"जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज"...(जगद्गुरुत्तमई का परिचय)......ये कौन हैं?
"जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज"...(जगद्गुरु परिचय)......ये कौन हैं?
"भक्ति की अंतिम परिणति का नाम महाभाव और महाभाव का मूर्तिमान विग्रह हैं श्री राधा। श्री कृष्ण रसिक शिरोमणि हैं,सम्पूर्ण अलौकिक रसों की निधि हैं। भक्ति और रस दोनों का अपूर्व सम्मिश्रण हैं ये 'कृपालु'।"
बात 14 जनवरी 1957, की है। काशी के मूर्धन्य,शास्त्रज्ञ विद्वानों की सभा तथा उपस्थित विशाल जनसमूह,इनके मध्य एक तेजस्वी युवक उपस्थित हुए.....जिनकी आयु लगभग 34 वर्ष की होगी। उन्होने अपनी अलौकिक वाणी और प्रतिभा से सभी को मंत्र-मुग्ध कर दिया। गौर वर्ण,काले घुंघरारे बाल,बिजली के समान चमकता शरीर,प्रेम रस परिप्लुत सजल नेत्र,सभी का चित्त आकर्षित हो गया। सब कुछ भूल कर एकटक सब इनकी और देखते रह गये। कौन हैं ये? इनके रोम-रोम से प्रेम निर्झरित हो रहा है। इनको देखते रहो,देखते रहो,नेत्रों की तृप्ति नहीं होती बल्कि वे और अधिक प्यासे हो जाते हैं। उनके कठिन वैदिक संस्कृत में दिये गये 9 दिन के विलक्षण प्रवचन को सुनकर विद्वत समाज के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। सभी के मन में जिज्ञासा हुई,'ये कौन है?' इनके ज्ञान को देखकर लगता है यह कोई अवतारी महापुरुष हैं अथवा इन्होनें कायाकल्प किया हुआ है,क्योंकि इतना अधिक ज्ञान तो हजारों वर्षों के अध्ययन के पश्चात भी संभव नहीं हैं। और शास्त्रज्ञ ही नहीं,ये तो भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप प्रतीत होते हैं। सबके मानस पटल पर प्रश्नचिन्ह अंकित हो गया 'ये कौन हैं?'
ऐसा पहले कभी नहीं सुना,कभी नहीं देखा। सब एक दूसरे से पूछने लगे - क्या आप इनको जानते हैं? जिला प्रतापगढ़ से आए हनुमान प्रसाद महाबनी जी ने जो इन युवक के साथ आये थे,सबकी जिज्ञासा को शांत करते हुए बताया 'अधिक तो मैं भी इनके विषय में नहीं बता सकता,मुझे तो मालूम ही नहीं था कि इनके अंदर ज्ञान का अगाध समुद्र छिपा हुआ है। मेरे पास तो ये पिछले कुछ वर्षों से आते हैं,मैंने कल्पना भी नहीं की थी की ये वैदिक संस्कृत में पारंगत हैं। कब,कहाँ शास्त्रों वेदों का अध्ययन किया यह मेरे लिए भी प्रश्न बन गया है,कभी कोई शास्त्र वेद की पुस्तक इनको पढ़ते हुए नहीं देखा। रामायण,भागवत,गीता कुछ भी कभी इनके पास कभी नहीं देखा। ये तो अपने पास कोई सामान भी नहीं रखते हैं,यहाँ तक की पहनने के कपड़े तक भी साथ लेकर नहीं चलते,जिसके घर जाते हैं उसी के कपड़े पहन लेते हैं और अपने कपड़े वहाँ छोड़ देते हैं।
मैं तो यही समझता था कि यह संकीर्तन प्रेमी कोई रसिक हैं। मैंने कितनी बार इनको रोते,तड़पते,बिलखते देखा है। पूरी-पूरी रात ...हा कृष्ण! हा कृष्ण! कभी हा राधे! कहते हुए जमीन पर लोटने लगते हैं। श्यामा जू! राधे जू!!! कभी दीवारों का आलिंगन करने के लिए दौड़ते हैं,तो कभी वृक्षों से लिपट जाते हैं। नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती है, मानों नेत्र वर्षा ऋतु बन गए हों। शरीर की कोई सुधि-बुधि नहीं रहती,बेसुध हो जाते हैं।घंटों घंटों मूर्छित रहते हैं। थोड़ी सी चेतना आती है,पुन: फिर पृथ्वी पर लोटने लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है,इनको अहसाय वेदना हो रही है।
