भगवान की तीन शक्तियों में एक परा, दूसरा क्षेत्रज्ञ और तीसरी माया है ।

श्री महाराज जी :- भगवान की तीन शक्तियों में एक परा, दूसरा क्षेत्रज्ञ और तीसरी माया है । परा शक्ति को ही स्वरुप शक्ति कहते हैं । इसे योगमाया भी कहते हैं । भगवान की यह निज विशेष शक्ति है । जो असंभव को भी संभव कर सकती है । भगवत्प्राप्ति के बाद यह स्वरुप शक्ति सबको प्राप्त होती है । जिससे -

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु:
स श्रृणोत्यकर्ण:।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता
तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ।। (श्वेता. ३-१९)

एक इन्द्रिय से सब इन्द्रिय का विषय ग्रहण कर सकते है और वह एक इन्द्रिय नहीं है तो भी - 

बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु कर्म करइ विधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु जिह्वा वक्ता बड़ जोगी ।।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा ।
ग्रहइ 'घ्राण बिनु वास असेसा ।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी ।
महिमा जासु जाइ नहीं बरनी ।।

असंभव को संभव करने वाली - 
'कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ: '।

इसे कहते हैं समर्था शक्ति, स्वरुप शक्ति या पराशक्ति ।
दूसरी शक्ति है क्षेत्रज्ञ । इसी का नाम जीवशक्ति है । हम जीव पराशक्ति युक्त श्रीकृष्ण के अंश नहीं हैं क्योंकि हम मायाधीन हैं किन्तु जो पराशक्ति युक्त जीव होते हैं वहाँ तीसरी शक्ति माया जा नही सकती , जैसे भगवान के सामने जा नही सकती ।

माया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना । (भाग. २-७-४७)
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्य परं धीमहि । (भाग. १-१-१)
भागवत के आरम्भ में ही कह दिया गया है -
स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमाया गुणप्रवाहं भगवन्तमीमहि । (भाग. १०-३७-२३)
एक वार भगवत्प्राप्ति हो जाए, माया भाग जाए तो -
सदा पश्यन्ति सूरय: । तद्विष्णो: परमं पदम् । ( स्कन्दोपनिषद्-१४)

यानी सदा के लिए माया जाएगी । सदा के लिए स्वरुप शक्ति मिलेगी । पराशक्ति मिलेगी । कुछ जीव सदा से परा शक्ति युक्त श्रीकृष्ण के अंश कहलाते हैं । ये भगवान के परिकर हैं । 
दूसरे प्रकार के वे जीव हैं जो भगवान को प्राप्त कर लेते हैं , वे भी सदा को पराशक्ति से युक्त हो जाते हैं ।
लेकिन जो सदा से मायाधीन हैं , भगवत्प्राप्ति जिन्हें नहीं हुई है, वे पराशक्ति श्रीकृष्ण के अंश नहीं हैं । उनका माया शक्ति के अंश होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि माया जड़ है । 
अब एक शक्ति बची - जीव शक्ति । तो हम मायाबद्ध जीव इसी जीवशक्ति विशिष्ट के अंश हैं । न हम पराशक्ति के अंतर्गत हैं , न माया शक्ति के अंतर्गत हैं इसलिए कहा गया है -   अबहिरन्तरसंवरणम् ( भाग. १०-८७-२०)
यह तटस्थ कहलाता है । तो क्या हम भगवान से अलग रहते हैं ? नहीं -नहीं ! कोई भी शक्ति शक्तिमान से पृथक नही रह सकती । पुन: वेद कहता है -
' प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेश:' - श्वेता. ६-१६

वह अधीश है, स्वामी है । वह मायाधीश भी है और जीवाधीश भी है । दोनो का स्वामी है भगवान । :- श्री महाराज जी।

तो दोस्तों यह सिद्ध हुआ की हमारे महाराज जी जो स्वयं तत्व है , के पास ये स्वरुप शक्ति है हमेशा से जिसके फलस्वरुप वो हम सबको देख सुन रहे हैं प्रतिक्षण । हमारे मन में उठे संकल्पो को नोट कर रहे है । हमे संभाल भी रहे हैं , यह साबित हो गया । इसलिए हर पल सचेत होकर साधना करें हम सब , या कम से कम उनको प्रति पल श्रद्धा से याद करते रहें , यही साधना है , भक्ति है ,  यही हमारा काम है । और इन्ही  से हमारा काम बनेगा  राधे राधे

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