"स्पिरिचुअल धर्म और शारीरिक धर्म ।"

श्री कृपालु महाप्रभु जी का दिव्य वाणी :- "स्पिरिचुअल धर्म और शारीरिक धर्म ।"
माँ की भक्ति करो, बाप की भक्ति करो, ये जितने धर्म हैं ये फिजिकल धर्म कहलाते हैं, अपर धर्म कहलाते है, मायिक धर्म कहलाते हैं, आगन्तुक धर्म कहलाते हैं, शरीर सम्बन्धी। ये माँ, बाप, बेटा, बेटी, जितने भी हैं ये तो शरीर के हैं न, बदलते रहते हैं हरेक जन्मों में । तो इनकी जो भक्ति करता है, श्रुति कहती है, वेद कहता है इनके लिये कि -

मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । आचार्य देवो भव ॥
(तैत्तिरीय. उप. १.११)

माता, पिता, गुरु की भक्ति करो उनकी आज्ञा मानो। ये उसके लिये है जो भगवान् की भक्ति नहीं करते तो कम से कम इनकी भक्ति तो करो ताकि स्वर्ग तो मिले। लेकिन जो तत्वज्ञ हैं और वो माया से मुक्ति चाहते हैं, दिव्यानन्द चाहते हैं। उनको तो मेरी "हीं "भक्ति करनी पड़ेगी, और केवल मेरी "ही" ऐसा नहीं की माता पिता का भी भक्ति करो और मेरी भी करो , ऐसा भी नहीं कि तुम अन्य देवी देवताओं की भी भक्ति करो और मेरी भी करो , । केवल मेरी 'हीं' भक्ति करना पड़ेगा अर्जुन । अर्जुन से कहा समझे? उसने कहा हाँ हाँ, समझ गये।

 नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। 
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ (गीता १८.७३)
अब समझ में आया कि ये कानून है कि जो भगवान् की शरण में हो जाते हैं सेन्ट परसेन्ट, उनको धर्म छोड़ने का पाप नहीं लगता और जो भगवान् की शरण में नहीं होते उनको धर्म छोड़ने का पाप लगता है, बस सीधा-सा लॉ है। यही गीता है। करोड़ कल्प पढ़ो गीता को यहीं पहुँचोगे बुद्धि को शरणागत करना है, एक बात । बुद्धि कहो मन कहो दोनों एक ही चीज है। बुद्धि को शरणागत करना है। जैसे हमारे संसार में, आज हमारे भारत में ही देख लो नाइन्टी नाइन परसेन्ट कानून कुछ नहीं जानते कि क्या बलाय है। 

अरे बहुतों को तो ये भी नहीं मालूम है कि जनतंत्र माने क्या होते है ? ऐसे गाँव में हैं सब अँगूठा छाप । लेकिन गवर्नमेन्ट क्या आशा करती है, हमारे देश के हर डिपार्टमेन्ट के हर कानून का पालन हर एक को करना पड़ेगा। अरे साहब! मैं अँगूठा छाप, मैं क्या जानूँ कानून-फानून क्या है आपका। ये नहीं चलेगा, दण्ड भोगना पड़ेगा। यहाँ पर लिखा है वन वे ट्रेफिक है और तुम अपनी गाड़ी ले आये हो उलटी। अरे साहब! हमें मालूम नहीं है। मालूम क्यों नहीं है ?

 ऐसे ही भगवान् कहते हैं ये वेद मेरे लॉ हैं, कानून की किताब है वेद । उसके अनुसार तुम नहीं चलें। अरे, हम पढ़े-लिखे ही नहीं हैं। हम इसके जिम्मेदार नहीं है। क्यों नहीं पढ़ा ? दण्ड भोगना पड़ेगा। तो भगवान् ने कानून बनाया है कि जो केवल मेरी ही शरण में आयेंगे उनको ये शारीरिक धर्म छोड़ना पड़ेगा। सर्वधर्मान्परित्यज्य सारे धर्मों को छोड़ना पड़ेगा। अरे तभी तो अनन्य बनेगा। अनन्य माने क्या ? अन्य नहीं। अन्य माने क्या ? मायिक। एक भगवान् है और एक संसार है माया का, दो ही तो हैं हमारे अलावा। तो भगवान् में ही हमारी मन-बुद्धि का अटैचमेन्ट हो, उन्हीं की आज्ञा मानी जाय। बस इसी का नाम भगवान् की शरणागति। तो 'ही' लग गया वो महापुरुष हो गया भगवत्कृपा हो गई।

राम ने लेक्चर दिया लक्ष्मण को फिजिकल धर्म का कि पिता बूढ़े हैं, हमारा वियोग है और अगर तुम चले जाओगे राज्य छोड़ करके तो फिर प्रजा दुःखी होगी ये होगा, वो होगा, तुम यहीं रहो। तो लक्ष्मण ने कहा कि पिता! पिता कैसा ? अरे दशरथ जी । न न-

अहं तावन्महाराजे पितृत्वं नोपलक्षये। (वा.रामायण) 

मैं दशरथ जी को बाप नहीं मानता।

भ्राता भर्ता च बन्धुश्च पिता च मे राघवः ॥
(वा.रामायण अयोध्याकाण्ड ५८.३१)

मेरे तो राम पिता हैं। राम के मुँह पर बोल रहे हैं लक्ष्मण अरे! मैं तेरा भाई हूँ, मुझे बाप कहता है ? ऐसा नहीं कहा। डाँटा नहीं राम ने, मुस्करा दिये। बात तो ठीक है, जीवात्मा का बाप तो परमात्मा ही है। अब मैं क्या बोलूँ?

मोरे सबहिं एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी ॥

सारे रिश्ते मेरे राम तुमसे हैं। इसलिये तुम्हारा यह आर्डर नहीं मानूँगा, मैं तो साथ चलूँगा। पाप नहीं लगा, लेकर चले राम साथ में। हिम्मत नहीं पड़ी कहने की कि आज्ञापालन नहीं करता है तो भाग जा। ये स्पिरिचुअल धर्म है और वो मटीरियल धर्म है, शारीरिक धर्म है। इसको तो छोड़ना ही पड़ेगा तभी तो स्पिरिचुअल मैन बनोगे। जितने भी रिश्ते-नाते संसार में हैं सबसे मन को हटाना पड़ेगा।
:- श्री महाराज जी ( प्रवचन 1980 गीता भवन मुंबई)

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