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Showing posts from August, 2023

संसार में जीवों के सुख दुख का दाता कौन ? कारण क्या ?

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संसार में जीवों के सुख दुख का दाता कौन ? कारण क्या ?   उत्तर :- संसार में प्रायः लोग भगवान को दोष देते हैं कि भगवान ही हमारे सुख तथा दुख का कारण है , भगवान ही हमें दुख देते हैं इसलिए हम दुखी हैं !  यह सबसे बड़ी अज्ञानता है । भला भगवान क्यों किसी को  सुख या दुख देंगे ? भगवान तो सत् चित् तथा आनंद है , उनके पास दुख कहां जो किसी को वो दुख देंगे ? जिसके पास जो रहता है वहीं तो वो देता है । तो भगवान तो आनंद ही आनंद है। वो सदा आनंदमय है और उनकी शरणागति करने वालों को भी वो आनंदमय बना देते हैं सदा के लिए ।  अरे दुख तो जीव को उससे मिलता है जिसके शरण में जीव है , जिसके अधीन जीव है । जीव चूंकि माया के आधीन है सदा से , जीव माया के शरण में है सदा से , जीव माया का नौकर है, माया का दास है, गुलाम हैं इसलिए उसे मायिक अथवा संसारिक सुख दुख माया से ही मिलता है । माया हीं दुख की जननी  है क्योंकि माया के पास भगवान वाला आनंद है हीं नहीं , उसके पास तो क्षणिक एवं अस्थाई सुख तथा आत्यंतिक दुख है ।  अब जीव चूंकि माया के शरणागत है , माया के आधीन है , माया का गुलाम हैं और उसी माया के...

संत दर्शन का लाभ

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संत दर्शन का लाभ:- मै यह श्री महाराज जी के कृपा से यह सुना और आपको सुना रहा हुं जो अक्छरस सत्य है. बड़ा प्रेरक है  "एक बार नारद जी भगवान कृष्ण से पुछा की " हे प्रभु सन्त दर्शऩ का लाभ कृपा करके वतलाए" भगवान ने कहा "हे नारद पास के गांव मे नाली में एक कीड़ा रहता है तुम उससे जाकर यह सवाल करो , वह तुम्हे संत दर्शन का लाभ वताएगा" अब नारद जी खुद एक ज्ञानी उनको यह वात प्रभु का वड़ा अजीव लगा की मुझे नाली का कीड़ा क्या वतलायगा फिर भी प्रभु का आदेश समझ कर वे उस कीड़े से मिले और संत दर्शन का लाभ पुछा. नाली का कीड़ा को बड़ा आश्चर्य हुआ की भगवान को मेरा भी भान है , वह विभोर हो गया और नारद जी को वड़ी विनम्रता के साथ उत्तर दिया की  " हे मुनी वर मै एक तुक्छ प्राणी आप को संत दर्शन का लाभ कैसे वतलाऊ , हा इतना वतला सकता हुं की सामने वाले पेड़ की डाली पर आज से ठीक तीन माह बाद एक चिड़ियां बैटेगी वह आपको संत दर्शन का लाभ अवश्य वतला देगी "  इतना कह कर वह कीड़ा अपना प्राण उसी छण छोड़ दिया. नारद जी अब तीन महीने इन्तजार के बाद उस पेड़ के पास गय,  वास्तव मे एक चिडियाँ वहा बैठी म...

