प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।
निष्काम भक्तिमार्गी साधकों के लिए अति महत्त्वपूर्ण -
प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :-
१. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।
भक्ति का आधार है शरणागति , आत्मसमर्पण ।
शरणागति को प्रपतिमूला भक्ति में भी अत्यन्त महत्व दिया गया है। प्रपति का अर्थ है - अनन्य भक्ति जो सद्गुरू के अनुग्रह से ही संभव है। इसमें शरणागति के 6 अंग बतालाए गए हैं जो निम्नलिखित हैं :-
१.अनुकूलस्य संकल्प: : - हरि-गुरू के अनुकूल बने रहना । यानि प्रत्येक क्षण उनके इच्छा में हीं इच्छा रखना ।
२.प्रतिकुलस्य वर्जनम् : - हरि-गुरू के प्रति प्रतिकूल भावादि से स्वयं की रक्षा करना उनके दिए गय तत्त्वज्ञान के बल से , कुसंग से दुर रहना , ( बहिरंग और अंतरंग दोनों प्रकार के कुसंग से बचना, बहिरंग यानि विषई व्यक्ति से दुरी और अंतरंग यानि अपने मन में उठे गलत भाव को तुरंत समाप्त कर देना )।
३.रक्षिष्यतीति विश्वास: : - हरि-गुरू प्रत्येक क्षण हमारी रक्षा कर रहें हैं और करेंगे यह विश्वास पुर्ण रूप से दृढ़ हो ।
४.गोप्तृत्व वरणम् : - हरि-गुरू को रक्षक रूप में वरण करना । हरि गुरू हीं एक मात्र हमारे रक्षक हैं , हम वास्तव में निर्बल जीव है और वे हीं हमारे रक्षक हैं , हम जो भी शुभातिशुभ कर्म करतें हैं वो गुरू के बल द्वारा हीं करतें हैं । गुरू के उपदेशों व आदेशों को, बिना किन्तु परन्तु के अक्षरस: पालन करना शिष्य का परम कर्तव्य है । जब शिष्य गुरू से प्राप्त तत्त्वज्ञान ( शास्त्रज्ञान )एवं शास्त्रयुक्ति में यानि शास्त्रोंक्त ज्ञान को व्यवहार में लाता है, यानि साधना करके परिपक्व होता है तो शिष्य शास्त्रज्ञान और शास्त्रयुक्ति दोनों में निपुण हो जाता है । फिर कोई भी कुसंग उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता हैं । तभी वो गुरू के आदेश से उनके दिए गए तत्त्वज्ञान को जन जन तक पहुंचाने के काबिल होता है , प्रचार के काबिल होता है ।
५.आत्मनिक्षेप :- आत्मसमर्पण , यानि आत्मदान , तन-मन- प्राण से समर्पित । शिष्य अपना तन मन प्राण बुद्धि और आत्मा सबकुछ अपने गुरू को समर्पित कर देता है । तब जाकर पुर्णरूप से गुरू के शरणवरण हो जाता है। हरि गुरू के प्रति श्रद्धा और विश्वास प्रौढ़ हो जाने बाद ही श्रद्धा और विश्वास दृढ़ हो पाता है । और दृढ़ होने के बाद हीं सही सही असली समर्पण होता है ।
६. कार्पव्यम् :- दैन्य । भक्त सदा अपने को स्वभाविक तौर पे दीन मानता है , वो एक्टिंग में नहीं । । यानि -
(तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।
भावार्थ -स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, दीन मानकर , वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरे सभी साधकों , हरिजनों एवं गुरूजनों को सदैव मान देकर एवं छल कपट , संसारी प्रपंच से दुर रहकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए।।)
निश्कर्ष यह है कि हरि-गुरू के चरणों के प्रति अनुरक्ति और शरणागति एवं पुर्णसमर्पन ही भक्ति है। :- पुज्यनियां मां रासेश्वरी देवी जी के प्रवचन माला से ।
Radhe Radhe 🙏 very nice
ReplyDeleteGreat Prabhu ji
ReplyDelete