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Showing posts from 2016

हमारा देश भारतवर्ष , भगवान का अवतार , संतों का प्यारा भूभाग भारत

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हमारा देश भारतवर्ष , भगवान का अवतार , संतों का प्यारा भूभाग भारत :- आईये महाराज जी ने क्या कहा जब उनसे एक विदेशी ने पुछा की भगवान के ज्यादातर अवतार भारत में ही क्यूँ होते हैं ? ( कामना और उपासना भाग एक ) महराज जी की वाणी :- "भारतवर्ष का तो ये सौभाग्य है कि यहाँ सन्तों की भरमार रही है | जितने वर्षों का इतिहास आप लोग जानतें हैं उतनें ही वर्षों में देख लीजिये कितने अवतार , कितने सन्त , हमारे देश में हुए | एक विदेशी ने हमसे कहा कि साहब ये क्या बात है कि गॉड आप ही के यहाँ अवतार लेता है ? हम लोगों के यहाँ क्यों नहीं अवतार लेता ? ये सौभाग्य इण्डिया को हीं क्यों प्राप्त है? हमने उनको बड़े मज़ाक में उत्तर दिया | हमने कहा चूँकि ये दुर्भाग्य भी इण्डिया को प्राप्त है कि बड़े - बड़े राक्षस भी यहीं हुए | तो कोई भी चीज़ किसी कारण से होती है | अरे उत्तर तो हमको कुछ और देना चाहिए था | लेकिन हमने जानबूझ कर कुछ ऐसा उत्तर दिया | उत्तर तो यह है कि भई भगवान् तो वहीं अवतार लेगें जहाँ उनके जन होगें , उनके सन्त होंगें , उनकी इच्छा होगी कि वो अवतार लें | वहीं तो वे अवतार लेंगे | मेन कारण तो सन्त लोग है...

सुख और दु:ख

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**** संसारिक सुख और दु:ख**** आईये सुनते है महाराज जी ने क्या कहा :- सुख और दु:ख दोनों क्रियामाण कर्म के कारण भी होते हैं और प्रारब्ध से भी | जैसे एक को बीमारी हुई प्रारब्धबस और दुसरे को बीमारी हुई बदहजमी से | यह जानने के लिए कि बीमारी प्रारब्धजन्य है या क्रियामाण क्रमानुसार , हमें यह देखना है कि बीमारी दवा से ठीक होती है या नहीं | यदि क्रियामान कर्म के कारण बीमारी होगी , तो दवा से ठीक हो जाएगी | जबकि प्रारब्धजन्य बीमारी एक निश्चित अवधि तक ही झेलनी पड़ेगी | दवा का कोई असर नहीं होगा | " आज जो हम लोग बदल बदल कर कपड़े इस्तेमाल करतें हैं , बदल बदल कर खाना खाते हैं | ठाठ-बाठ ऐश्वर्य से रहतें हैं ये पिछले जन्मों में दान किया रहा होगा , उसका फल देते हैं भगवान् | और जो इतनी गरीबी में पल रहैं हैं , जिसकी माँ ने कूड़े में फेंक दिया था उसको | और बाद में बिचारा पेट भरने के लिए गुण्डा बना , सैंकड़ो मडर किए , चोरी किए | इतना सारा किसके लिए हुआ ? पेट के लिए | भगवान् ने एक ऐसी चीज बना दी है , सबके लिए , कुत्ता , बिल्ली , गधा-पेट | लेकिन साथ में बुद्धि भी दी है कि बेटा संसार के अनुसार चलो | कपड...

एक भगवान के ए सब नाम हैं |

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" हम न तो हिन्दु है , न तो मुस्लिम हैं , न इसाई हैं, न सिख्ख हैं, हम मनुष्य योनी में जनम लेने वाले सौभाग्यशाली जीव हैं और केवल इस मनुष्य योनी में भगवत्प्राप्ति की साधना संभव है" - युगल शरण जी ( कहो न क्या वात ह सेै ) जगदगुरु साधना शिविर.  " कोई भी मज़हब हो, कोई भी धर्म हो सबका धर्मी वस एक ही है, जिसे हिन्दु धर्म में 'ब्रह्य' परमात्मा ' भगवान आदि कहते हैं इस्लाम मे उसी को 'अल्लाह '  कहते हैं, फ़ारसी में खुदा कहते हैं ' 'लाओत्सी' धर्म वाले 'ताओ' कहते हैं,  बौद्ध लोग ' शुन्य' कहते हैं , जैन लोग 'निरंजन' कहते है , सिक्ख लोग ' सत श्री अकाल ' कहते हैं , और अंग्रेज लोग ' गौड' कहते हैं | उसी एक भगवान के ए सब नाम हैं | ये सब उसी एक के अपनी अपनी भाषाओं मे नाम हैं |  - जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ,