कृपा का कानून

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" कृपा का कानून " मायाधीन होने के कारण जीव ईश्वरविमुख है , किन्तु सदा भगवान की कृपा चाहता है | उसके लिए कृपा का अर्थ सदा सुख मिलते रहना है | सांसारिक वस्तु , संबंध एवं स्थिति आदि यदि उसके अनुकूल है , तो उसी अनुकूलता को वह भगवान की कृपा समझने का भ्रम पाले रखता है | जैसे ही प्रतिकूलता से उसका सामना होता है , वह भगवान को निष्ठुर कहने में ज़रा भी नही झिझकता | भोला अज्ञ जीव सदा कृपालु भगवान को दोष देने का भयानक अपराध करता रहता है | परिणामत: उसका मन और भ्रमित , दुविधाग्रस्त और कमज़ोर होता जाता है | उसकी स्थिति उस विद्यार्थी की तरह हो जाती है , जो परीक्षा में स्वयं गलत उत्तर लिखने के कारण अनुत्तीर्ण होता है , किन्तु सारा दोष परीक्षक के मत्थे मढ़ देता है | जीव की इस स्थिति को लक्ष्य करके हमारे पंचम मुल जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने लिखा है -        " शरण कृपा के बीच गोविंद राधे |          झगड़ा पड़ा है बड़ा झगड़ा मिटा दे ||                 - राधा गोविंद गीत भाग -१ अपने उपर्युक्त पद में उन्होने भगवत्कृप...

पंचम पुरुषार्थ - भक्ति

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श्री कृपालु जी महाप्रभु जी की दिव्य वाणी :- भगवान् राम ने एक बार लेक्चर दिया, अयोध्या में। उन्होंने कहा भई सुन लीजिये आप लोग- "सुनहु करहु जो तुम्हहिं सोहाई।" क्योंकि तुम लोगों ने तो एक सिद्धान्त बना रखा है कि "सुनो सबकी करो मन की।" अजी कितने बाबा यहाँ आये हैं, कितने जगद्गुरु आये, कितने महामंडलेश्वर आये । कितनों को सुनकर पास कर दिया सबको। जाओ। हाँ। हम लोग जहाँ के तहाँ खड़े हैं, कोई चेन्ज नहीं। और संसार में आसक्ति बढ़ती जा रही है, जितना गीता ज्ञान होता जा रहा है। लेकिन निराश नहीं होना है - निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः । सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥ (वाल्मीकि रामायण) अगर कोई उत्साह रहित हो जाय, निराश हो जाय तो अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता। एक छोटा-सा बच्चा चलना सीखता है तो कितने घंटे परिश्रम करता है। हजारों बार गिरता है, रोता है लेकिन बिना किसी के सिखाये पढ़ाये ही वो अपने मन में सकंल्प किए बैठा है मैं चल कर दिखा दूँगा। क्या किसी माँ ने और बाप ने उसको लेक्चर देकर समझाया है बेटा, चलना परमावश्यक है। उससे रहा ही नहीं जाता। बार-बार गिर कर वो चलन...

"स्पिरिचुअल धर्म और शारीरिक धर्म ।"

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श्री कृपालु महाप्रभु जी का दिव्य वाणी :- "स्पिरिचुअल धर्म और शारीरिक धर्म ।" माँ की भक्ति करो, बाप की भक्ति करो, ये जितने धर्म हैं ये फिजिकल धर्म कहलाते हैं, अपर धर्म कहलाते है, मायिक धर्म कहलाते हैं, आगन्तुक धर्म कहलाते हैं, शरीर सम्बन्धी। ये माँ, बाप, बेटा, बेटी, जितने भी हैं ये तो शरीर के हैं न, बदलते रहते हैं हरेक जन्मों में । तो इनकी जो भक्ति करता है, श्रुति कहती है, वेद कहता है इनके लिये कि - मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । आचार्य देवो भव ॥ (तैत्तिरीय. उप. १.११) माता, पिता, गुरु की भक्ति करो उनकी आज्ञा मानो। ये उसके लिये है जो भगवान् की भक्ति नहीं करते तो कम से कम इनकी भक्ति तो करो ताकि स्वर्ग तो मिले। लेकिन जो तत्वज्ञ हैं और वो माया से मुक्ति चाहते हैं, दिव्यानन्द चाहते हैं। उनको तो मेरी "हीं "भक्ति करनी पड़ेगी, और केवल मेरी "ही" ऐसा नहीं की माता पिता का भी भक्ति करो और मेरी भी करो , ऐसा भी नहीं कि तुम अन्य देवी देवताओं की भी भक्ति करो और मेरी भी करो , । केवल मेरी 'हीं' भक्ति करना पड़ेगा अर्जुन । अर्जुन से कहा समझे? उसने कहा हाँ हाँ, समझ गये...

