सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान् । मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान ॥ ६५ ॥ - भक्तिशतक

भक्ति शतक :- 
सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान् । 
मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान ॥ ६५ ॥

भावार्थ - समस्त धर्मों का मूलाधार श्रीकृष्ण ही हैं। शेष सब शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्पादि के समान हैं। यदि मूल काट दिया जाय तो शेष सब ढह जायेंगे

व्याख्या - भागवत में वेदव्यास ने कहा है कि -
धर्ममूलं हि भगवान्सर्ववेदमयो हरिः । (भागवत ७.११.७)

 अर्थात् जितने श्रेय तत्त्व कर्म, योग, ज्ञानादि वेदों ने बताये हैं वे सब श्रीकृष्ण के निमित्त ही हैं। यदि श्रीकृष्ण रहित कोई भी साधन होगा तो वह बंधन कारक ही होगा। अभिप्राय यह है कि श्रीकृष्ण भक्ति ही वृक्ष की जड़ है। यदि जड़ ही निकाल दी जायगी तो वृक्ष स्वयं ढह जायगा। वैसे ही कर्मयोग, ज्ञान सब श्रम मात्र ही होंगे। यथा -

श्रेयः स्रुतिं भक्तिमुदस्य ते विभो क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये । 
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते नान्यद्यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥
( भागवत १०.१४.४)

धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः । 
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ (भागवत १.२.८)
 सो सब धर्म कर्म जरि जावू । योग कुयोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ॥ 

वास्तविक धर्म वही है जिससे श्रीकृष्ण में अनुराग हो। इसी प्रकार वास्तविक ज्ञान वही है जिससे श्रीकृष्ण में प्रेम बढ़े।

सा विद्या तन्मतिर्यया। (भागवत ४.२९.४९)

भक्तिहीन सब सोहइ कैसे बिनु जल वारिद देखिय जैसे।

अतः वह कर्म ज्ञानादि निंदनीय है, जो भक्ति रहित हैं। कर्मादि की तो सर्वत्र निंदा पाई जाती है। किंतु ज्ञान की तो गीता में प्रशंसा की गई है। यथा -

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ (गीता ४.३८)

अतः इस पर गम्भीर विचार करना है। वेदव्यास ने बहुत सुन्दर लिखा है यथा-

नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम्।
 कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥
(भागवत १.५.१२)

अर्थात् भक्ति रहित ज्ञान निन्दनीय है। किंतु भक्ति सहित ज्ञान वन्दनीय है। भक्ति रहित सर्वोच्च ज्ञान समझ लीजिये। ज्ञान की 3 उपाधियाँ हैं। 1. ज्ञाता 2. ज्ञेय 3. ज्ञान। इन तीनों से रहित ब्रह्म से एकाकारता ही निरुपाधि ज्ञान कहा जाता है।
यही निरंजन ज्ञान भी कहलाता है, जिसका निरूपण भागवत के उपर्युक्त श्लोक में है। वही ज्ञान नैष्कर्म्यज्ञान कहलाता है, जिसमें निष्कर्म रूप ब्रह्म से एकाकारता हो जाय। इन दोनों प्रकार ज्ञान वाले (निरंजन एवं नैष्कर्म्य) यदि श्रीकृष्ण भक्ति से रहित ही होते हैं तो माया-निवृत्ति नहीं करा सकते। पीछे की व्याख्याओं में कारण भी विस्तार पूर्वक बता चुके हैं। उपर्युक्त दोनों ही ज्ञानियों के पतन का कारण भी वेदव्यास ने बताया है। यथा

येऽन्येऽरविंदाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ॥
(भागवत १०.२.३२)

अर्थात् उन ज्ञानियों ने ज्ञान के मूलाधार भगवान् श्रीकृष्ण का अनादर किया है। (ज्ञानी लोग सगुण साकार को माया विशिष्ट निम्न कक्षा का मानते हैं) यह तो निर्विवाद सिद्ध सिद्धान्त है कि श्रीकृष्ण की माया, श्रीकृष्ण कृपा से ही समाप्त होगी।