तेरा अहंकार है, जो मैनें नहीं दिया ।

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एक बार एक मेहमान किसी के घर गया। वह अंदर गया और मेहमान कक्ष मे बैठ गया। वह खाली हाथ आया था तो उसने सोचा कि कुछ उपहार देना अच्छा रहेगा। तो उसने वहा उसके घर में से टंगी एक पेन्टिंग उतारी और जब घर का मालिक आया, उसने पेन्टिंग देते हुए कहा, यह मै आपके लिए लाया हुँ। घर का मालिक, जिसे पता था कि यह मेरी चीज मुझे ही भेंट दे रहा है, सन्न रह गया !!!!! अब आप ही बताएं कि क्या वह भेंट पा कर, जो कि पहले से ही उसका है, उस आदमी को खुश होना चाहिए ?? मेरे ख्याल से नहीं.... लेकिन यही चीज हम भगवान के साथ भी करते है। हम उन्हे रूपया, पैसा चढाते है और हर चीज जो उनकी ही बनाई है, उन्हें भेंट करते हैं! लेकिन मन मे भाव रखते है कि ये चीज मै भगवान को दे रहा हूँ! और सोचते हैं कि ईश्वर खुश हो जाएगें। यह हमारी नादानी है ! हम यह नहीं समझते हैं कि उनको इन सब चीजो कि जरुरत नही। अगर हम सच मे उन्हे कुछ देना चाहते हैं तो हमें श्रद्धा के साथ, उन्हे अपने हर एक श्वास मे याद करना है , विश्वाश करना है हरि पर , गुरु पर , प्रभु जरुर खुश होगें !! किसी ने सच कहा है कि - अजब हैरान हूँ भगवन तुझे कैसे रिझाऊं मैं; कोई वस्तु नहीं ऐसी...

प्रभु श्रीराम का आदर- सत्कार कर शबरी हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी |

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महाराज जी के श्री मुख से शबरी प्रसंग :- प्रभु श्रीराम का आदर- सत्कार कर शबरी हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी | अपने प्रभु को देखा - उसका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया | वह कहने लगी | अधम ते अधम अधम अति नारी | तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी || तब श्रीराम जी बोले - हे भामिनि ! मैं तो केवल भक्ति का सम्बन्ध मानता हूँ | जाति , पाँति , कुल , धर्म , बड़ाई , धन-बल , कुटुम्ब , गुण एवं चतुराई - इन सबके होने पर भी भक्ति रहित मनुष्य जलहीन बादल सा लगता हैं | उन्होने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश किया | कहा- मेरी भक्ति नौ प्रकार की है - नवधा भक्ति कहहुँ तोहि पाहीं | सावधान सुनु धरु मन माहीं || प्रथम भक्ति संतन कर संगा | दूसरि रति मम कथा प्रसंगा || गुरुपदपंकज सेवा तीसरि भक्ति अमान | चौथि भक्ति मम गुन गन करइ कपट तजि ज्ञान || मंत्र जाप मम द्दढ़ विश्वासा | पंचम भजन सो वेद प्रकासा || छठ दम सील विरति कहु करमा | निरत निरन्तर सज्जन धरमा || सातवँ सम मोहि मय जग देखा | मोते संत अधिक कर लेखा || आठवँ जथा लाभ संतोषा | सपनेहुँ नही देखहिं परदोषा || नवम सरल सब सन छल हीना | मम भरोष हिय हरषन दीना || नव महँ एकहुँ जिन्...

