कुछ जीव ईश्वर और गुरु की तरफ बड़ी तेजी से चलते हैं और कुछ जय हो-जय हो करते रहते हैं। क्या इसका कोई विशेष कारण है?

प्रश्न: कुछ जीव ईश्वर और गुरु की तरफ बड़ी तेजी से चलते हैं और कुछ जय हो-जय हो करते रहते हैं। क्या इसका कोई विशेष कारण है?

श्री महाराज जी द्वारा उत्तर :- हाँ, कारण है। एक कारण तो है प्रारब्ध, पूर्व जन्म के संस्कार। जिसने पूर्व जन्म में साधना विशेष की है उसकी रुचि भगवान् की ओर स्वाभाविक होती है, वो तेज चलता है और कुछ लोग गुरु के सिद्धान्त का मनन करते हैं - मानव देह नश्वर है, कल को रहे न रहे, अत: जल्दी से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहिये । इस सिद्धान्त को सुना तो सबने और माना सबने लेकिन एक व्यक्ति उस पर विशेष ध्यान देता है, हमें जल्दी करना चाहिये और एक व्यक्ति लापरवाही करता है, कर लेंगे, अभी क्या जल्दी है। इस कारण वह साधना में तेजी से आगे नहीं बढ़ता। ये दो कारण हैं।

अपने आप जो भगवान् में प्रवृत्ति होती है वो संस्कारजन्य होती है। थोड़ी सी कमी रह गई थी पूर्व जन्म में तो भगवान् ने उसका फल दे दिया। तो थोड़े से ही सत्संग से वो आगे बढ़ गया क्योंकि पहले की कमाई उसको मिल गई। जैसे हमारे बाप ने ९९ हजार रुपया बैंक में जमा किया फिर मर गये, तो हमने उसमें केवल एक हजार डाल दिया और हमारा बैंक में एक लाख रुपया हो गया और एक व्यक्ति के बाप ने खाली एक हजार डाला था बैंक में तो अब वो कमा-कमा कर कई साल में एक लाख पूरा करेगा। ये प्रारब्ध का मतलब है। हमने अगर पहले जन्म में अधिक कमाया है तो वो कमाई हमको मिल गई इसलिये हमारी रुचि एकदम भगवान् के प्रति तेज हो गई इसको संस्कार कहते हैं। और जिसके पूर्व जन्म के संस्कार बहुत अच्छे नहीं हैं, उसी स्तर के हिसाब से रुचि होती है भगवान् में। लेकिन इस साधक के भी कुछ तो संस्कार अच्छे हैं ही हैं वरना मनुष्य शरीर क्यों मिलता? फिर कोई गुरु क्यों मिलता? लेकिन एक का बहुत अच्छा संस्कार है, एक का उससे कम अच्छा है, एक का और कम अच्छा है तो अब साधना के द्वारा उसको आगे बढ़ाना, ये उसका काम है। महापुरुष तो सबके लिये चाहता है, सबके साथ परिश्रम करता है, सबको प्यार देना चाहता है। लेकिन, बर्तन सबका अलग-अलग ढंग का है इसलिये अलग-अलग क्लास का फल मिलता है सबको।

एक चल पड़ा सो चल पड़ा और एक चल पड़ा फिर लौटा, फिर चला फिर लौटा, फिर चला और एक अपनी जगह से हिला नहीं। प्लान बनाता रहता है- बात तो सब ठीक कहते हैं गुरु जी, लेकिन ऐसा है कि अभी समय नहीं आया। अभी जरा ये हो जाये, जरा ये हो जाये, जरा ये हो जाये फिर हम साधना ही करेंगे। ये गलत है। अरे! तुम जो प्लान बनाते हो दस साल का, दस मिनट का तो भरोसा नहीं है। इसी प्रकार उधार करते-करते अनन्त जन्म गँवा दिये। संसार का काम करो, ये कौन रोकता है। लेकिन साधना पर विशेष ध्यान दो, मन को संसार से हटाने का एवं भगवान् में लगाने का अभ्यास करो, संसार के काम करते हुये। काम करने में क्या है?