ईश्वर भक्ति के बिना केवल कर्म से मुक्ति सर्वथा असंभव है ।

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श्री महाराज जी के श्री मुख से :-  ईश्वर भक्ति के बिना केवल कर्म से मुक्ति सर्वथा असंभव है । तुलसी के शब्दों में- वारि मथे बरु होय घृत, सिकता ते बरु तेल ।  बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ॥ अर्थात् असम्भव भी सम्भव हो जाय, किन्तु बिना ईश्वर-भक्ति के मुक्ति नहीं हो सकती। पुनः रामायण कहती है - जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।  कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥  तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।  रहि न सकई हरि भगति बिहाई ॥  वास्तव में माया के तीन गुण हैं- सात्त्विक, राजस एवं तामस। उन्हीं गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्म भी होते हैं- सात्त्विक, राजस और तामस कर्म । उन्हीं कर्मों के अनुसार फल भी होते हैं - सात्त्विक फल, राजस फल एवं तामस फल। उन्हीं फलों के अनुसार लोक भी प्राप्त होते हैं - सात्त्विक लोक अर्थात् स्वर्गादिक लोक, राजस लोक अर्थात् मृत्युलोक एवं तामस लोक अर्थात् नरकादि लोक। इस प्रकार धर्मादि पुण्यकर्म सात्त्विक गुण माया का ही है, अतएव तत्सम्बन्धी लोक भी मायिक ही हैं, अतः तत्सम्बन्धी परिणाम भी मायिक ही हैं। अतएव त्रिगुण के किसी भी कर्म से कर्म ग्रन्थियों का अत्यन्त...

दुसरे कि बुराई करने का परिणाम।

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परदोष दर्शन और स्व गुण बखान के कारण साधक साधना करके भी अपने लक्ष्य से कोसों दूर ही बने रहते हैं । साधना का कोई फल उन्हें प्राप्त नहीं होता, उल्टा हानि होती है ।  स्वयं में आध्यात्मिक प्रगति न पाकर साधकों की निराशा बढ़ने लगती है । उससे कई तरह के अपराध होने लगते हैं । इतना ही नहीं , उसकी श्रद्धा हरि-गुरु के प्रति भी डगमगाने लगती है और उनके अपने मन में सर्वस्व हरि-गुरु के प्रति भी गलत विचार आने लगते हैं , जिसे शास्त्रों-वेदों में नामापराध कहा गया है । यह सबसे बड़ा पाप है । इसका कोई प्रायश्चित नहीं हैं । इससे तो पुन: गुरु ही उबार सकता हैं हम पर अहैतुकी कृपा करके ।  परदोष दर्शन से दो हानि होती है - एक तो वह दोष हमारे मन में आयगा , दूसरा इसके साथ हम में अहंकार भी आएगा । ' मन से ही तो दोष का चिन्तन करोगे न! तो वह मन में आएगा और मन को और गंदा करेगा । उसका दोष तो जाएगा नहीं , उल्टे तुम और दोषी हो जाओगे ।   किसी की गंदगी को अपने अंदर डाल लेने से तो तुम्हारा मन और गंदा हीं होगा । तो मन से यदि दूसरे का दोष देखेंगें तो हम सदोष हो जाएँगें ।  अनन्त जन्मों में अनन्त अपराध हमल...

मन बुद्धि चित्त अहंकार की शूद्धि होने पर गुरू इसे दिव्य बना देते हैं और भगवान श्री कृष्ण के प्रेम का दान करते हैं ।

