ईश्वर भक्ति के बिना केवल कर्म से मुक्ति सर्वथा असंभव है ।
श्री महाराज जी के श्री मुख से :-
ईश्वर भक्ति के बिना केवल कर्म से मुक्ति सर्वथा असंभव है ।
तुलसी के शब्दों में-
वारि मथे बरु होय घृत, सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ॥
अर्थात् असम्भव भी सम्भव हो जाय, किन्तु बिना ईश्वर-भक्ति के मुक्ति नहीं हो सकती। पुनः रामायण कहती है -
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।
रहि न सकई हरि भगति बिहाई ॥
वास्तव में माया के तीन गुण हैं- सात्त्विक, राजस एवं तामस। उन्हीं गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्म भी होते हैं- सात्त्विक, राजस और तामस कर्म । उन्हीं कर्मों के अनुसार फल भी होते हैं - सात्त्विक फल, राजस फल एवं तामस फल। उन्हीं फलों के अनुसार लोक भी प्राप्त होते हैं - सात्त्विक लोक अर्थात् स्वर्गादिक लोक, राजस लोक अर्थात् मृत्युलोक एवं तामस लोक अर्थात् नरकादि लोक।
इस प्रकार धर्मादि पुण्यकर्म सात्त्विक गुण माया का ही है, अतएव तत्सम्बन्धी लोक भी मायिक ही हैं, अतः तत्सम्बन्धी परिणाम भी मायिक ही हैं। अतएव त्रिगुण के किसी भी कर्म से कर्म ग्रन्थियों का अत्यन्ताभाव नहीं हो सकता। गुणातीत एक मात्र ईश्वर ही है, अतएव यदि कर्म में ईश्वर भक्ति का संयोग न होगा तो वह सात्त्विक हो या राजस हो या तामस किन्तु मायिक होने के कारण सदोष एवं दुःखमय ही होगा। अतएव कर्मयोग में केवल इतना ही समझना है कि मन ईश्वर में नित्य लगा रहे एवं कर्म-धर्म का पालन शरीर से होता रहे। इसमें दो विरोधी बातें हैं।
कर्म करते समय यदि ईश्वर में मन लगा रहेगा तो कर्म कैसे होंगे ? क्योंकि इन्द्रियाँ सोचने या निश्चय करने का कार्य नहीं कर सकतीं। यदि मन का संयोग न होगा तो इन्द्रियाँ होते हुए भी न होने के ही बराबर हैं। यह क्रियात्मक रूप से कैसे होगा ? यह गम्भीररूपेण विचारणीय है। इसका विस्तृत वर्णन अगले अध्याय में किया गया है। अभी इतना ही समझ लीजिये कि 'मन यार में तन कार में' बस यही कर्मयोग है। यदि मन का लगाव ईश्वर से पृथक् कहीं हुआ तो आप कर्मयोग नहीं कर सकते। कर्मयोग तो तभी सम्भव है जब मन नित्य ईश्वर में रहे, एक क्षण के लिए भी पृथक् न हो।
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