अश्रु ,स्वेद,रोमांच,कंप,विवर्णता,सभी सात्विक भाव इनके अंदर प्रकट हुए देखके तो मुझे अनेक बार लगा कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। आज समस्त शास्त्रों - वेदों के अलौकिक ज्ञान को देखकर मैं भी आश्चर्य चकित हूँ। मेरा तो इनके प्रति वात्सल्य भाव रहा है,जब इनहोने कहा कि मैं जगद्गुरु बनने जा रहा हूँ तो मैंने इनसे कहा,'जा जा शीशे में अपना मुह देख ले,कहीं ऐसा न हो मेरी नाक काटा दे'। लेकिन आज इनकी दिव्य वाणी को सुनकर काशी जो विश्व का गुरुकुल है,यहाँ के सभी विद्वान नतमस्तक हो गए हैं। मैं यही सोच रहा हूँ कि क्या ये वही युवक हैं जो मेरे पास रहकर संकीर्तन द्वारा प्रेम सुधारस का पान सभी भावुक भक्तों को कराते थे , या कोई और। मैं यही सोच रहा हूँ ये कौन हैं??????
ये कौन हैं?पश्चात समस्त विद्वानों ने एकमत होकर आपको "जगद्गुरूत्तम " की उपाधि से विभूषित किया।
उन्होने स्वीकार किया कि चारों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों का समन्वय करने वाला यह कोई अवतारी पुरुष ही है,इतनी अल्पायु में इतना अधिक ज्ञान साधारण प्रतिभा से असंभव है।
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अद्वैतवादी जगद्गुरु श्री शंकराचार्य,
लगभग आठवीं नवीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य,
12वीं शताब्दी में विशिष्टाद्वैतवादी जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य
एवं लगभग14वीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य हुए। सभी के सिद्धान्तों में थोड़ा-थोड़ा मतभेद रहा है,वह भले ही देश काल-परिस्थिति के कारण रहा है।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य का सिद्धान्त बिलकुल अलग है और तीनों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों से।
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज के श्रीमुख से सभी जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का वेद,शास्त्र सम्मत समन्वय सुनकर काशी के विद्वान विस्मय से अभिभूत हो नतमस्तक हो गये। अत: उन सबने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि श्री कृपालुजी जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम हैं।
श्री कृपालुजी महाराज भारत में सर्वाधिक उल्लसित प्रज्ञा से सम्पन्न हैं।
आपने उज्ज्वल भक्तियोगसम्पन्न 'भक्तियोग मण्डल' की स्थापना की है। धर्म के उद्धार की आपकी प्रबल भावना ,आपकी कीर्ति के साथ-साथ प्रतिदिन बढ़ रही है। आप धन्य हैं। आपको सर्वोत्तम जगद्गुरु की पदवी से विभूषित कियाजा रहा है।
समस्त शास्त्रों,वेदों,पुराणों तथा अन्य धर्म ग्रन्थों के असाधारण अलौकिक ज्ञान से युक्त कठिन संस्कृत में दिये गए वक्तव्य से तो सब नतमस्तक हो ही गये उनकी दिव्यातिदिव्य देह कांति से निर्झरित भक्ति पीयूष धारा ने सभी विद्वानों को यह स्वीकार करने के लिये बाध्य कर दिया कि ये 'भक्तियोग रसावतार' हैं।
उपस्थित विद्वत जनों ने ये अनुभव किया कि इनके रोम-रोम से भक्ति महादेवी का प्राकट्य हो रहा है।
ये स्वयं ही"रसो वै स: रसहयोवायम लब्धवाssनंदी भवति"। इस वेदवाणी का क्रियात्मक रूप हैं। ये रस और रसिकदोनों प्रतीत होते हैं।
ये कौन हैं?इनकी उपस्थिती ही अनुपम रस धारा प्रवाहित कर रही है,सबके हृदय में अपार उल्लास का संचार हो रहा है मानो राधाकृष्ण - भक्ति मूर्तिमान हो गयी है। भक्ति की अंतिम परिणति का नाम महाभाव और महाभाव का मूर्तिमान विग्रह हैं श्री राधा। श्री कृष्ण रसिक शिरोमणि हैं,सम्पूर्ण अलौकिक रसों की निधि हैं। भक्ति और रस दोनों का अपूर्व सम्मिश्रण हैं ये 'कृपालु'।