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एक नया साधक का प्रश्न है कि मनुष्य का मन बुद्धि चित्त अहंकार यानि साधन चातुष्ट्य माया के गुण तथा जाति का है तथा माया एवं आत्मा के तरह यह भी अनादि है और सदा जीवात्मा के साथ ही रहती है सूक्ष्म शरीर में और अनंत काल तक रहेगा , और आत्मा दिव्य है सदा से और भगवान श्री कृष्ण का अंश है तो जब साधन भक्ति के फलस्वरूप जीवात्मा सिद्धि हासिल कर लेता है यानि भगवद् प्राप्ति कर लेता है और जीवन के अंत में गोलोक गमन करता है तो जीवात्मा इन्हीं मायिक मन बुद्धि चित्त के साथ गोलोक कैसे गमन करता है जबकि यह सब माया का ही बना है ? स्पष्ट करें !  उत्तर :- इसका उत्तर बड़ा आसान है । श्री महाराज जी ने हमें बताया है कि जीव जब भगवान और गुरू कि साधना भक्ति करता है तो साधन भक्ति के पराकाष्ठा पर पहुंचते पहुंचते यह शूद्ध हो जाता है ।   शूद्धि का मतलव क्या है ? तो शूद्धि का मतलव है अनंत जन्मों के पाप, पुण्य , अच्छे तथा बुरे सभी प्रकार के मायिक संस्कारो का भस्म हो जाना । इसी को शास्त्रीय भाषा में पंचकोष का भष्म हो जाना कहते हैं । पंचकोष मतलव जीव का अन्नमय कोष , मनोमय कोष, प्राणमय कोष , विज्ञानमय कोष तथा आनं...

अनन्यता किसे कहते हैं ?

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अन्य आश्रयों का त्याग - श्री कृपालु महाप्रभु जी का दुर्लभ प्रवचन ( 17-9-1980 मुंबई गीता भवन ) :-  अन्य आश्रयों का त्याग गोविन्द राधे ।  सोई कृष्ण भक्ति की अनन्यता बता दे ॥ ( भक्ति शतक ) अनन्यता क्या होती है ? ये समझना बहुत जरूरी है क्योंकि वेद से लेकर रामायण तक प्रत्येक ग्रन्थ में भगवान् की एक शर्त है कि मुझसे प्यार तो सब करते हैं लेकिन अनन्य प्रेम नहीं करते अनन्य प्रेम । अनन्य माने- न अन्य, अनन्य जैसे न एक-अनेक, न उचित-अनुचित, ऐसे ही न अन्य-अनन्य । इसको नय समास कहते हैं । अन्य में मन का अटैचमेन्ट न हो, ये भावार्थ। अन्य में। अन्य क्या होता है ? अर्थात् श्रीकृष्ण, उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम, उनके सन्त इतने को छोड़ कर जो बचा उसका नाम अन्य। अन्य में प्रमुख तीन हैं। तीन प्रकार के सुख छोड़ना पड़ेगा। सुखं वैषयिकं ब्राह्ममैश्वरं चेति तत्त्रिधा। (भक्ति रसामृत सिंधु १.१.३० ) तीन प्रकार के सुख होते हैं - एक सुख का नाम विषय सुख, एक सुख का नाम ब्रह्म सुख और एक सुख का नाम ईश्वरीय सुख। ये तीनों सुखों का त्याग करना होगा तब प्रेम सुख मिलेगा, सेवा सुख मिलेगा। श्यामसुन्दर ...

सृष्टि कौन करता है ?

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भगवान श्री कृष्ण स्वयं सृष्टि नहीं करते , वो सृष्टि करने का केवल संकल्प करते हैं , यानि सोंचते है केवल । उनके सोंचते हीं प्रकृति में हलचल होता है , क्योंकि वो अगर संकल्प नहीं करेंगे तो प्रकृति में हलचल नहीं होगी । तो उनके संकल्प करते हीं सबसे पहले उनका ही एक स्वरूप महाविष्णु का प्रकटीकरण होता है ब्रह्मांड में । महाविष्णु के प्रकट होते ही भगवान श्री कृष्ण के स्वरूप शक्ति से योगमाया शक्ति द्वारा उनसे ब्रह्यांड के अनंत आकाशगंगा , फिर आकाश गंगा में अनेकों सौरमंडल तथा उस अनेकों सौर मंडल में पृथ्वी का प्रकटीकरण होता है फिर अनंत पृथ्वी के लिए अनेक ब्रह्मा , अनेक विष्णु, अनेक शंकर आदि प्रकट होते हैं , फिर वो ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, श्री कृष्ण आगे का काम नहीं करते , यह सब काम अब उनके नित्य दास ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा योगमाया आदि शक्ति के द्वारा होता है । अत: ब्रह्मा कहते है :- 'न सृजामि तन्नियुक्तोय्हं तन्नियुक्त:' अर्थात उनका नियुक्त किया हुआ मैं सर्वेंट, ब्रह्मा कह रहा है मैं सृष्टि करता हूँ ।  और उनके द्वारा नियुक्त हुये शंकर ' हरो हरति तद्वश: तद्वश: ' वो श्रीकृष्ण...

