामी की सेवा करेंगे उनको सुख देने के लिए तो स्वामी आनंद सिंधु हैं वो उस सुख को वापस कर देगा मुझे । वो केवल परीक्षा लेता है जीव की कि इसका समर्पण सही है क्या ? तो जब वो हमको वापस करेंगे तो वो आनंद इतना विलक्षण है कि उस आनंद के पाने वाले की चरणधूलि पाने के लिए जीवन्मुक्त अमलात्मा परमहंस ब्रज में वृक्ष बनते हैं ।  वो आनंद तो नहीं मिलेगा उनको जो गोपियों को मिल रहा है । लेकिन गोपियों को जो आनंद मिल रहा है निष्कामता में, उस आनंद को पाने वाली गोपियों की चरण धूल ही मिल जाए, बस इतने में ही परमहंस अपने को कृतार्थ मानते हैं और प्यास पैदा हो जाती है उनके ।  प्यास । ये प्यास शब्द जो बोल...

सेवा के प्रकार

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श्री महाराज जी का आदेश साधकों के लिए निचे है" सेवा के प्रकार " ।  ****************************************** सेवा तीन प्रकार की होती है । मनुजा, तनुजा , वित्तजा,  मन से सेवा करना जब तक भगवान नहीं मिलेंगे तब तक आप लोग क्या करेंगे ? ध्यान करेंगे । तो ध्यान का मतलब आंख बंद किया मन से सोचा श्यामसुंदर सामने खड़े हैं । अब उनको हम नहला रहे हैं , अब उनका शरीर पोछ रहे हैं , अब उनको कपड़ा पहना रहे हैं , अब उनको खाना खिला रहे हैं, सब मन से करेंगे , ये सेवा है, ये लिखी जाएगी सेवा उसी प्रकार जैसे - गोलोक में भक्त लोग सेवा करते हैं । आप जो मन से सेवा करेंगे इसको मानसी सेवा कहते हैं । ये सबसे ऊँची होती है ।  सवसे श्रेष्ठ ।अब कब तक ? जब तक भगवत प्राप्ति नहीं होती तो उसकी सिद्धि के लिए तनु , वित्तजा । शरीर से सेवा, भगवान के मंदिर में मूर्ति की सेवा अथवा कोई संत मिल जाए वो भी भगवान का दूसरा रूप है, उसकी शरीर से सेवा यह तनुजा कहलाती है । और तीसरी वित्तजा धन से सेवा करना । हमारे पास जितना भी धन है वो सब भगवान का है इसलिए उनकी सेवा में लगाना है । हमारा अधिकार उतने ही धन पर है जितने में ह...

तीर्थ का महत्व

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श्री कृपालु जी महाराज:-  हमारे हृदय में वो बैठे हैं , महसूस करो , इसको रियलाइज करो । फिर बाहर भागना बंद हो जाए । और अगर तीर्थ में जाओ तो किसी महापुरुष के साथ जाओ तो लाभ मिलेगा । वो महापुरुष के साथ सत्संग भी मिलेगा न इसलिए लाभ होगा । पत्थर की और लक्कड़ की और सोने चांदी की मूर्ति में क्या है,  उसमें भी भगवान् व्याप्त है,  वो तुम्हारे अंदर भी व्याप्त है,  उसमें कोई अंतर नहीं  है । तीर्थ में महापुरुष जाते हैं इसलिए वो तीर्थ है । महापुरुष न जायें तो तीर्थ का कुछ नहीं,  सब एक से पृथ्वी है,  एक सा जल है , एक सी वायु है ,  एक सा सब कुछ है ।  आप लोगों ने पढ़ा होगा इतिहास में । हमारे इसी भारतवर्ष के सब मंदिर तोड़ दिए गए थे एक जमाने में,  सोमनाथ वगैरह  के बड़े-बड़े  ।  मंदिर में पत्थर की मूर्ति ने क्या कमाल दिखाया ? वेदव्यास कहते हैं कि वो तो भावना बनाने से आपको लाभ मिलता है,  किसी मूर्ति में कोई खास बात नहीं होती ।  लेकिन हम लोग चूँकि शास्त्र वेद नहीं जानते , इसलिए ऊंचाई पर , पहाड़ पर एक मंदिर बनवाकर छोटा सा,  उसमें ए...

