कृपा का कानून
" कृपा का कानून "
मायाधीन होने के कारण जीव ईश्वरविमुख है , किन्तु सदा भगवान की कृपा चाहता है | उसके लिए कृपा का अर्थ सदा सुख मिलते रहना है | सांसारिक वस्तु , संबंध एवं स्थिति आदि यदि उसके अनुकूल है , तो उसी अनुकूलता को वह भगवान की कृपा समझने का भ्रम पाले रखता है | जैसे ही प्रतिकूलता से उसका सामना होता है , वह भगवान को निष्ठुर कहने में ज़रा भी नही झिझकता | भोला अज्ञ जीव सदा कृपालु भगवान को दोष देने का भयानक अपराध करता रहता है | परिणामत: उसका मन और भ्रमित , दुविधाग्रस्त और कमज़ोर होता जाता है | उसकी स्थिति उस विद्यार्थी की तरह हो जाती है , जो परीक्षा में स्वयं गलत उत्तर लिखने के कारण अनुत्तीर्ण होता है , किन्तु सारा दोष परीक्षक के मत्थे मढ़ देता है | जीव की इस स्थिति को लक्ष्य करके हमारे पंचम मुल जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने लिखा है -
" शरण कृपा के बीच गोविंद राधे |
झगड़ा पड़ा है बड़ा झगड़ा मिटा दे ||
- राधा गोविंद गीत भाग -१
अपने उपर्युक्त पद में उन्होने भगवत्कृपा का वैज्ञानिक रुप प्रस्तुत करते हुए कहा है कि अनादिकाल से शरण और कृपा के बीच झगड़ा चला आ रहा है |
भगवान कहते हैं - यद्यपि मेरी कृपा का भण्डार खुला है , किन्तु मैं सिर्फ उन पर ही कृपा करने हेतु स्वतंत्र हूँ , जो मेरी शरण में आते हैं | मैं ईश्वरीय जगत के कानून से बंधा हूँ | दूसरी ओर जीव ने यह ठान रखा है कि उसे पहले कृपा चाहिए , बस तब शरणागत होने की बात सोची जाएगी | जीव की यही विडंबना उसे ईश्वर विमुख बनाए रखती है | वह न तो अपने जीवन का लक्ष्य समझ पाता है , न अपना वास्तविक स्वरुप समझ पाता है |
इस प्रकार वह ईश्वर के उस स्वरुप को समझ पाने में अक्षम होता है , जो संसार के कण - कण में उसकी कृपा के रुप में व्याप्त है |
मायाबद्धता के कारण वह कृपालु भगवान की उस कृपा को महसूस नहीं कर पाता, जिसके कारण वह संसार में आया है |
उसे सभी प्रकार का संरक्षण स्वाभाविक रुप से प्राप्त है | श्वास लेने के लिए वायु , खाने के लिए अन्न, पीने के लिए जल आदि का विपुल भंडार बिना मांगे मिलना भगवान की जीव पर कृपावृष्टि ही तो है , किंतु अबोध जीव भगवान के प्रति कृतज्ञता के बदले कृतध्नता दिखाने में ही अपना कल्याण समझता है | - मां रासेस्वरी देवी
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