प्रश्न :- क्या कर्म धर्म से पाप समाप्त हो जाते हैं ?

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श्री महाराज जी के श्री मुख से प्रश्न :- क्या कर्म धर्म से पाप समाप्त हो जाते हैं ? उत्तर :- एक स्वाभाविक प्रश्न यह भी होता है कि जब वेद कहताहै कि- धर्मेण पापमपनुदंति । अर्थात् धर्म से पाप नष्ट होता है, तो फिर क्या धर्म से मुक्ति नहीं हो सकती ? इसका उत्तर वेदव्यास ने बड़ा सुन्दर दिया है। उन्होंने कहा कि:-  धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ॥ (भागवत ११.१४.२२)  अर्थात् सत्य एवं दया से युक्त धर्म तथा तपश्चर्या से युक्त विद्या भी अन्त:करण की शुद्धि नहीं कर सकती। पुनश्च तैस्तान्यघानि पूयन्ते तपोदान जपादिभिः नाधर्मजं तद्धृदयं तदपीशाङ्घ्रिसेवया ॥ (भागवत ६.२.१७) अर्थात् दान, यज्ञ, तप व्रतादि वैदिक-धर्मों से पाप तो नष्ट होता है किन्तु अन्त:करण की शुद्धि नहीं हो सकती। आप लोग कहेंगे, जब पाप नष्ट होता है, तब अन्तःकरण की शुद्धि तो स्वयमेव हो ही जायगी। किन्तु ऐसा नहीं है। जैसे, आपने एक गोहत्या का पाप किया, अब उसके लिये लिखे हुए धर्मानुकूल प्रायश्चित्त भी किये, जिससे गोहत्या का पाप तो नष्ट हो गया किन्तु पाप करने की चित्तवृत्ति का नाश नहीं हुआ। ...

अंत:करण चातुष्ट्य यानि मन बुद्धि चित्त की शूद्धि और अहंकार का मिटना कैसे संभव है ?

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तुमको बर्तन साफ़ करना पड़ेगा। बर्तन साफ़?  क्या मतलब? अन्तःकरण शुद्धि, पहला काम।अन्तःकरण की शुद्धि अर्थात् ये जो डिसीज़न अनन्त जन्मों से हम करते आये हैं कि संसार में ही आनन्द है, ‘ही’। हमको नहीं मिला ये बात अलग है।   एक लाख में नहीं मिला, एक करोड़ में है,एक करोड़ में नहीं मिला, एक अरब में है। एक कांस्टेबल बनकर के नहीं मिला,सब इंस्पेक्टर को होता होगा, कोतवाल है वो...।अरे! नहीं, उसके भी ऊपर है वो एस॰पी॰ को होगा,आई॰जी॰ को होगाअरे! क्या कल्पना कर रहा है पागल,संसार मात्र में कहीं आनन्द नहीं है— आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। सब जगह एक हाल है,बल्कि जितना बड़ा आदमी संसार में आप लोग बोलते हैं न, उतना ही वो दुःखी है। तो सबसे पहले तुमको बर्तन साफ करना है और बर्तन साफ करने के लिए गुरू निर्दिष्ट साधना करनी होगी । बिना प्रैक्टिकल साधना के प्रैक्टिस के मन बुद्धि चित्त कि शूद्धि असंभव है और बिना शूद्धि के भगवान तथा गुरू को अपने ह्रदय में रियलाईज करना संभव नहीं । जानना अलग बात है लेकिन मानना , उनको हर पल अपने साथ रियलाईज करना कठिन है । अगर बिना साधना के यह संभव होता तो आज बहुत से लोगों...

सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान् । मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान ॥ ६५ ॥ - भक्तिशतक

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भक्ति शतक :-  सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान् ।  मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान ॥ ६५ ॥ भावार्थ - समस्त धर्मों का मूलाधार श्रीकृष्ण ही हैं। शेष सब शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्पादि के समान हैं। यदि मूल काट दिया जाय तो शेष सब ढह जायेंगे व्याख्या - भागवत में वेदव्यास ने कहा है कि - धर्ममूलं हि भगवान्सर्ववेदमयो हरिः । (भागवत ७.११.७)  अर्थात् जितने श्रेय तत्त्व कर्म, योग, ज्ञानादि वेदों ने बताये हैं वे सब श्रीकृष्ण के निमित्त ही हैं। यदि श्रीकृष्ण रहित कोई भी साधन होगा तो वह बंधन कारक ही होगा। अभिप्राय यह है कि श्रीकृष्ण भक्ति ही वृक्ष की जड़ है। यदि जड़ ही निकाल दी जायगी तो वृक्ष स्वयं ढह जायगा। वैसे ही कर्मयोग, ज्ञान सब श्रम मात्र ही होंगे। यथा - श्रेयः स्रुतिं भक्तिमुदस्य ते विभो क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।  तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते नान्यद्यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥ ( भागवत १०.१४.४) धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः ।  नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ (भागवत १.२.८)  सो सब धर्म कर्म जरि जावू । योग कुयोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम ...

कुछ जीव ईश्वर और गुरु की तरफ बड़ी तेजी से चलते हैं और कुछ जय हो-जय हो करते रहते हैं। क्या इसका कोई विशेष कारण है?

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प्रश्न: कुछ जीव ईश्वर और गुरु की तरफ बड़ी तेजी से चलते हैं और कुछ जय हो-जय हो करते रहते हैं। क्या इसका कोई विशेष कारण है? श्री महाराज जी द्वारा उत्तर :- हाँ, कारण है। एक कारण तो है प्रारब्ध, पूर्व जन्म के संस्कार। जिसने पूर्व जन्म में साधना विशेष की है उसकी रुचि भगवान् की ओर स्वाभाविक होती है, वो तेज चलता है और कुछ लोग गुरु के सिद्धान्त का मनन करते हैं - मानव देह नश्वर है, कल को रहे न रहे, अत: जल्दी से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहिये । इस सिद्धान्त को सुना तो सबने और माना सबने लेकिन एक व्यक्ति उस पर विशेष ध्यान देता है, हमें जल्दी करना चाहिये और एक व्यक्ति लापरवाही करता है, कर लेंगे, अभी क्या जल्दी है। इस कारण वह साधना में तेजी से आगे नहीं बढ़ता। ये दो कारण हैं। अपने आप जो भगवान् में प्रवृत्ति होती है वो संस्कारजन्य होती है। थोड़ी सी कमी रह गई थी पूर्व जन्म में तो भगवान् ने उसका फल दे दिया। तो थोड़े से ही सत्संग से वो आगे बढ़ गया क्योंकि पहले की कमाई उसको मिल गई। जैसे हमारे बाप ने ९९ हजार रुपया बैंक में जमा किया फिर मर गये, तो हमने उसमें केवल एक हजार डाल दिया और हमारा बैंक में एक...