गुढ़ दिव्य विषय पर मां का दुर्लभ प्रवचन

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हम साधकों के लिए अति महत्वपूर्ण , गुढ़ दिव्य विषय पर मां का दुर्लभ प्रवचन , मां का स्वनुभव , उनकी ही जुवानी में -राधा रानी की उपासना का महत्व :- आप सब साधक राधारानी से बहुत प्यार किजिये , बहुत प्यार किजिए उनसे | उनको अपने ह्रदय में धारण किजिये , क्योंकि उनको ह्रदय में धारण करने पर ही भीतर में सद्गुण आऐगें | क्योंकि सदगुणों की खान राधारानी ही हैं | स्वयं पीछे रहना , दुसरों को आगे करना राधारानी का गुण है | स्वयं सदा कहते रहना की कृष्ण ने तो मुझ अकिंचन को युँ हि अपना लिया है | मै तो उनके लायक नही हूँ , कृष्ण जब राधा की प्रशंसा करते हैं तो राधा एकातं मे जाकर रोती हैं और रो रो कर कहती है ललिता , विशाखा आदि सखियों से की कृष्ण ऐसा जो कहते है ये उनकी महानता है जो वो मेरी प्रशंसा करते हैं , मै तो प्रशंसा के लायक नही हूँ ! क्या किया है मैने उनके लिए ? इतनी दीनता है राधारानी में , जो स्वयं तत्त्व हैं , स्वयं प्रेम हैं , स्वयं ह्रि लादिनी शक्ति हैं | लेकिन अपने आपको इतना संकुचित , इतना दीन हीन बनाकर रखती हैं | तो वो सप्त सिंधु 'राधा ' जिनमें ये सात गुण हैं , इन सातो गुणों की सिंधु...

तो सिद्ध हुआ कि केवल भक्ति से हीं तुम भगवान को जान सकते हो , पा सकते हो | और कोई दुसरा मार्ग नही है |

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अस्थाय योगं निपुणं समाहितस्तं नाध्यगच्छं यत आत्मसम्भव: | ( भागवत. २-६-३४) ब्रह्मा कहता है कि मैंने बहुत युगों तक ' योगं आस्थाय' योग समाधि लगा कर के ' सुचिरम् ' बहुत दिन तक ध्यान करते हुए पता लगाया कि श्रीकृष्ण कौन हैं ? लेकिन ' नाध्यगच्छन् ' मैं नहीं समझ पाया | तब फिर मैं भक्ति की शरण ली | इसलिये , जैसा कि मैने कल बताया था कि - भगवान् ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया | तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत || (भाग. २-२-३४) इसलिये चैलेंज किया ब्रह्मा ने , अरे जीवों जब मैंने इतना परिश्रम करके भी कुछ नहीं पाया तो तुम बुद्धि मत लगाना | यह बुद्धि तो संसार रुपी प्रकृति में ही पूर्णतया नहीं विज्ञ हो सकती क्योंकि प्रकृति का पूर्ण विज्ञान बिना ब्रह्म के हो ही नही सकता | जहां तक आज विज्ञान गया है , जैसे - औक्सिजन , नाइट्रोजन , फिर उसके बाद इलैक्ट्रोन , प्रोट्रॉन , न्यूट्रॉन | अब उसके भी टुकरे हो गये | अब वे कहते हैं कि एक ऊर्जा शक्ति है | ऊर्जा शक्ति में वो शक्ति कहाँ से आयी यह पता नहीं है | जहाँ यह आपको चले पता कि पता नहीं है, वही है 'पता' उस ब्रह...

सब भक्ति के अधिकारी हैं

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भक्ति तो जननी है | इसके बच्चे हैं - सब ज्ञान वैराग्य वगैरह |इसलिये भक्ति को किसी और की आवश्यकता नहीं | 'भक्ति स्वतंत्र सकलसुख खानी ' और भक्ति में सार्वत्रकिता भी है | सर्वत्र किसी के लिये कोई प्रतिबन्ध नहीं कि यह भक्ति नही कर सकता | कर्म में कायदे कानून , ज्ञान में बहुत बड़े कायदे कानून , लेकिन भक्ति में कुछ नहीं | मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: | स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रोस्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || ( गीता ९-३२) अहो बत श्र्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् | तेपुस्तपस्ते जुहुवु: सस्नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते || ( भागवत ३-३३-७) सर्वधर्मबहिर्भूत: सर्वपापरतस्तथा | मुच्यते नात्र संदेहो विषणोर्नामानुकीर्तनात् || ( वैशम्पायन संहिता ) कैसा भी हो , सब भक्ति के अधिकारी हैं - सर्वेऽधिकारिणो ह्मत्र | ( पद्मपुराण) अरे ! राम न कह सकने वाला वाल्मीकि भी अधिकारी बना दिया गया | 'मरा' 'मरा' कह करके महापुरुष हो गया | तो भक्ति में कोई अधिकारित्व की शर्त नहीं है - पुरुष नपुंसक नारि नर, जीव चराचर कोय | सर्वभाव भज कपट त...