आदेशामृत, श्री कृपालु जी महाप्रभु

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 आदेशामृत -१ सतर्क होकर साधना के लिए बैठो | यदि आलस्य आने लगे, तो अपने आप खड़े हो जाओ | लेकिन शर्त यह है, चिंतन श्यामसुन्दर का ही हो | आदेशामृत - २ " अपने इष्टदेव का गुणगान करो | ध्यान रखो , किसी का मन किसी के गुण पर रीझता है | जिस प्रकार संसार में कोई किसी के गुण पर रीझता है , कोई किसी की दयालुता पर आसक्त होता है | इसी प्रकार अधम उधारनहार , पतितपावन , भक्तवत्सल आदि ठाकुर जी के अनंत गुण हैं | इन गुणों का निरंतर श्रवण करो |  आदेशामृत -३ " केवल गुणगान करने से काम नही चलेगा | गान तो गवैये भी करते हैं | लेकिन उसको भगवत्प्राप्ति नहीं होगी | अतएव गुणगान करते समय तदनुसार भाव भी लाओ | जैसे , हम वस्तुत: अधम हैं , पतित हैं | अनंत जन्मों के किए अनंत पापो की गठरी सिर पर लिए हैं और वे अकारणकरुण , भक्तवत्सल , पतितपावन , अधमउधारनहार आदि हैं |" :- श्री महाराज जी ।  आदेशामृत - ४ " नेत्र बंद करके रुपध्यान करो क्योंकि प्राथमिक अवस्था में आँखें खोल कर कीर्तन करने से दुसरे लोग आते - जाते दिखाई देते हैं , श्यामसुदंर नही | रुप ध्यान की अत्यन्त आवस्यकता है | रुपध्यान नहीं करेंगें , तो शार...

योग का वास्तविक अर्थ

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 ( योग का वास्तविक अर्थ ) भक्ति धाम - मनगढ़ में योग शिविर के अवसर पर श्री महाराज जी का संदेश -  देखिये योग शब्द का अर्थ है मिलन। जीवात्मा परमात्मा का मिलन। उसको योग कहते हैं। जीवात्मा परमात्मा का मिलन क्यों नहीं होता? इसका एक कारण है - मन ।  मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । (ब्रह्मबिन्दू. उप. २)  इसी मन को वश में करने के लिये पतजंलि ने एक शास्त्र का निर्माण कर दिया, लम्बा चौड़ा दर्शनशास्त्र, योग दर्शन । और उन्होंने कहा कि जीवात्मा परमात्मा के मिलन में जो बाधक है मन, उस मन की वृत्ति पर निरोध करना पड़ेगा। वो संसार की ओर भागता है, भगवान् से मिलने नहीं देता। क्योंकि वो माया का संसार है और माया का पुत्र, मन है। इसलिये अपने सजातीय विषय की ओर नैचुरल भाग रहा है। अब विपरीत दिशा में मुड़ने के लिये प्रयत्न करना होगा। इसलिये उन्होंने योग की परिभाषा बताई - योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ (पातं. योग. १.२) चित्तवृत्ति का निरोध करो। कैसे करें? बहुत से उपाय बताये। जैसे- वीतरागविषयं वा चित्तम्। (योगदर्शन १.३७) एक ये भी मार्ग है कि किसी महापुरुष का चिन्तन और अष्टांग योग तो है ही है। अष्ट...

मन का खेल

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"योगिन: कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंच्श्रली ।" ( भागवत ५-६-४)  भगवान ने कहा यह मन जो है यह मिलकर के विश्वासघात करता है । इसलिए सब बड़े-बड़े ऋषि मुनि योगी सब धोखे में आ जाते हैं । इस दुश्मन से सदा होशियार रहो । मन कर रहा है कि सो जाएं, मन कर रहा है कि उसको मारे , मन कर रहा है वैसे ही आप कर गए ।  मन दुश्मन था आपने उसे दोस्त मान लिया । उसने आत्मा का सर्वनाश कर दिया । इसलिए एक पहला नंबर वाला अभ्यास तो यह है कि आप सदा यह रिलाइज करें कि वह हमारे ह्रदय में बैठे हैं , सब नोट करते हैं , नंबर दो रूपध्यान का अभ्यास करें , यह अकेले एकांत की साधना है , एकांत में बैठकर रूपध्यान की साधना करें ।  रूपध्यान अत्यंत आवश्यक है, इसके बिना कोई लाभ नहीं होगा चाहे अनंत जन्म बीत जाए , पाने वाला सात दिन मे़ तो क्या सात सेकेंड में भगवान को प्राप्त कर लेता है , दृढ़ता होनी चाहिए , दृढ़ विस्वास और समर्पण , पूर्ण शरणागति । नहीं तो हम वहीं के वहीं रहेंगें , आगे नहीं बढ़ेंगे । रूपध्यान साधना हीं हमें आगे बढ़ाएगा । थोड़े दिन मेहनत जरूर होगा , फिर अपने आप होने लगेगा , फिर धीरे धीरे रूपध्यान में आनंद आन...

