अनन्यता किसे कहते हैं ?
अन्य आश्रयों का त्याग - श्री कृपालु महाप्रभु जी का दुर्लभ प्रवचन ( 17-9-1980 मुंबई गीता भवन ) :-
अन्य आश्रयों का त्याग गोविन्द राधे ।
सोई कृष्ण भक्ति की अनन्यता बता दे ॥ ( भक्ति शतक )
अनन्यता क्या होती है ? ये समझना बहुत जरूरी है क्योंकि वेद से लेकर रामायण तक प्रत्येक ग्रन्थ में भगवान् की एक शर्त है कि मुझसे प्यार तो सब करते हैं लेकिन अनन्य प्रेम नहीं करते अनन्य प्रेम । अनन्य माने- न अन्य, अनन्य जैसे न एक-अनेक, न उचित-अनुचित, ऐसे ही न अन्य-अनन्य । इसको नय समास कहते हैं । अन्य में मन का अटैचमेन्ट न हो, ये भावार्थ। अन्य में। अन्य क्या होता है ? अर्थात् श्रीकृष्ण, उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके सन्त इतने को छोड़ कर जो बचा उसका नाम अन्य। अन्य में प्रमुख तीन हैं। तीन प्रकार के सुख छोड़ना पड़ेगा।
सुखं वैषयिकं ब्राह्ममैश्वरं चेति तत्त्रिधा। (भक्ति रसामृत सिंधु १.१.३० )
तीन प्रकार के सुख होते हैं - एक सुख का नाम विषय सुख, एक सुख का नाम ब्रह्म सुख और एक सुख का नाम ईश्वरीय सुख। ये तीनों सुखों का त्याग करना होगा तब प्रेम सुख मिलेगा, सेवा सुख मिलेगा। श्यामसुन्दर की सेवा चाहते हो न, तो सेवा चाहने के लिये तीन सुख अन्य हैं, इनको छोड़ना होगा ।
विषय सुख तो आप लोग जानते ही हैं। रोज आप जो इन्द्रियों का सुख लेते हैं, संसार से; इन्द्रियों का सुख संसार से, उसको विषय सुख कहते हैं आँख का विषय देखना। क्या देखकर सुख मिला ? माँ को, बाप को, बीबी को, पति को, बेटे को, बेटी को, ये संसार को देखकर सुख मिलता है। जहाँ-जहाँ सुख मिले, समझ लो - वहाँ-वहाँ मन का अटैचमेन्ट है। जिसके छिन जाने से जहाँ-जहाँ दुःख मिले, समझ लो वहाँ-वहाँ मन का अटैचमेन्ट है। एक-एक शब्द पर ध्यान दो।
आप लोग कहते हैं मेरा तो संसार में किसी से प्यार नहीं रहा। अब जब कोई मर जाता है, माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति तो 'दुःख होता है? हाँ, होता है। तो फिर वहाँ अटैचमेन्ट है। जिस चीज के मिलने से सुख मिले और जिस चीज के अलग होने से दुःख मिले, बस वहीं अटैचमेन्ट है ये प्रूफ, प्रमाण । तो स्वर्ग लोक तक के जितने भी इन्द्रियों के सुख हैं- जैसे आँख का सुख बताया ऐसे कान का, ऐसे ही नासिका का ऐसे ही रसना का, ऐसे ही त्वचा का ये पाँच सुख खास होते हैं, विषय सुख । इन पाँचों में मन का प्लस रहता है। मन युक्त आँख, मन युक्त कान, मन युक्त नासिका, मन युक्त रसना, मन युक्त त्वचा । अगर मन युक्त नहीं है तो फिर इन्द्रियों का सुख नहीं मिलेगा आपको। मन कहीं और लगा है और देख रहे हैं कुछ तो सुख नहीं मिलेगा।
तो मनयुक्त • इन्द्रियों से और जो प्राकृत पदार्थ हैं, प्राकृत माया के अण्डर वाले उनमें जो हमारा स्वाभाविक अटैचमेन्ट है वो ब्रह्मलोक तक है। उसका नाम विषय सुख। ये तीन प्रकार का होता है विषय सुख तमोगुणी, रजोगुणी, सत्त्वगुणी। तो तमोगुणी और रजोगुणी, ये तो आपको बहुत सुख मिलता है, रोज। तमोगुणी सामान आप सेवन करते हैं, रजोगुणी सामान हलुआ-पूड़ी सेवन करते हैं लेकिन सत्त्वगुणी सामान बहुत कम मिलता है और कम सेवन करते हैं। वो स्वर्ग सम्बन्धी, देवताओं की भक्ति वगैरह है, कहीं-कहीं, कभी-कभी उसका भी रस मिलता है आपको। बस ।
इसके परे है आत्मा का सुख । आत्मा का। वो दिव्य होता है, अनन्त मात्रा का होता है, सदा को मिल जाता है। उसको ब्रह्मानन्द कहते हैं। ब्राह्म सुख कहते हैं। निर्गुण, निर्विशेष, निराकार ब्रह्म का आनन्द कहते हैं। वो आनन्द आप लोगों को कभी नहीं मिला क्योंकि उसके मिलने के बाद फिर जन्म नहीं होता। वो सदा को मिल जाता है भगवान् में, एकत्व हो जाता है। तो उसके विषय में तो ऐसे सुन लीजिये, आपको अनुभव तो है नहीं। तो उसका भी त्याग कीजिये, मन से निकाल दीजिये। हमको मोक्ष दो भगवान्, हमको तार दो- ये इच्छा भी त्याग दो। हमको मोक्ष नहीं चाहिये।
इसके आगे है भगवान् का सुख। सगुण साकार का सुख। ये बुरी चीज नहीं है लेकिन अपने सुख के लिये अगर भगवान् को चाहते हो तो ये निष्काम प्रेम नहीं है। ये स्वार्थ हो गया। अपने सुख के लिये नहीं, उनके सुख के लिये उनसे प्यार करो। ये सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ा लक्ष्य, निष्काम प्रेम का। तो ये ईश्वरीय सुख है।
तो इन तीनों सुखों का त्याग यानी मन से निकालो। बाहर का त्याग नहीं है। भीतर वाला, मन की वासना, मन की इच्छा - ये मिल जाय, ये मिल जाय, वो निकालो। नहीं, हमको भगवान् का सुख चाहिये, भगवान् सुखी हों, राधाकृष्ण को सुख मिले, गुरु को सुख मिले। ये हरि-गुरु की सेवा, ये जो अन्तिम लक्ष्य है, इस लक्ष्य को पाने के लिये, ये तीन सुखों का त्याग करना होगा। इसमें दो सुख तो बहुत हीं भयानक हैं- विषय सुख और मोक्ष का, ब्रह्म का सुख ।
तीसरा सुख अगर पहले आपका है तो कोई बात नहीं, लेकिन निकालना उसको चाहिये, धीरे-धीरे । भगवान् का सुख बुरा नहीं है। लेकिन अपने सुख के लिये अगर भगवान् का सुख चाहते हो तो फिर वो आपको गोपी प्रेम वाली अवस्था नहीं मिलेगी। फिर तो कुब्जा वाली मिलेगी। गोलोक मिलेगा, माया से निवृत्ति हो जायगी, सदा के लिये भगवान् का धाम मिलेगा लेकिन सबसे ऊँचा लक्ष्य जो आपका है उसको पाने के लिये तीनों सुखों का परित्याग करना होगा। यह अनन्यता का अर्थ है ।
:- श्री महाराज जी ।
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