भक्ति हीन मनुष्य पशु के सामान है वल्कि उससे भी नीचे है

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भक्ति हीन मनुष्य पशु के सामान है वल्कि उससे भी नीचे है चाहे वो बड़े से बड़ा ज्ञानी, ध्यानी , योगी तपस्वी , क्युँ न हो | भक्ति विहीन नर पशु समाना | क्योंकि वह देखो ! भगवान् ब्रह्मा के लिये भी बोल गये - 'भक्तिहीन विरंचि किन होई ' भक्तिहीन अगर ब्रह्मा भी है तो हमको प्रिय नहीं | ब्रह्मा ने जरा सी गड़बड़ की कृष्णावतार में | उनकी सीट छीन ली गई | रोये , गाये , चिल्लाये , अनेक प्रकार के आँसू बहाकर दहाड़ मार कर के ब्रज में आये तो भगवान् ने कहा " अच्छा जाओ | आइन्दा गड़बड़ न करना , समझे रहना , जाओ | तुमको सीट फिर से दे रहे हैं | पावर-हाउस से कौन दुश्मनी मोल ले ? और मोल ले तो कैसे प्रकाश में रहे सीधी सी बात है :- श्री महाराज जी ( दिव्य स्वार्थ - ६३ )

रुपध्यान कैसे करें ?

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प्रश्न - रुपध्यान कैसे करें ? दिशा निर्देश श्री महाराज जी द्वारा :-  श्री राधाकृष्ण का रुपध्यान करते हुये , उनके दिव्य प्रेम एवं दिव्य दर्शन की लालसा से रोकर , उनका नाम-गुण लीलादि का संकीर्तन करना है | रुपध्यान, मन से बनाना सर्वश्रेष्ठ है | फिर भी स्वेच्छानुसार मूर्ति अथवा चित्रादि का अबलंब लिया जा सकता है | उस रुप में दिव्य भावना रखनी है , क्योंकि उनका देह चिदानंदमय दिव्य है |  रुपध्यान , भगवान् के नवजात शिशुरुप से लेकर १६ वर्ष की आयु तक का करना है | उस रुप का श्रृंगार आदि  स्वेच्छा पूर्वक नित्य नया नया करते रहना है | रुपध्यान के साथ-साथ , उनकी अनेक मन भायी लीलाओं का भी ध्यान करना है | तथा उनके दीनबंधुत्व , पतितपावनत्वादि गुण भी सोचना है | श्री कृष्ण , उनके नाम , उनके गुण , उनकी लीला , उनके धाम , उनके संतजनों में पूर्ण अभेद मानना है | ये सब श्री कृष्ण हीं हैं | मौक्षपर्यन्त की कामना एवं अपने सुख की कामना का पूर्ण त्याग करना है | इष्ट देव एवं गुरु को सदा सर्वत्र अपने साथ निरीक्षक एवं संरक्षक के रुप में मानना है | खाली समय में यत्र तत्र सर्वत्र श्वास से ' राधेश्याम,' नाम ...

भगवान् को भक्ति प्रिय है .

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कोई भी धर्म हो अगर वो श्रीकृष्ण में प्रेम नहीं उत्पन्न करता | अगर श्रीकृष्ण में अनुराग नहीं पैदा करता वो धर्म नहीं अधर्म है | फेंक दो उसको कूड़ा खाने में | भगवान् को धर्म प्रिय नहीं है | भगवान् को भक्ति प्रिय है चैलेंज है भगवान् का, १२ गुणों से युक्त भी ब्राह्मण हो , १२ गुणों से युक्त ब्राह्मण अगर दिया लेके ढूँढों तो पूरे पांच अरब में नहीं मिलेगा , वो १२ गुण क्या होते हैं आपको बताये जायें तो आँखें खुली रह जायें ऐसे ही लेकिन अगर ऐसा हो भी जाय तो भी वो चाण्डाल श्रेष्ठ है जो श्रीकृष्ण भक्ति करता है | :- श्री महाराज जी ( रास पंचाध्यायी - पेंज ५६ )

Live in the world but take care, world should not live in you

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Dear our satsangi , some time we because of body consciousness feel lacunas of SMJ . But at the movement while being soul conscious we feel him in every followers , every where , & in our heart. I pray to all dedicated devotees let us continue SMJ thoughts every day at least ones , which will lead our spirit to sustain our divine feeling more & more into Sadguru and keep away from worldly & material thrust . this is the instruction of maa R aseshwari devi maa.