भक्ति शतक में गीता 
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालुजी महाराज द्वारा प्रणीत ग्रन्थ भक्ति शतक में गीता का सार ।

कृष्ण कृपा बिनु जाय नहि, माया अति बलवान ।
 शरणागत पर ही कृपा, यह गीता को ज्ञान ॥ २९ ॥

भावार्थ - यह माया शक्ति इतनी बलवती है कि शक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा के बिना नहीं जा सकती। और यह कृपा भी केवल शरणागत जीव पर ही होती है। यह संपूर्ण गीता का सारभूत ज्ञान है।

व्याख्या - माया, श्रीकृष्ण की जड़, बहिरंगा शक्ति है एवं श्रीकृष्ण की ही शक्ति से चैतन्यवत् कार्य करती है। अतः
मायाशक्ति भी श्रीकृष्ण के समान ही है। अतः महानतम् ज्ञानी, योगी, तपस्वी भी साधना द्वारा माया को नहीं जीत पाते। गीता के प्रारम्भ से अंत तक केवल शरणागति पर ही

जोर दिया है और कहा है-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
 मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ (गीता ७.१४)

 अर्थात् मेरी शरण आने पर ही (एव शब्द का अर्थ 'ही. होता है) कोई इस माया से उत्तीर्ण हो सकता है। अंत में भी कहा है यथा

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। (गीता १८.६६)

शंकर को छोड़कर शेष सभी गीता भाष्यकारों ने इस महामंत्र का शरणागति परक ही अर्थ किया है। यहाँ भी एक, शब्द दिया है। इसी अन्तिम गुह्यतम गीता ज्ञान को पाकर ही अर्जुन का मोह भंग हुआ एवं वह युद्ध के लिये तैयार हो गया। उस समय भी अर्जुन ने यही कहा था।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। (गीता १८.७३) अर्थात् मैं अज्ञान मुक्त हो गया और अब युद्ध अवश्य करूँगा।

बंधन और मोक्ष का, कारण मनहि बखान ।
 याते कौनिउ भक्ति करु, करु मन ते हरिध्यान ।। १९ ॥
( भक्ति शतक)

भावार्थ- बंधन और मोक्ष का कारण केवल मन ही है। अतः कोई भी भक्ति की जाय, मन से ध्यान अवश्य हो ।

व्याख्या प्रत्येक कर्म का कर्ता मन ही माना गया है। यह - मन भी आत्मा की भाँति अनादि है। सदा साथ रहता है। वेद

कहता है - यथा-

एष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो 
वान्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्कामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति ॥
(बृहदा. उप. ४.४.२)

अर्थात् मृत्यु के बाद यह इन्द्रिय मन बुद्धि (सूक्ष्म) सदा साथ जाते हैं। जिन जिनके साथ जाता है, उन्हीं उन्हीं के साथ पुनः जन्म लेता है। सभी पूर्व संस्कार मन में ही रहते हैं। सारा खेल मन का है। यदि वह मायिक जगत् में आसक्त हुआ तो कर्मबंधन। यदि वह ईश्वरीय जगत् में अनुरक्त हुआ तो मुक्ति एवं प्रेमानन्द प्राप्ति । इन्द्रियाँ तो स्वयं कुछ कर भी नहीं सकतीं। बिना इन्द्रियों के ही मन स्वप्न में इन्द्रियों का कर्म कर लेता है किंतु बिना मन के कोई इन्द्रिय कुछ नहीं कर सकती। भक्ति अनन्त प्रकार की हो सकती है। किंतु प्रमुख नवधा भक्ति ही मानी गई है। उसमें भी प्रमुख स्मरण युक्त कीर्तन है। अतः मन से ही भक्ति करने पर ध्यान देना है। साथ में इन्द्रियाँ भी रहें। किंतु केवल इन्द्रियों की भक्ति भक्ति नहीं है। पीछे बता चुके हैं कि इन्द्रिय मात्र के कर्म को भगवान् कर्म ही नहीं मानते। :- श्री कृपालु महाप्रभु जी ।।
:- श्री कृपालु महाप्रभु जी ।

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