आहार विहार विज्ञान - स्वास्थ्य सम्बन्धी विशेष सन्देश जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय के वार्षिक समारोह में:-

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आहार विहार विज्ञान - ( पोस्ट - क) स्वास्थ्य सम्बन्धी विशेष सन्देश जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय के वार्षिक समारोह में:-  देखिये हमारे शास्त्रों में धर्म की परिभाषा की गई है-  यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः (वैशेषिक दर्शन)  जिससे इहलौकिक पारलौकिक परमार्थ सिद्ध हो उसका नाम धर्म है। भावार्थ ये कि हम दो हैं एक हम नाम की आत्मा और एक हम नाम का शरीर, दोनों का उत्थान कम्पलसरी है। अगर कोई कहता है कि शरीर तो मिथ्या है। ऐसा कोई विश्व में ज्ञानी नहीं है जो शरीर के बिना एक सेकंड भी रह सके। आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अभिन्न है। बिना शरीर के आत्मा नहीं रहती, सदा साथ रहती है। तो शरीर की उन्नति भी परमावश्यक है। वेद कहता है अत्याहारमनाहरम्। (अमृतना. उप. २८ ) देखो खाना, पीना, सोना सब संयमित रखना मनुष्यो ! अगर इसमें गड़बड़ करोगे तो शरीर में अनेक प्रकर के रोग होंगे तो तुम्हारा मन भगवान् की ओर नहीं जा सकता। क्योंकि तुम्हारे भीतर देहाभिमान है, देह की फीलिंग होगी और देह के दुःख से भगवान् के चिन्तन के स्थान पर देह का चिन्तन होगा। इसलिये शरीर को स्वस्थ रखने के लिये आहार-विहार सब संयमित होना चाहिये।...

जीव को अपने कल्याण के लिए सबसे पहले किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष को अपना गुरू बनाना होगा

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श्री महराज जी :-  जीव को अपने कल्याण के लिए सबसे पहले किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष को अपना गुरू बनाना होगा, फिर उनकी शरणागति करनी होगी, आप तन से करें , धन से करें ठीक है, तन और धन दोनों से करें सेवा गुरू कि लेकिन मन से शरणागति कंपल्सरी है सभी के लिए।  क्योंकि मन ही मेन है । धन किसी के पास है किसी के पास नहीं है, तन से भी कोई गुरू की सेवा चाहे न कर सके, भला वो वीमार है वेचारा , कोई लाचार है अपहिज है या दुर रहता है सात समंदर लेकिन मन के बिना तो कोई जीव हो हीं नही सकता है, मन तो सबके पास है ।  तो मन प्रमुख हैं इसलिए मन से गुरू की शरणागति करनी पड़ेगी । जीव को गुरू कि शरणागति करनी पड़ेगी , जोर देकर कहा है शास्त्रों ने ।  फिर साधना भक्ति करने का मार्ग गुरू बतलायेगा उसको, तत्वज्ञान करायेगा, समय समय पर उसके डाउट को क्लियर करेगा गुरू, साधनावस्था में जीव को संभालेगा भी गुरू। फिर साधना भक्ति करने पर जब जीव का अंत:करण शुद्ध हो जाएगा तब गुरू अपने स्वरूप शक्ति से उसके अंत:करण को दिव्य बना देगा और प्रेम दान कर देगा ।  जब तक अंत:करण शुद्ध नहीं होगा तब तक गुरू दिव्...