यह काल बड़ा बलवान है।

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यह काल बड़ा बलवान है। इसमें भगवान भी दखल नहीं देते, संत भी दखल नहीं देते। ग्यारह हजार वर्ष राम रहे। ग्यारह हजार वर्ष पूरा होते ही यमराज पहुँच गया भगवान राम के पास । जबर्दस्ती नहीं कर सकता, लेकिन पहुँच गया, कि महाराज, आपका समय हो गया, याद दिलाने आया हूँ। सिद्ध महापुरुष के आगे यमराज जाता है, तो बैठ जाता है सामने, और महापुरुष उसके सिर पर पैर रखता है। फिर उसके बाद पुष्पक विमान पर बैठता है। लेकिन यमराज जायगा, उसकी डयूटी है। हम तो मायाधीन है, पापात्मा है, उसको घसीटते हुए ले जायेंगे, दंड देने के लिए। अरे! सहा नहीं जाएगा इतना दुःख होगा, चीख- चीख कर रोवोगे कोई सुनने वाला नहीं होगा उस समय कृपालु भी कुछ नहीं कर सकते, भगवान भी कुछ नहीं कर सकते। आप लोग समझते है मरने के बाद देखा जायेगा। क्या देखोगे, फिर तो भोगोगे। एक विद्यार्थी परीक्षा के समय तीन घंटे में कुछ लिखता नहीं। या गलत फलत लिखता है तो देखा क्या जायेगा, उसका जब नंबर आयेगा, तो जीरो बटे सौ, तब मालूम हो। आत्मा का कमाने का मामला सोचो। तुम आत्मा हो, शरीर नहीं हो। शरीर को तो छोड़ना पड़ेगा , जबरदस्ती छुड़वाया जाएगा शरीर। ......श्री महाराज जी।...

राग , द्वेश

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" जहां राग हो, द्वेश हो , घृणा हो , ईश्या हो , लोभ हो , मोह हो , नफ़रत का राज हो , क्रोध पलता हो , अहंकार हो , क्रोधी रहता हो , वहां से दुर रहना ही वेहतर है , वहां से पलायन करना ही वेहतर है , नही तो अनुकुल परिस्थिति प्राप्त कर , ऐ सारे दोष अपना काम कर जाते हैं जो हमारे अंदर दमित रहते है उसी प्रकार जैसे आग की एक चिनगारी सुखी लकड़ी प्राप्त कर भड़क जाती है | ऐ सब दोष हम सभी में भगवद्प्राप्ति तक रहते है अत: कुसंग और कुसंगी से दुर रहना ही वेहतर है " :- प्रवचन से ( मार्च २०११)

दिव्योपहार

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दिव्योपहार  "यह विश्व चिर ऋणी रहेगा जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का , जिन्होने समस्त विश्व को भक्ति और प्रेम से सराबोर कर वास्तविक दिव्यानंद की प्राप्ति का मार्ग बताया |  जिन्होने रसास्वादन कराया उस विशुद्ध भगवत्प्रेम का, जिसके लिए समस्त जीव प्रतिपल प्रयत्नशील हैं | जो उनके प्राकट्य काल में उनका सान्निध्य लाभ ले पाय , वे तो धन्य हो ही गए , किंतु परम कृपालु प्रभु ने उनकी भी सुधि ली जो उनके अप्राकट्य के बाद धराधाम पर इस परम दुर्लभ दिव्यानंद की प्राप्ति हेतु मानव जीवन प्राप्त करेंगे | भक्ति मंदिर , प्रेम मंदिर , भक्ति भवन एवं देश - विदेश में उनके द्वारा स्थापित विभिन्न आश्रमों के माध्यम से हमें उनका सान्निध्य आज भी उसी प्रकार मिलता रहेगा |"

हमारा बिचार , हमारी वाणी , हमारा व्यवहार , हमारा कर्म , हमारी सोंच , हमारे व्यक्तित्व का आईना है |