तीन प्रकार की भगवत कृपा होती है ।

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🌼भगवत्कृपाएें मिल चुकी है , अब समय का सदुपयोग करो 🌼 तीन प्रकार की भगवत्कृपा होती है । एक कृपा , एक विशेष कृपा , एक अद्भुत कृपा , ये तीन कृपाऐं होती हैं , भगवान् की । किसी का पुण्य थोड़ा है, उसके ऊपर एक कृपा हुई । किसी का पुण्य विशेष अधिक है, तो दो कृपा हो गई और किसी का बहुत पुण्य है, तो तीन कृपा होती हैं । ये तीनों दुर्लभ हैं । बहुत दुर्लभ , हज़ारो में एक ऐसा नहीं , लाखों में एक ऐसा नहीं, करोड़ों में एक ऐसा नहीं, अरबों में एक ऐसा नहीं अनंत में एक । ये ऐसी कृपा है। पहली कृपा :- मानवदेह प्राप्त होना । ये मानवदेह सब देहों में श्रेष्ठ है । देवताओं के देह से भी श्रेष्ठ है । दूसरी कृपा :- महापुरुष का मिलना ये विशेष कृपा । जिसको भगवत्प्राप्ति हो गई हो , जो भगवत्प्राप्ति का सही मार्ग जानता हो , हमको बता सके ऐसा वास्तविक महापुरुष अगर किसी को मिल गया तो ये नंबर दो की कृपा हुई । तीसरी कृपा :- तीसरी चीज़ जो सबसे इम्पोर्टेन्ट है जिसको अद्भुत कृपा कहते है ,भूख कहते है , जिज्ञासा वो पाने की व्याकुलता । जो हमारे ऊपर नहीं हुई यह बहुत कम हुई । बार- बार सोचो, कितनी बड़ी भगवत्कृपा मेरे ऊपर है, अगर मृत्यु...

प्रश्न :- असली संत और महापुरुषों कि पहचान क्या है ? उत्तर :-

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प्रश्न :- असली संत और महापुरुषों कि पहचान क्या है ?  उत्तर :- असली संत , महापुरुष जीव का यानि अपने शरणागत शिष्यों की आसक्ति (Attachment ) को संसार से मिटा कर भगवान के साथ जोड़ने का लगातार प्रयास करते रहते हैं जिससे जीव का सभी मायिक कामनाएं , संसार संबंधित कामनाएं धीरे धीरे समाप्त हो जाए तथा ये भगवद् संबंधित कामनाओं में बदल जाए ।  क्योंकि संसारिक कामनाएं ( भौतिक कामनाएं ) ही जीवों के दुःखों का मूल कारण है । जब तक जीव संसारिक कामनाओं को त्याग कर निष्काम नहीं हो जाता है वो भगवान संबंधित निष्काम कामनाएं कभी बना हीं नहीं सकता ।  वो संसार को छोड़ कर भगवान की ओर चल हीं नहीं सकता और न उसकी चित्तवृत्ति कभी शुद्ध हो सकती है।  संसारिक कामनाओं के रहते हरि गुरू में उसकी आसक्ति, रूचि कभी बढ़ नहीं सकती है, असंभव ! जितनी मात्रा में जीवों कि संसारिक कामनाएं मिटेगी उतनी ही मात्रा में जीव का अटैचमेंट गुरू तथा भगवान से बढ़ेगा एवं उतनी ही मात्रा में वो भगवान कि ओर चलेगा , गुरू की शरणागति करेगा , सेवा करेगा , उतनी ही मात्रा में वो माया से उत्तीर्ण होगा और उतनी हीं मात्रा में हरिगुरू उस...

स्वतंत्रता क्या है ?

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*जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा स्वतंत्रता दिवस संदेश:-* *आज स्वतंत्रता दिवस है। वास्तव में कोई स्वतंत्र नहीं है। अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के आवागमन में घूमने वाले सभी जीव माया के आधीन हैं। वो माया के अन्तर्गत काल, कर्म, स्वभाव, गुण बहुत सी चीज़ें हैं, जिनके आधीन हैं। मनुष्य हो, पशु हो, पक्षी हो, कोई भी हो। और, हम लोगों में कुछ माया से परे भी होते हैं लेकिन वे भगवान् के आधीन हैं। मायाधीन को माया नचाती है और भगवान् के आधीन महापुरुषों को माया नहीं छू सकती लेकिन भगवान् के अनुसार चलना पड़ता है, वो भी आधीन हैं। और भगवान् भक्त के आधीन हैं-* *अहं भक्तपराधीनो* *अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतंत्र इव द्विज।* *साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥* भागवत, 9-4-63] *इसलिये न भगवान् स्वतंत्र हैं, न भगवान् को पा लेने वाले भक्त स्वतंत्र हैं और मायाधीन तो बिचारे परतंत्र हैं ही। हम लोगों का अनुभव है। लेकिन हम लोग बक-बक करने में टॉप करते हैं।अहंकार के कारण। हम किसी के आगे सिर नहीं झुकाते। हम किसी के आगे हाथ नहीं फ़ैलाते। एक-एक क्षण जो माया के आधीन है, वो ऐसी बक-बक क्यों करता है?* *आश्चर्य है! काम के आध...

