जगद्गुरुत्तम संदेश ( हमेशा याद रखें यह सिद्धान्त ) :-

जगद्गुरुत्तम संदेश ( हमेशा याद रखें यह सिद्धान्त ) :- 
* द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें | उदासीन रहे |
* आज कोई नास्तिक भी है तो कल उच्च साधक बन सकता है अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका | सूरदास संत उदाहरण हैं |
* गुरु की सेवा करने वाला तो साधक ही है, उसके प्रिय होने के कारण उससे द्वेष करना पाप है |
* सचमुच भी कोई अपराधी हो तो भी मन से भी उसके भूतपूर्व अपराधो को न सोचे , न वोले |
* संसार में भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी अपराधी हैं | 
बड़े बड़े साधकों का पतन एवं बड़े बड़े पापियों का भी उत्थान एक क्षण में हो सकता है |
* सब में श्री कृष्ण का निवास है अत: उनको ही महसुस करें | 
* मन को सदा श्री कृष्ण एवं उनके नाम , रुप , गुण , लीला , धाम, तथा उनके स्वजन में ही रखना है |
* अपने शरण्य ( हरि एवं गुरु ) को सदा अपने साथ रक्षक रुप में मानना है | 
* परदोष दर्शनादि कुसंगों से बचना है |
* दोष चिन्तन करते हुये शनै शनै बुध्दि भी दोषयुक्त हो जाती है |
* परदोष दर्शन ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है |
* हमारा निन्दक हमारा हितैषी है |
* निन्दनिय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके ह्रदय में भी तो श्री कृष्ण हैं |
* कम बोलो मिठा बोलो |
* निरर्थक बात न करो | काम की बात करो |
* प्रतिदिन सोते समय सोचो आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये |
* कम दोस्ती रखो | कम लोगों से मिलो | कम लोगों से बात करो |
* बहुत संभल के संयम के साथ वाणी का प्रयोग करो |
* किसी का अपमान न करो | कड़क न वोलो | किसी को दु:खी न करो |
* सबसे बड़ा पाप कहा गया दूसरे को दु:खी करना |
* सहनशीलता बढ़ाओ, नम्रता बढ़ाओ , दीनता बढ़ाओ |
* मौत को हर समय याद रखो | पता नहीं अगला क्षण मिले न मिले |
* सारे संसार मे सब स्वार्थी हैं, किसी के धोखे में मत आना | 
* मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है |
* संसार में कहीं राग भी न हो , द्वेष भी न हो , उसको वैराग्य कहते हैं | 
* भक्त के लिय भगवान् का प्राण समर्पित है |
* वह दास नही जो भगवान से कुछ माँगे | वह तो व्यापारी है | 
* दास माने क्या ? स्वामी की इच्छानुसार सेवा करे |
* सांसारिक कामना की पूर्ति के लिए कोई भी व्यक्ति झूठ बोलेगा , पाप करेगा , सब कुछ करता है |
* संसार की कामना के स्थान पर भगवान् की कामना बनाना है | बड़ी सीधी सी बात है उसी का नाम भक्ति है |
* संसार का वैभव पागल बना देता है | वो अकिंचन नहीं महसुस करता अपने आपको |
* भगवान् से प्रेम करना है तो संसार की कामना छोड़ना पड़ेगा | 
* यदि भगवान् को सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ समझकर यह सब उन्ही पर छोड़ दिया जाय , तो माँगने की बीमारी ही उत्पन्न न होगी |
* जिस दिन किसी जीव को यह दृढ़ विश्वास हो जाएगा कि भगवान् और भगवान् का नाम एक ही है, तो उसी क्षण उसे भगवत्प्राप्ति हो जाएगी |
* भगवत्प्राप्ति केवल भगवत्कृपा से ही संभव है , अन्य कर्म , ज्ञानादि किसी भी साधन से असम्भव है |
* भगवत्कृपा के हेतु अन्त:करण शुध्द करना होगा | 
यह कार्य वास्तविक गुरु की सहायता से ही होगा |
* सब कुछ देकर भी न सोचो कि मैने कुछ दिया क्योंकि कोई भी प्रदत्त मायिक वस्तु दिव्य सामान का मुल्य नहीं हो सकती |
* संत और भगवान् दया के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकते |
* अपनी बुध्दि को संत के बुध्दि में जोड़ दो | बस पूर्ण शरणागति यही है |
* संसार में न सुख है न दु:ख हैं , हमारी मान्यता से सुख या दु:ख मिलता है |
* संसारी कामना ही दुखों का मूल है , क्योंकि कामना पूर्ति पर लोभ एवं अपूर्ति पर क्रोध बढ़ता है |
* केवल कान फुकवा लेने मात्र से अथवा गुरुजी के पैर दवाने मात्र से , अथवा गुरु जी को संसारिक द्रव्य देने मात्र से , अथवा वाते वनाने मात्र से , शरणागति नहीं हो सकती |
* वास्तविक गुरु तत्त्वज्ञानी एवं भगवत्प्रेम प्राप्त होना चाहिए |
* मन से हरि गुरु में अनुराग करना एवं तन से संसार का कर्म करना ही कर्म योग है |
* भक्ति के अनेक भेद हैं किन्तु श्रवण , कीर्तन , एवं स्मरण तीन ही प्रमुख है |
* सर्व प्रमुख स्मरण भक्ति ही है |
                          : - तुम्हारा कृपालु

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।