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हमारा बिचार , हमारी वाणी , हमारा व्यवहार , हमारा कर्म , हमारी सोंच , हमारे व्यक्तित्व का आईना है | हम अपने गुरु के प्रति पल पल उत्तरदाई है | गुरु के अथक परिश्रम के परिणामस्वरुप भी अगर हम नही बदल रहें है तो ऐ हमारी कमी है | हम अपने अहंकार के फलस्वरुप अगर किसी भी व्यक्ति या जीव और यहां तक की वनस्पति का भी नुकसान पहूँचाते है , किसी को भी तक़लिफ देते हैं तो उससे हमारे गुरु को , हमारे इष्ट को बहूत आघात पहूँचता है | उनको दु:ख होता है | महाराज जी ( कृपालु जी महाराज ) का सिद्धान्त है कि "दुसरे को दु:ख देना कष्ट देना , मन से , कर्म से , या वाणी से बहुत बड़ा पाप है | दुसरे में दोष देखना सबसे बड़ा पाप है हमें दोष केवल अपने में ढुंढना चाहिए | ऐसा दीन और नम्र बनो की तुम्हारी दीनता देख कर दुसरा पानी पानी हो जाए , अपने ज्ञान का अहंकार भी कभी मत करो , क्योकि यह ज्ञान भी तुम्हे तुम्हारे सद्गुरु के कृपा से ही प्राप्त हुआ है " हमें कोई हक नही है कि हम किसी दुसरे में दोष देखें | हमें यह नही भुलना चाहिए | महराज जी कहते है कि दुराग्रही , मलिन विचार वाला व्यक्ति अगर छद्म रुप धर कर या भेष बदल कर...

Sri Maharaj ji is always telling the quote of "Sundarkand" from " Ramayana"

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Sri Maharaj ji is always telling the quote of "Sundarkand" from " Ramayana" " कोटी बिप्र बध लागहिं जाहू | आए सरन तजउँ नही ताहूँ || सनमुख होइ जीव मोही जबहीं | जन्म कोटी अघ नासही तबहीं || पाप वन्त कर सहज सुभाऊ | भजनु मोर तेही भाव न काउ || जौं पै दुष्ट ह्रदय सोइ होई | मोरें सनमुख आव कि सोई || निर्मल मन जन सो मोही पावा | मोही कपट छल छिद्र न भावा || So we should always introspect every day every movement before to say any thing, do any thing and put action by ourselves that " are we following the principal of sri mahraj jee or not or how much near to the philosophy of sri mahraj ji ? Or only we are masking to be divine follower and buttering the sansari power to get unauthorised material benefits. If so then we must making fool to ourselves and not only far behind from divine guru even we are in revers direction of "hariguru " in fact . Hence in this way nothing will happen. :- by maa in speech of 2011

यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता ।

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मिलत नहिं नर तनु बारम्बार । कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार । उलटो टांगी बाँधि मुख गर्भहिं, समुझायेहु जग सार । दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नंदकुमार । भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार । यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार । भावार्थ - यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता । दयामय भगवान चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं । मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरुप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टांग कर मुख तक बाँध देते हैं । जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह (जीव) प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूँगा । जन्म के पश्चात जो श्यामसुंदर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है । 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इसलिए सावधान हो कर श्यामसुंदर का स्मरण करो । :- sri mahraj ji

पंचकोश , पंचक्लेश , त्रिविध त्रिताप क्या है?

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पंचकोश , पंचक्लेश , त्रिविध त्रिताप क्या है? १. पंचक्लेश किसे कहते है? योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश पाँच क्लेश हैं। (अविद्याऽस्मिता रागद्वेषभिनिवेशा: पंच क्लेशा:, योगदर्शन २.३)। अविद्या, अस्मिता , राग , द्वेष, अभिनिवेश - ये पंचक्लेश है व्यास ने इन्हें विपर्यय कहा है और इनके पाँच अन्य नाम बताए हैं- तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र (यो. सू. १.८ का भाष्य)। इन क्लेशों का सामान्य लक्षण है - कष्टदायिकता। इनके रहते आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता। अविद्या सभी क्लेशों का मूल कारण है। वह प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार चार रूपों में प्रकट होती है। पातंजल योगदर्शन (२.५) के अनुसार अनित्य, अशुचि, दु:ख तथा अनांत्म विषय पर क्रमश: नित्य, शुचि सुख और आत्मस्वरूपता की ख्याति ‘अविद्या’ है। दूसरे शब्दों में अविद्या वह भ्रांत ज्ञान है जिसके द्वारा अनित्य प्रतीत होता है। अभिनिवेश नामक क्लेश में भी यही भाव प्रधान होता है। अशुचि को शुचि समझना अविद्या है। अर्थात्‌ अनेक अपवित्रताओं और मलों के गेह शरीर को पवित्र मानना अविद्या है। जैन विद्वान स्थान, बीज, उपहम्भ,...