पंचम पुरुषार्थ तथा पुरूषार्थ चातुष्ट्य के बारे में डिटेल में , तो सुनिय श्री महाराज जी के श्री मुख से :-

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कुछ लोग जानना चाहते थे न पंचम पुरुषार्थ तथा पुरूषार्थ चातुष्ट्य के बारे में डिटेल में , तो सुनिय श्री महाराज जी के श्री मुख से :-  सबसे इम्पॉर्टेन्ट ग्रन्थ हमारे यहाँ श्रीमद्भागवत है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चार पदार्थों का निरूपण वेदों में, शास्त्रों में, पुराणों में, महाभारत में भरा पड़ा है, स्मृतियों में। ये प्रेय मार्ग है। माना कि मोक्ष श्रेय मार्ग है, लेकिन फिर भी वास्तविक श्रेय नहीं और धर्म, अर्थ, काम, तो प्रेय है ही हैं- डिक्लेयर्ड तो ये धर्म, अर्थ, काम- इन तीनों का निरूपण तो तमाम भरा पड़ा है वेदों में। यानी एक लाख वेद मंत्र में अस्सी हजार वेद मंत्र धर्म, अर्थ, काम सम्बन्धी हैं, इतना डिटेल और बीस हजार मंत्र में मोक्ष और भक्ति ये दोनों है। तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का निरूपण बहुत अधिक है। भरा पड़ा है। लेकिन भागवत का निर्माण जो हुआ है वो-  धर्मः प्रोज्झित कैतवः (भागवत १.१.२) ये भागवत ग्रन्थ कैतव रहित है। कैतव माने छल, ठगपना, धूर्तता। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-ये ठग हैं, ये ठग लेते हैं जीव को। तो भागवत में कहा कि हम पाँचवाँ बतायेंगे- पुरुषार्थ 'पंचम पुरुषार्थ सेई प्रेम महा...

शरणागति और भक्ति

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कोई भी मायाधीन जीव भगवान कि भक्ति कर हीं नहीं सकता कभी , भक्ति का मतलव हीं सेवा होता है। जीव के पास न तो कोई दिव्य सामान है और न सामर्थ्य, भला मायाधीन जीव , मायाधीश भगवान और गुरू की सेवा कैसे कर सकता है ?  भला एक असमर्थ , सर्वसमर्थ की सेवा कैसे कर सकता है ?   इसलिए कोई भी मायाधीन जीव न तो भगवान या गुरू  की सेवा कर सकता है और न भक्ति कर सकता है । हां भगवान तथा गुरू जीव की सेवा करते हैं ।  जीव का तन माया का , मन माया का , बुद्धि माया की, सामान माया का, धन माया का  , इंद्रियां माया का , संसार माया का , भला इनसे भगवान और गुरू भक्ति और सेवा कैसे कर सकता है जीव ? असंभव ।  सर्वसमर्थ भगवान जीव की भक्ति करते हैं । जीव भगवान की भक्ति कभी नहीं कर सकता है ।  तो फिर जीव क्या कर सकता है जिससे वो उनको प्राप्त कर सकें , प्राप्त कर लेता है , अनेकों ने प्राप्त कर लिया इसी कलयुग में  ? मायाधीन जीव के हांथ में एक हीं साधन ऐसा क्या है जिससे वो भगवान को प्राप्त कर सकता है , गुरू को रिझा सकता है ? वो ऐसी कौन सी  दुर्लभ साधन है मायाधीन के पास जिसके द्वारा वो भग...

जीव का एक मात्र काम है अपने गुरू के शरणागत होकर साधन भक्ति जैसे भगवान का , गुरू का उनके धाम का , लीला का, रूप का , गुण का चिंतन , स्मरण , रूपध्यान युक्त किर्तन करना । उनकी सेवा करना , उनके निमित्त दान करना । इससे उसके अंत:करण की शुद्धि होगी ।