अत: राधाकृष्ण दोनों के ही सौन्दर्य रूपी अमृत के भंडार रसिकों के शिरोमणि ,प्रेम के साक्षात स्वरूप जगद्गुरु कृपालु जीवेदज्ञ,शास्त्रज्ञ तो हैं ही,ये भक्तियोगरसावतारभी हैं।
श्री राधाकृष्ण भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप हैं। इतना ही नहीं उन विद्वानों ने महाप्रभु के अनुभवात्मक दिव्य ज्ञान व भक्ति रस से ओत-प्रोत व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अन्य बहुत सी उपाधियाँ भी प्रदान की।
सन 1956 में कानपुर में आयोजित विराट संत सम्मेलन में उपस्थित काशी के प्रख्यात पंडित शास्त्रार्थ महाविद्यालय के संस्थापक शास्त्रार्थ महारथी सर्वमान्य एवं अग्रगण्य दार्शनिक काशी विद्वत परिषत के प्रधान आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षटशास्त्री ने सार्वजनिक रूप से काशी आने का निमंत्रण देकर जो घोषणा की थी उसका अंश इस प्रकार है।
1-(कानपुर 19 अक्टूबर1956) ........"काशी के पंडित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान स्वीकार नहीं करते। हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारते हैं। हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं। हम आज इस मंच से विशाल विद्वन्मंडल को यह बताना चाहते हैं कि हमने संताग्रगण्य श्री कृपालुजी महाराज की भगवतदत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहतेहैं कि आप भी उनको पहचानें,और इनसे लाभ उठाएँ।
आप लोगों के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसेदिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके बीच आए हैं। काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है। हमउसी काशी के निवासी यहाँ बैठे हुए हैं,कल श्री कृपालुजी महाराज के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नतमस्तक हो गये।
हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालुजी महाराज को समझें और इनके संपर्क में आकर इनके सरल,सरस,अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक रूप से उतार कर अपना कल्याण करें।"
ये कौन हैं ये तो वे ही जानें। जिनकी कृपा से निमिष मात्र में जीव को अपना परम चरम लक्ष्य प्राप्त हो जाये ऐसे महापुरुष के जीवन व दिव्य कार्यों का आकलन उन्हीं कि कक्षा का कोई महापुरुषही कर सकता है।
2- लेकिन इतना अवश्य है कि जब कोई संगीतज्ञ श्री महाराजजी के दर्शन करता है और उनकी स्वरलहरी का रसास्वादन करता है तो यही कहता है इनके जैसा कोई गा नहीं सकता। इनका स्वर कहाँ से प्रकट हो रहा है। इतनी मादकता एवं मधुरता है कि बेसुध सा कर देती है इनकी स्वर लहरी।
3- कोई कवि देखता है तो दाँतों तले अंगुली दबाता है कि ऐसी काव्य प्रतिभा तो हो ही नहीं सकती किसी मनुष्य की। एक ही भावको हजारों रूप से प्रकट करने की शक्ति किसी अलौकिक प्रतिभा द्वारा ही संभव है।
किसी भी छंद में कोई भी पद चल रहा हो,श्यामा-श्यामके नित्य नवायमान स्वरूप का रसास्वादन करते हुए उनके श्री मुख से जब संकीर्तन की नित्य नव-नव पंक्तियाँ प्रस्फुट्टित होती हैं तो पाषाण हृदय व्यक्ति भी रस में निमज्जित हो युगल प्रेम याचना करने लगता है।
4- उस वाणी का वास्तविक रसास्वादन तो कोई रसिक ही कर सकता है।
5- जब आचार्य श्री ,श्री राधा रानी का निरूपण करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि श्री श्याम गौर सरकार का रसास्वादन कर रहे हैं,जब वे श्री कृष्ण का निरूपण करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि गौर सरकार,श्याम सरकार की सुधा-माधुरी का पान कर रही हैं।