दिव्यादेश

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दिव्यादेश :- जहां भी जायँ , जैसे भी रहें , हमारे साथ हमारे श्यामसुन्दर हैं , हमारे गुरु हैं | यह फेथ पक्का करो बार-बार बार-बार चिन्तन के द्वारा | बस | फिर ऐसा हो जायेगा | हर समय नशे में रहोगे | हमारे अंदर बैठे हैं वो , अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक , सर्वद्रष्टा , सर्वनियन्ता , सर्वसाक्षी , सर्वसुह्रत् , सर्वेश्वर , सर्वशक्तिमान् , भगवान् | और अन्त:करण शुद्ध हो जाऐगा | - श्री महराज जी

कर्मयोग की साधना

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महाराज जी -कर्मयोग की साधना :- सुमिरन की सुधि यौं करो , ज्यों सुरभी सुत मांही | कह कबीर चारो चरत बिसरत कबहूँ नाही || एक गाय , जानवर, दिन भर चारा चरती है | लेकिन अपने बछड़े की याद है | याद करती रहती है ये कर्मयोग की साधना है उसकी, और जब शाम को लौटती हैं , चारा चरने के बाद , और गौशाला के पास आती है तो वो जो चोरी-चोरी प्यार कर रहीं थीं थोड़ा-थोड़ा वह कन्ट्रोल से बाहर हो जाता है तो रम्भाती है | बड़े ज़ोर से बोलती है , चिल्लाती हैं अपने बच्चे को पुकारती है और बच्चा भी उसका मां का आवाज़ पहचानता है तो खूँटे में बँधा हुआ , उसका बच्चा भी आवाज़ देता है - मम्मी जल्दी आ जाओ | ये देखो पशुओं मे भी इस प्रकार का विषय है | तो मनुष्य की कौन कहे | हाँ तो हमे इस प्रकार कर्मयोग की साधना करना है अर्थात् हम कार्य करते हुए भी बार-बार एक बात का तो अभ्यास करें कि हम अकेले नहीं हैं कभी भी एक क्षण को भी | इसका आपलोग घण्टे -घण्टे भर में पहले अभ्यास कीजिये | हम अधिक समय नही ले रहे हैं आपका | एक घण्टे में , एक सेकेण्ड बस , एक मिनट नहीं , जितनी देर में आप यों यों खुजला लेते हैं , यों यों कर लेते हैं | कोई भी वर्क...

संसार में लोग सम्पन्नता के बावजूद इतना दुखी क्यों हैं

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एक साधक का प्रश्न :- संसार में लोग सम्पन्नता के बावजूद इतना दुखी क्यों हैं , और हमारा उद्धार कैसे होगा ? मन को कब शांति मिलेगी ? हमारा कल्याण कैसे होगा ?  मां का उत्तर :- बड़ा अच्छा प्रश्न है तुम्हारा , श्री महाराज जी ने कई बार इस पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि यही बात एक बार शौनकादिक ऋषीयों के द्वारा सुत जी से पुछा गया की कलयुग में लोगों का कल्याण कैसे होगा ?  सुत जी ने कहा की कलयुग में लोगों की यादास्त बहुत कमजोर होगी , लोगों को भुलने की बीमारी होगी , प्रारब्ध बहुत कमजोर होगा , लोग शारीरिक रुप से कमजोर होंगें , मानसीक शक्ति क्षीण होती जाएगी , लोग पाप और पूण्य में , धर्म अधर्म में फर्क नही समझ पाऐंगें , अच्छे बुरे के ज्ञान का आभाव होगा , लोग तर्क , कुतर्क , वितर्क में समय गवाऐंगें ,  झूठ बोलने , पापादी में लिप्त रहने के कारण आयु क्षीण होती जाऐगी | कुसंगादि के कारण अपना नुकसान ही नुकसान करेंगें | अहंकार विनाश का प्रमुख कारण होगा | महाराज जी ने समझाया है कि "जीव समझ नही पायेगा कि वह जो कष्ट भोग रहा है वह उसके ही अनन्त जन्मो पल्स वर्तमान जन्मों के बुरे कर्मो का फल है | " लो...

