पंचम पुरुषार्थ - भक्ति
श्री कृपालु जी महाप्रभु जी की दिव्य वाणी :- भगवान् राम ने एक बार लेक्चर दिया, अयोध्या में। उन्होंने कहा भई सुन लीजिये आप लोग- "सुनहु करहु जो तुम्हहिं सोहाई।" क्योंकि तुम लोगों ने तो एक सिद्धान्त बना रखा है कि "सुनो सबकी करो मन की।" अजी कितने बाबा यहाँ आये हैं, कितने जगद्गुरु आये, कितने महामंडलेश्वर
आये । कितनों को सुनकर पास कर दिया सबको। जाओ। हाँ। हम लोग जहाँ के तहाँ खड़े हैं, कोई चेन्ज नहीं। और संसार में आसक्ति बढ़ती जा रही है, जितना गीता ज्ञान होता जा रहा है। लेकिन निराश नहीं होना है -
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥ (वाल्मीकि रामायण)
अगर कोई उत्साह रहित हो जाय, निराश हो जाय तो अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता। एक छोटा-सा बच्चा चलना सीखता है तो कितने घंटे परिश्रम करता है। हजारों बार गिरता है, रोता है लेकिन बिना किसी के सिखाये पढ़ाये ही वो अपने मन में सकंल्प किए बैठा है मैं चल कर दिखा दूँगा। क्या किसी माँ ने और बाप ने उसको लेक्चर देकर समझाया है बेटा, चलना परमावश्यक है। उससे रहा ही नहीं जाता। बार-बार गिर कर वो चलना सीखता है और फिर आप लोग चल ही रहे हैं, देख ही रहे हैं कहाँ पहुँच गये। और ये भी आप लोग ध्यान रखें कि इस ज्ञान प्राप्ति के लिये या उस परमानन्द की प्राप्ति के लिये या ईश्वरप्राप्ति के लिये उधार करना ही सबसे बड़ी भूल है। अगर आप लोग ये कहें कि हम लोग जानते हैं गीता में क्या लिखा है। ठीक है। तो आपने किया वह ? नहीं जी हमने तो यह किया- जैसे गीता में लिखा है न - धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे......ऐसे हमने पाठ किया। पाठ किया ? अरे भई, गीता में तो अर्जुन को भगवान् ने बताया है कि तुम ये करो। और तुमने भी यही कह दिया- मामेकं शरणं व्रज । तुम किससे कह रहे हो मामेकं शरणं व्रज। भगवान् तो अर्जुन से कह रहे हैं तू मेरी शरण में आ जा और तुम जो गीता का पाठ कर रहे हो कि मामेकं शरणं व्रज तुम किससे कह रहे हो ? तुम्हारा शिष्य कौन है ? अजी मैं तो शब्दों को पढ़ा करता हूँ। मेरे गुरु जी ने यही बताया है कि गीता पाठ किया करो, गीता को रट लो और उसको बोला करो। हूँ। प्रैक्टिकल नहीं हुआ। उधार किया। वो ऐसा है महाराज जी कि अभी जरा गड़बड़ चल रहा है अपने गृहस्थ में। वो जरा बेटी का ब्याह कर दें, बेटे का ब्याह कर दें, जरा वो भी धंधे से लग जाये, वो भी हो जाये फिर तो बस ये ही करूँगा।
आपको पता है अनन्त जन्म बीत चुके हैं आपके। भगवान् आपसे सीनियर नहीं है। आप भी अनादि भगवान् भी अनादि । अनन्त जन्म बीत चुके। क्यों ? इसी उधार में न श्वः श्व उपासीत को हि पुरुषस्य श्वो वेद। (वेद)
