मन बुद्धि चित्त अहंकार की शूद्धि होने पर गुरू इसे दिव्य बना देते हैं और भगवान श्री कृष्ण के प्रेम का दान करते हैं ।

एक नया साधक का प्रश्न है कि मनुष्य का मन बुद्धि चित्त अहंकार यानि साधन चातुष्ट्य माया के गुण तथा जाति का है तथा माया एवं आत्मा के तरह यह भी अनादि है और सदा जीवात्मा के साथ ही रहती है सूक्ष्म शरीर में और अनंत काल तक रहेगा , और आत्मा दिव्य है सदा से और भगवान श्री कृष्ण का अंश है तो जब साधन भक्ति के फलस्वरूप जीवात्मा सिद्धि हासिल कर लेता है यानि भगवद् प्राप्ति कर लेता है और जीवन के अंत में गोलोक गमन करता है तो जीवात्मा इन्हीं मायिक मन बुद्धि चित्त के साथ गोलोक कैसे गमन करता है जबकि यह सब माया का ही बना है ? स्पष्ट करें ! 

उत्तर :- इसका उत्तर बड़ा आसान है । श्री महाराज जी ने हमें बताया है कि जीव जब भगवान और गुरू कि साधना भक्ति करता है तो साधन भक्ति के पराकाष्ठा पर पहुंचते पहुंचते यह शूद्ध हो जाता है ।  

शूद्धि का मतलव क्या है ? तो शूद्धि का मतलव है अनंत जन्मों के पाप, पुण्य , अच्छे तथा बुरे सभी प्रकार के मायिक संस्कारो का भस्म हो जाना । इसी को शास्त्रीय भाषा में पंचकोष का भष्म हो जाना कहते हैं । पंचकोष मतलव जीव का अन्नमय कोष , मनोमय कोष, प्राणमय कोष , विज्ञानमय कोष तथा आनंदमय कोष । 
इनके भष्म होते ही जीव त्रिगुण यानि न केवल तमोगुण, रजोगुण यहां तक कि तीसरा गुण सतोगुण से भी जीवात्मा मुक्त होकर निर्गुण हो जाता है । 
पंचकोष के भस्म होते ही जीव त्रिविध तापों यानि आध्यात्मिकताप , भौतिकताप , तथा दैविक तीनों ताप से भी मुक्त हो जाता है । 
इसके साथ साथ एक और महत्वपूर्ण बात होती है , घटना घटती है जीव के साथ कि पंचकोष के भस्म होने के साथ साथ जीव के पंचक्लेश यथा अविद्या, अस्मिता, राग , द्वेष तथा अभिनिवेश ही न केवल समाप्त होते हैं वल्कि जीव का अंत:करण शूद्ध होने के साथ साथ स्वरूपावरी का माया एवं गुणावरी का माया यानि दोनों माया हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है । 
और इन सभी घटनाओं के घटते ही गुरू अपने स्वरूप शक्ति से जीव के उसी शूद्ध हुए अंत:करण को दिव्य बना कर उसमें भगवान के दिव्य प्रेम यानि राधातत्व रूपी प्रेम रस का दान कर देते हैं और जीवात्मा सदा के लिए भगवान तथा अपने गुरू की सिद्धा भक्ति प्राप्त कर लेता है । 
तो श्री महाराज जी द्वारा दिए गए तत्वज्ञान से यह सिद्ध होता है कि जीवात्मा का मन बुद्धि चित्त फिर मायिक नहीं रह जाता।

 भगवद् प्राप्ति के साथ , यह गुरू के कृपा से दिव्य बन जाता है । पंचकोष भष्म होते ही जीवात्मा का स्थूल शरीर के अंदर का सूक्ष्म शरीर भी भाव शरीर के रूप में दिव्य शरीर बन जाता है । जीव संसार से पूर्ण वैराग्य कि स्थिति में पहुंच जाता है इसका मतलव उसके सभी संसारिक कामनाएं समाप्त हो जाती है और स्वाभाविक है कि संसारिक कामनाएं जब समाप्त हो जाने का मतलव जीव का कारण शरीर भी समाप्त हो जाता है । जीव को दिव्य शरीर मिल जाता है, मन बुद्धि चित्त सभी दिव्य बन जाता है यह मायिक नहीं रहा जाता । जीव के आंतरिक स्वरूप में पुर्ण परिवर्तन हो जाता है । 

 सार यह कि भगवद् प्राप्ति होते ही जीवात्मा सभी प्रकार के मायिक शरीर एवं बंधनों से सदा के लिए मुक्त होकर सत् चित् आनंद कंद भगवान श्री कृष्ण और गुरू प्राप्त करके हमेशा के लिए आनंदमय हो जाता है । 
श्री राधे ।

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