संसार का दुःख-सुख भयानक है, खतरनाक है। काम में सफलता मिली तो फूल गये और काम में नुकसान हो गया तो फीलिंग हो रही है। ये गलत बीमारी है। अच्छा फल मिल जाये तो भी ठीक, खराब फल मिले तो भी ठीक। समझ लो, हमारे पूर्व जन्म के कर्म खराब रहे होंगे। हमने पहले दान दिया होगा तो हमको पैसा अधिक मिल गया। पहले हमने दान नहीं दिया होगा तो हम गरीब हैं। ये तो हमारा दोष है, भगवान् क्या करे इसमें? उसको फील नहीं करना चाहिये, आगे का बनाना चाहिये। जो बीता सो बीता। अगर हम तुम लोगों को न मिले होते तो तुम लोग तो सौ रुपये दान न करते। ऐसे मक्कार हो। जब कोई भिखारी आता है भीख माँगने, तो सोचते हो सबसे छोटा सिक्का जो हो वो देना चाहिये। पाँच पैसा, दस पैसा, वो दे दिया उसने। एक दिन ऐसे मैं जा रहा था दिल्ली में, तो एक गरीब बुढ़िया, ऐसे हालत खराब, वो लाल बत्ती पर कार में हमारे पीछे पड़ गई तो हमारी जेब में पाँच सौ रुपया था, दे दिया। मेरी शकल देखने लगी, कहीं गलती से तो नहीं दे दिया क्योंकि उस बेचारी को किसी ने दिया न होगा कभी इतना रुपया।

'येन केन प्रकारेण'
शास्त्र कहता है, भले ही बेमनी से दान करो, करो तो, बाद में समझने लगोगे तो फिर मन से करोगे। जैसे छोटे बच्चों को पकड़ कर माँ-बाप गुरु जी के चरणों पर गिराते हैं। वो कहता है, क्यों ऐसे करते हैं ? जब बड़ा होता है तो समझ जाता है।

कोई भी काम पहले मन से, प्यार से नहीं होता, जबरदस्ती करना चाहिये। जैसे - कीर्तन होता है, आप आँख बन्द करें, रूपध्यान बनावें, ठीक से नहीं बनेगा पहले-पहल, लेकिन बार-बार आँख बन्द कीजिये, बनाइये, बार-बार बनाइये फिर बनने लगेगा। पहले नकली फिर असली। पहले बच्चे का हाथ पकड़ के मास्टर लिखाता है 'क' फिर अपने आप लिखने लगता है। पहले बच्चे से पूछता है तीन और चार कितना होता है ? इसके लिये गोली रखता है वो बच्चा। फिर और जरा बड़ा हुआ तो उँगली पर गिनता है और बड़ा हो गया तो सोते-सोते भी जवाब दे देता है। आप लोग कार में जब कार चलाते हैं तो कितनी मेहनत होती है। एक्सीलेटर पर भी ध्यान रखो, क्लच पर चलाते हैं, शुरू-शुरू रखो, स्टेयरिंग पर भी रखो, परेशान हो जाते हैं। लेकिन बाद में एक उँगली से भी गाड़ी चलाते हैं, बात भी कर रहे हैं और पीछे भी देख रहे हैं और मिठाई भी खाये जा रहे हैं । अभ्यास में बड़ी ताकत है। हर चीज अभ्यास से होती है। पिक्चर में, यहाँ कभी-कभी टी.वी. में सर्कस दिखाते हैं, वो लड़कियाँ कैसे जम्प करती हैं, कैसे झूला झूलती हैं, देखने वाला कहता है, कमाल है! अभ्यास करते-करते ऐसा कर लिया तो हम ताज्जुब करते हैं। सब चीज अभ्यास से होती है । 
:- श्री महाराज जी ।

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।