वेद कह रहा है कि श्वः श्वः मत करो। कल करूँगा, कल करूँगा ये मत सोचो कल तुम्हें मिले या न मिले। को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालोभविष्यति। (महाभारत) कौन जानता है कल हमको मिले न मिले। बड़े-बड़े प्लान बनाने वाले इन्द्रादिक नहीं रह सके, जहाँ आप सुनते हैं कि अमृत है। इन्द्र के यहाँ अमृत है और बिचारे की समाप्ति होती है। 43 लाख 20 हजार वर्ष का चार युग। 71 बार चार युग बीत जायें तो एक मन्वन्तर। 14 मन्वन्तर बीत जायें तो ब्रह्मा का एक दिन, उतनी बड़ी रात। उसे कल्प कहते हैं। उस दिन रात के हिसाब से ब्रह्मा की उमर सौ वर्ष । खतम। वह भी खतम । यह विश्व तो नश्वर है। चाहे स्वर्ग हो, चाहे मृत्युलोक हो, चाहे नरक लोक हो। कोई हो। उधार न करो। तुरन्त करो।
यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा, यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्, प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥
(भर्तृहरि-वैराग्यशतकम् ७५ )
हमारे आप्त महापुरुष कहते हैं जब तक यह शरीर स्वस्थ है, कुछ कर लो। अगर इस शरीर में कोई बीमारी लग गई तो फिर ईश्वर चिन्तन करने बैठोगे तो बीमारी का चिन्तन होगा, ईश्वर का नहीं होगा। तुम सोचते हो बुढ़ापे में ईश्वर का खाता हमने छोड़ रखा है, जब संसार से बेकार हो जायेंगे, संसार वाले नहीं पूछेंगे, सब अपमानित करेंगे, तब भगवान् का भजन कर लेंगे। बुढ़ापे में भजन नहीं हुआ करता धोखा है आपको। तुरन्त करो घर में आग लगी है अब आप कुँआ खोदने जा रहे हैं। अरे कुँआ खोदना तो दूर रहा, चार फुट की गहराई में भी न पहुँचोगे और सारा घर भस्म हो जायगा। सावधान हो। तुरन्त करो। जल्दी करो
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। (कठोपनिषद् १.३.१४)
वेद कहता है । उठो जागो , महापुरुषों की शरण में जाकर ज्ञान प्राप्त करो । जल्दी करो ।
पाठक महानुभाव!
हमारा यह ' तत्त्वदर्शन' समस्त शास्त्रों वेदों, पुराणों आदि से संबद्ध है। प्रायः हमारे शास्त्रों में पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को ही लक्ष्य बनाकर सिद्धांत लिखे गये हैं। किंतु मैंने प्रमुख रूप से पंचम पुरुषार्थ श्री राधाकृष्ण प्रेम को ही लक्ष्य बना कर सब रचनायें लिखी हैं। अर्थात् यद्यपि श्रीकृष्ण से पुरुषार्थ चतुष्टय तो प्राप्त होता ही हैं, किंतु दिव्य प्रेम प्राप्ति का लक्ष्य सर्वोपरि है।
प्रायः सभी जगद्गुरुओं ने संस्कृत भाषा में ही भाष्यों द्वारा अपना मत व्यक्त किया है, किंतु मैंने वर्तमान विश्व की स्थिति के अनुसार हिंदी, ब्रजभाषा आदि मिश्रित भाषाओं में ही अपना मत प्रकट किया है ताकि जन साधारण को विशेष लाभ हो।
प्राचीन आचार्यों ने तो अधिकारियों को ही दीक्षा दी है, किंतु पश्चात् विरूप होकर सभी को दीक्षा आदि दी जाने लगी। मैंने एक को भी दीक्षा नहीं दी। मेरे मत में आनंद प्राप्ति का ही सब का स्वाभाविक लक्ष्य है। और आनंद एवं श्रीकृष्ण भगवान् पर्यायवाची हैं, अतः सब श्रीकृष्ण संप्रदाय के ही हैं। दूसरा संप्रदाय माया का है किंतु उसे अज्ञानवश लोग चाहते हैं।
मेरे साहित्य से यदि किसी को भी लाभ होगा तो मेरा सौभाग्य होगा। यदि किसी को कष्ट होगा तो वे क्षमा करेंगे।
धन्यवाद।
:-आपका जगद्गुरु कृपालु। ( प्रवचन स्थल :- गीता भवन मुंबई 17-9-1980) पुस्तक :- भगवद् गीता ज्ञान -1 तत्वदर्शन ।।
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