6- अत: इन्हें गौर श्याम सरकार का मिलितवपु कहा जाये या गौरांग कहा जाये कोई रसिक ही निर्णय ले सकता है।
7- विद्वत्ता के विषय में तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है,सम्पूर्ण विश्व जानता है कि आज उनके जैसा कोई विद्वान नहीं है,उनके विलक्षण दार्शनिक प्रवचन ही इस बात का प्रमाण हैं।
०० 'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य'
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। इन्होंने जो वेदमार्ग प्रतिष्ठापित किया है, वह सार्वभौमिक है। वैदिक सिद्धान्तों के सार को प्रकट करते हुये जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज भगवत्प्राप्ति के सर्वसुगम सर्वसाध्य मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इन्होंने वेदों, शास्त्रों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों में जो मतभेद सा है, उसका पूर्णरूपेण निराकरण करके बहुत ही सरल मार्ग की प्रतिष्ठापना की है, जो कलियुग में सभी जीवों के लिये ग्राह्य है।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार यद्यपि ईश्वरप्राप्ति के अन्य मार्ग भी हैं तथापि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ व सर्वसुलभ मार्ग है। आपकर अनुसार कलियुग में एकमात्र नाम-संकीर्तन की ही साधना निर्धारित की गई है। यदि यह भी मान लें कि कलियुग में अन्य साधनों से भगवत्प्राप्ति हो सकती है तब भी विचारणीय हो जाता है कि इतने अमूल्य, सरस एवं शीघ्र फल प्रदान करने वाली संकीर्तन साधना को छोड़कर क्लिष्ट अन्य साधनाओं में प्रवृत्त होने में बुद्धिमत्ता ही क्या है।
आपके मतानुसार तो स्वसुखवासना गन्धलेशशून्य श्रीकृष्ण सुखैक तात्पर्यमयी सेवा ही जीव का लक्ष्य है अर्थात अपने सेव्य के सुख के लिये ही उनकी नित्य निष्काम सेवा प्राप्त करना ही जीवमात्र का परम लक्ष्य है। जो रसिक महापुरुष की अनन्य शरणागति पर उनकी अहैतुकी अकारण करुणा से ही प्राप्त होगा।
०० जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया 'श्रुति-सारांश'
"...ब्रम्ह, जीव एवं माया तीनों ही सनातन हैं। एवं जीव तो ब्रम्ह की परा शक्ति है, चेतन है। माया तो ब्रम्ह की अपरा शक्ति है, जड़ है। दोनों शक्तियों का शासक ब्रम्ह है।
ब्रम्ह की चेतन शक्ति होने के कारण, जीव को ब्रम्ह का अंश कहा गया है। ब्रम्ह एवं आनंद पर्यायवाची हैं, अतः जीवशक्ति, आनंद का अंश हुआ। इसी से प्रत्येक आनंदांश जीव अपने अंशी आनंद श्रीकृष्ण को ही स्वभावतः चाहता है। साथ ही अनादिकाल से प्रतिक्षण आनंदप्राप्ति के हेतु ही प्रयत्नशील है। किंतु उपाय से अनभिज्ञ है।
आनंदकंद श्रीकृष्णचंद्र की प्राप्ति से ही वह दिव्यानंद प्राप्त होगा। वह श्रीकृष्ण प्राप्ति केवल भक्ति से ही होगी। भक्ति निष्काम होनी चाहिये तथा उसमें अनन्यता भी होनी चाहिये।
तदर्थ श्रीगुरु एवं राधाकृष्ण का रूपध्यान करते हुये रोकर उनका नाम गुणादि संकीर्तन करना चाहिये। इससे अन्तःकरण शुद्ध होगा। तब स्वरूप शक्ति से अन्तःकरण दिव्य बनेगा। तब गुरु द्वारा दिव्य प्रेम दान होगा। तब माया निवृत्ति एवं दिव्यानंद प्राप्ति होगी। (भवदीय, जगदगुरुः कृपालु:)..."
कलियुग के हम पामर जीव इन दिव्य वचनों से निश्चय ही आत्मकल्याण का अति सुगम मार्ग प्राप्त कर सकते हैं, जिस पर श्रद्धापूर्वक आरूढ़ होकर चलने से हम भी भगवान के दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश कर सकेंगे तथा अनादिकाल के दुःख-क्लेश आदि से निवृत्ति प्राप्त करेंगे।
...राधा गोविन्द समिति...
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