भक्ति में बाधक हैं ये सारे दोष
श्री महाराज जी - संक्षेप में सुन लो , डिटेल नहीं करूंगा । दो प्रकार दोष होता है सबमें , एक होता है कपुयाचरण और दुसरा अध्यात्मिक तुष्टी ।
भक्ति में बाधक हैं ये सारे दोष -
कपुयाचरण तीन प्रकार का होता है ।
एक होता जिह्म भाव । :- ह्रदय में कपट हो और राधे राधे बोलते हैं , दुसरे में दोष देखने की बीमारी है , वो ऐसा है , वो ऐसा है , अरे महापुरूषों को भी नहीं छोड़ते , लोग अपनी उसी दोष बुद्धि से भगवान और महापुरूषों को भी देखतें हैं , विश्वास नहीं भगवान पर कि भगवान हमारे अंदर बैठे हैं , वो हमारे ह्रदय में वहीं पर वैठे हैं जहां पर हम है, तो यह जिह्म भाव हैं , केवल मुख से राधे-राधे , राम-राम, हरे राम हरे राम बोलतें हैं , वो माला लेकर जपतें जातें हैं, पर मन में तमाम संसार भरा परा है, दुसरे में दोष देखते रहतें हैं ।
दुसरा है अनिर्त भाव :- अपने दोष को छुपाना , और खुद को अच्छा कहलवाने का शौख रखना । खुद को भक्त दिखाने का नाटक करना , जोर-जोर से रोने का नाटक करना । । तो इसको अनिर्त भाव कहतें हैं , इसका कोई फल नहीं उल्टे अहंकार आया और नुकसान हो गया ।
और एक है माया भाव :- लोक रंजन की बीमारी, तो लोगों के बीच बैठें हैं और माला लेकर हरे राम हरे राम कर रहें हैं । लोगों से गाते फिरतें हैं , हम बड़े भक्त हैं , वो तिरथ-विरथ में जाकर फोटो खिचाकर चारों तरफ प्रचार करतें हैं, फिजिकल ड्रिल ! थोड़ा दान वान करके दिखाते हैं, गातें हैं सबसे ! हम बड़े दानी हैं । तीर्थ करके आए, लो और अहंकार आ गया । घर मे यज्ञ करतें हैं और अपना प्रचार करतें हैं , लो और अहंकार आ गया । दीनता चली गई , अहंकार आ गया । लोग हमको बड़ा भक्त समझे , प्रति दिन रामायण, गीता पाठ करतें हैं लेकिन सब इंद्रियों से केवल , ऐसा है।
तो ए तीनों प्रकार के दोष को कपुयाचरण कहते हैं ।
और अब अध्यात्मिक तुष्टी , तो यह चार प्रकार की होती है ।
पहला - भगवद् तुष्टी :-- भगवान चाहेंगें तो भक्ति करा लेंगें, भगवान का बुलावा आ जाएगा , चले जाऐंगें , बिना बुलावा के कोई वृंदावन , अयोध्या जा सका है क्या ! आदि, ऐसा बोलतें हैं लोग ! और फिर सारा मानव जीवन गवां देतें हैं और फिर चौरासी लाख में किट पतंग की योनी में जातें हैं ।
दुसरा शरणवरन तुष्टी - लोग मुख से वोलतें हैं केवल , त्वमेव माता ...च पिता ....... लेकिन हृदय में तमाम नाते रिश्तेदार ! भगवान से केवल मुख से बोलते हैं कि केवल तुम हीं मेरे माता पिता , भ्राता बंधु , सबकुछ तुम्हीं हो !
सब देवी ,देवता के आगे सिर झुकाते जातें हैं , तमाम तरह के बाबा लोगों को सुनतें रहतें हैं ।
भगवान और महापुरूषों के आगे बोलतें हैं , मैं आपकी शरण में हुं , लेकिन -मन हीं मन - आपकी सब आज्ञा नहीं मानूंगा , अपने पसंद के अनुसार मानुंगा जो मुझको ठीक लगे , अपने मन मुताबिक बस । शाब्दिक शरणागति कहतें है इसको , केवल वाणी से है लेकिन मन बुद्धि शरण में नहीं है । अपनी बुद्धि लगातें हैं । तो इसको कहतें हैं शरणवरन तूष्टी ।
अब काल तूष्टी :- समय आयेगा तो भक्ति करा लेगा । काल समय बड़ा बलवान होता है । अभी तो खाने पीने , मौज मस्ती का दिन हैं । समय आएगा तो भक्ति हो जाएगा ।इसको कहतें हैं काल तूष्टी ।
और एक होता है भाग्य तुष्टि :- अरे भाग्य में लिखा होगा तो भक्ति अपने आप हो जाएगी । भाग्य में नहीं होगा तो कैसे करेंगें । यह सब भाग्य से होता हैं । भगवान अकारण करूण हैं वो कृपा कर देंगें भाग्य में होगा तो , इसको कहतें हैं भाग्यतूष्टी ।
तो ये चार प्रकार के होते हैं दोष अध्यात्मिक तूष्टी का । ऐसे लोग अपना अनमोल मानव शरीर ऐसे हीं गवां देतें हैं और फिर चौरासी का चक्कर । :- श्री महाराज जी ।
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