आध्यात्मिक इतिहास के मूल जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की विलक्षण दार्शनिकता

आध्यात्मिक इतिहास के मूल जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की विलक्षण दार्शनिकता :- 

संसार के बड़े - से - बड़े शास्त्रकारों ने धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष - इन चार पुरुषार्थों को ही जीव का लक्ष्य बताया है | उन्होंने इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अपने-अपने सिद्धान्त रखे हैं | किन्तु श्री कृपालु जी महाराज जी की तत्त्वज्ञता इन सबों से अद्वितीय है; भिन्न है | उनके अनुसार पुरुषार्थ चतुष्टय जीव को अंतिम लक्ष्य नहीं दे सकते क्योंकि जीव श्रीकृष्ण का नित्य दास है | उसके दासत्व की पूर्णता और प्रमाणिकता श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त कर उनकी सेवा करने में हैं | 
मोक्ष को उन्होंने दिव्य पुरुषार्थ माना है , किन्तु अंतिम नहीं | और शेष तीन मायिक पुरुषार्थ है :- धर्म , अर्थ , काम | 

जीव ईश्वर का अंश है | यह 'गीता ' ' रामायण ' द्वारा प्रमाणित है -

                         ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: | - गीता 
                         ईश्वर अंश जीव अविनाशी | - रामायण 

अत: जीव का सुख ईश्वर की प्रेममयी दासता करने में है , उन्हें प्राप्त करने में है | 

मन के भ्रम और बुद्धि के गलत निश्चय के कारण जीव अपनी इन्द्रियों का दास बना संसार के विविध रंग-रूप- वस्तु आदि में सुख ढूँढता हुआ भटक रहा है | 

श्री महाराज जी ने अपने प्रवचनों में शताधिक श्लोकों और वेद मन्त्रों के द्वारा हमें अत्यंत सरलतम रूप में यह समझाने का प्रयास किया है कि जीव का पंचम पुरुषार्थ श्रीराधाकृष्ण का दिव्य प्रेम प्राप्त करने के अलावा और कुछ नहीं है | यह जीव का अंतिम और सर्वोपरि लक्ष्य है |
वह आनंद स्वरुप ईश्वर का अंश है , अत: संसार का बडे-से-बड़ा भारी पदार्थ पाकर भी वह आनंदमय नहीं हो सकता , बल्कि नित्यानंद की प्राप्ति की चाह में भटकता रहता है | 

 जैसे पेड़ का पोषण उसकी जड़ में खाद-पानी डालने से ही होता है , इसके लिए अलग-अलग पत्तों को सींचने की ज़रुरत नहीं पड़ती है | उसी प्रकार श्रीकृष्ण की भक्ति करने से दिव्य प्रेम प्राप्ति का सर्वोपरि लक्ष्य तो प्राप्त होता ही है,, चारों पुरुषार्थ- धर्म , अर्थ , काम और मौक्ष भी सहजत: प्राप्त हो जाते हैं | और इसमें आश्चर्य भी क्या है ?

                               पूजनीया माँ रासेश्वरी देवी |

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