कामनाओं कि उत्पत्ति तथा सुख और दुख ।

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संसार में वो जीव उतना हीं सुखी है जिसकी संसारिक कामना तथा भौतिक  अपेक्षाएं अपेक्षाकृत जितना कम हुआ है, संसार में एक कामना पुरी होने पर दुसरी कामनाएं उत्पन्न होती रहती है तथा न पुरी होने पर या तो क्रोध (Anger) या क्षोभ (Frustration) या शोक ( Regrets) यानि दुख (sorrows ) कि उत्पत्ति होती है तथा पुरी होने पर लोभ (Greed of next Level of aspectations or another desires) कि उत्पत्ति होती है ।  हम सभी मायाधीन जीव अपने कामनाओं के गुलाम हैं, मन के गुलाम हैं , इसलिए हमेशा से दुखी हैं, हम चुके मायाधीन है इसलिए सदा से परतंत्र है और तब तक परतंत्र रहेंगे जबतक हमारी सारी कामनाएं समाप्त होकर माया से सदा के लिए उत्तीर्ण होकर भगवान श्री कृष्ण को न प्राप्त कर लें ।  मनुष्य एक के बाद दुसरे कामनाओं के उत्पत्ति तथा उसकी पुर्ति के पीछे दिन-रात मृग की भांति भाग रहा है जो उसके दुख का सबसे बड़ा कारण है । जब तक जीव संसारिक, मायिक कामनाओं के पूर्ति के पीछे प्रयत्नशील रहेगा वो कभी सुखी हो ही नहीं सकता है, अतृप्त कामनाओं के रहते हुए कोई मनुष्य यह दावा कर हीं नहीं सकता कि वो सुखी है । अगर कोई यह कहता ह...

अर्थ अनर्थ बन जाता है जब मनुष्य सिर्फ़ धन कमाने के पीछे भागता रहता है ।

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तत्त्वज्ञान जब हो जाता है मनुष्य को तो वो इस चक्कर में नहीं पड़ता कि हम दान न करके कमाते ही जायँ, कमाते ही जायँ। देखो, जिस बच्चे को बाप कमाकर करोड़ों रुपया दे जाता है वो बच्चा ९९ प्रतिशत (नाइन्टी नाइन परसैन्ट) आवारा हो जाता है क्योंकि उसको तो मेहनत पड़ी नहीं, पका पकाया मिल गया। बड़े-बड़े सेठों के लड़के इतने आवारा, इतने गुण्डे कि उनके साथ तमाम गुण्डों का झुण्ड। कहीं मर्डर करा दें, कहीं कुछ करा दें क्योंकि पैसों का बल है। ये पैसा जो है - इतना अनर्थकारी है और इतना कल्याणकारी भी है, सही जगह में लगा दे तो। संसार में ही रहना है उसको। नहीं सही जगह में लगाओगे तो गलत जगह लगायेंगे तुम्हारे बच्चे। वो तो संसार में रहेगा, कहीं बाहर नहीं जायेगा। तुम चले जाओगे संसार से और दण्ड भोगना पड़ेगा। जिसको सत्संग नहीं मिलता और अपने परमार्थ की चिन्ता नहीं हैं वो लोग बस, जमा करने में लगे रहते हैं। कोई काम नहीं, कोई धाम नहीं, कोई मतलब नहीं। बच्चा भी पढ़ गया है, लड़की की भी शादी हो गई है। सब काम हो गया है। हाँ, ये है कि आवश्यकता यदि किसी को है कि हमारे लड़की है उसकी शादी करना है। हम सौ सौ रुपया हर महीना जमा करते ह...