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जीव का एक मात्र काम है अपने गुरू के शरणागत होकर साधन भक्ति जैसे भगवान का , गुरू का उनके धाम का , लीला का, रूप का , गुण का चिंतन , स्मरण , रूपध्यान युक्त किर्तन करना । उनकी सेवा करना , उनके निमित्त दान करना । इससे उसके अंत:करण की शुद्धि होगी । तत्पश्चात गुरू उसके अंत:करण को स्वरूप शक्ति से दिव्य बना देगा और प्रेम दान करेगा ।  तब जाकर वो भगवान कि सेवा , भक्ति करेगा , उससे पहले नहीं ।  उससे पहले जीव भगवान कि भक्ति सेवा कैसे करेगा भला ? वो न भगवान को देखा है और न उनको जान सकता है ।  जीव भगवान का शरणागत भी नहीं हो सकता । क्योंकि जीव तो उनको जानता भी नहीं , देख भी नहीं सकता तो कैसे उनके शरण में जाएगा बेचारा ?  जीव को सबसे पहले किसी श्रोत्रिय तथा ब्रह्मनिष्ठ भगवद् प्राप्त महापुरुष के शरण में हीं जाना पड़ेगा । उनको अपना गुरू बनाना होगा ‌ , फिर उनके द्वारा बतलाया गया साधन भक्ति , सेवा , दान आदि करेगा जीव ।  इन साधनों से उसका अंत:करण जब शूद्ध हो जाएगा, फिर गुरू उसको दिव्य बना कर उस दिव्य अंत:करण में प्रेम दान करेगा । तब जाकर उसका तमाम मन बुद्धि, इंद्रियां आदि सभी दिव्...

बिना गुरू शरणागति के भगवान कि भक्ति संभव नहीं ।

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जब मायाधीन जीव भगवान की सेवा और भक्ति करने में सक्षम होता तो फिर वो उनसे सेवा,भक्ति तथा प्रेम दे दो,यह याचना क्यों करता भला ! इसलिए जीव भगवान कि भक्ति नहीं कर सकता है, उनकी भक्ति पाने के लिए जीव को गुरू के शरण में जाना हीं होगा । उनकी बतलाई मार्ग का अनुसरण करके जीव को अपना अंत:करण शुद्ध करना हीं होगा, फिर गुरू स्वरूप शक्ति द्वारा उसके अंतःकरण को दिव्य बना कर उसको प्रेम दान कर देगा , फिर जीव को भगवान कि भक्ति , उनकी सेवा , उनका प्रेम, उनका लोक मिल जाएगा सदा के लिए , फिर जीव सदा के लिए आनंदमय हो जाएगा ।  इसलिए बिना गुरू के शरणागति के कोई जीव अनंत जन्म तक भगवान का नाम लेता रहे कभी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता ।  ऐसा भी नहीं की आपलोगों ने अपने पिछले अनंत जन्मों में उनकी भक्ति नहीं की होगी । पर सफल क्यों नहीं हुए ? क्योंकि रसना से , इंद्रियों से आपलोगों ने भगवान कि , तथा गुरू कि भक्ति किया, लेकिन एक काम नहीं किया आपलोगों ने किसी वास्तविक महापुरुष कि शरणागति नही की। इसलिए काम नहीं बना आज तक आपका । और अगर आपने इस मानव जीवन में भी गुरू कि शरणागति नहीं करेंगे तो पता नहीं आगे कितनी ...

योगक्षेमं वहाम्यहम्

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 पोस्ट संख्या :- 1 योगक्षेमं वहाम्यहम् पर श्री महाराज जी द्वारा डिटेल में व्याख्या तथा निर्देश उन्हीं के श्री मुख से:-  अपने गुरु, अपने मार्ग और अपने इष्टदेव में अनन्यता होनी चाहिये अर्थात् उन्हीं तक अपने जीवन को सीमित कर देना चाहिये। उसके बाहर न देखना है, न सुनना है, न सोचना है, न जानना है, न करना है और अगर कोई विरोधी वस्तु मिलती है तो उससे उदासीन हो जाना है- न राग, न द्वेष । अनन्यता का अर्थ बताते हैं नारद जी-  अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता। (ना.भ.सूत्र १०) अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है। यह 'अनन्य' शब्द बहुत इम्पॉर्टेन्ट है, भगवत्प्राप्ति के बाद भी काम देगा आपको | इसीलिये गीता में बार-बार प्रत्येक अध्याय में अनन्य' शब्द का प्रयोग किया है - तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च। (ना.भ.सूत्र ९) अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते  तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (गीता ९.२२) भक्तों को, साधकों को प्रथम अवस्था में यह डाउट रहता है कि अगर हम लोक-वेद का परित्याग करके केवल भक्ति ही करेंगे तो हमारा यह शरीर व्यवहार कैसे चलेगा ? बड़ी गड़बड़ हो जायेगी अर्थात् ...