शारीरिक कष्ट आने पर क्या करें इस कष्ट को सरलता से विना विचलित हुए किस प्रकार सहन करते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े ?

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एक साधक का प्रश्न :- मां हम शारीरिक कष्ट आने पर क्या करें इस कष्ट को सरलता से विना विचलित हुए किस प्रकार सहन करते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े ? उत्तर :- दो प्रकार का रोग होता है - एक को कहते हैं कर्मज , दुसरे को कहते है दोषज ! अब जो आपके आहार- विहार की गड़बड़ी से हुआ है यानी आपकी गड़बड़ी से हुआ है खानपान के गड़बड़ी से हुआ है उसको कहते है दोषज ! और जो प्रारब्ध का कर्मफल भोग है , उसके द्वारा जो रोग होता है वो कर्मज कहलाता है | तो कर्मज रोग का इलाज करो या न करो बराबर है | जब प्रारब्ध भोग समाप्त हो जाऐगा तो अपने आप ठीक हो जायेगा | फिर चाहे कुछ भी दवा करो, कर्मज रोग अपने प्रारब्ध को भोग लेने के बाद समय आने पर समाप्त हो जायेगा | प्रन्तु दोषज बीमारी जो होगी , हमारी गड़बड़ी से हुई है | उसमें दवा काम करेगी , संजम काम करेगी , डौक्टर से इलाज करना होगा | यह आयुर्वेद का सिध्दान्त है | अब चूकिँ हमें मालुम हो नही सकता कि ये कर्मज है या दोषज है इसलिये दवा सबको कराना है और करानी चाहिये | जादु मंतर , झार फुक के चक्कर में नही परना चाहिये , संसार में कर्मज दोष बाले भोले लोग , चूकिँ इसमें दवा काम नही करती इ...

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

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नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं || बड़े बड़े कहलाने वाले सुग्रीव वगैरह भूल गये राम को | नशा कर देता है धन |  सुइ के छेद से हजारो ऊँटों का गुजरना संभव है परन्तु एक धनी जिसके पास अथाह पैसा हो जाए वो भगवान की आराधना करे , भक्त बन जाए वो असंभव है , महापुरुषों को छोड़ कर | जैसे प्रह्लाद वैगरह सारी पृथ्वी के राजा रहे |  " श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काही " ये लक्ष्मी का मद किसको टेढ़ा नही कर देता , कोई पैदा नहीं हुआ विश्व में जो टेढ़ा न हो जाये | अपने को असिस्टेन्ट भगवान् मान लेता है जिसके पास ज्यादा पैसा हो जाता है | क्योंकि चारों ओर से लोग घेरे रहता है | डाक्टर साहब भी आ रहे है , मास्टर साहब भी आ रहे है , वकील साहब भी आ रहे है | हाँ सेठ जी ! हाँ सेठ जी ! वो समझता है हम वहुत काबिल है | वो अहंकार बढ़ा देता है | सेठ जी कितनी वेवकुफी की बात बोले जायें लेकिन बड़े-बड़े काबिल लोग जो बैठे हैं वो कहते हैं - वाह वाह !! मै तो शास्त्र वेद के अनुसार वोल रहा हूँ  इसलिय जरुरत से ज्यादा पैसा है या आवे दान कर अपना इहलोक और परलोक वना लो |  खेतों में जित...

भक्ति का मतलब

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श्री महराज जी : प्रवचन आप लोग बस केवल चार बाते याद रखे और अमल करे , माने और लागु करे अपने जीवन में , केवल चार बाते , आपको लक्ष्य की प्राप्ति हो जाएगी , बाकी सब ज्ञान की बातें है , सबको दिमाग मे नही रख सकते , क्योकी भुलने की बीमारी है . हां तो वे चार बाते है :- पहला - हरि और गुरु की भक्ति , दुसरा - नित्य , तीसरा - अनन्य , चौथा - निष्काम भक्ति , अब भक्ति किसकी करनी है तो हरि और गुरु की , भक्ति का मतलब तो आपलोग समझ ही गय होंगे , मन का अटैचमेंट हरिगुरु मे ही हो , मन का अटैचमेंट क्युँ ? क्युँकी भक्ति मन को ही करनी है , अन्य इन्द्रियों की भक्ति का कोई फल नही है , क्युँकि भगवान मन मे उठे संकल्पो को ही नोट करते है . वे अन्य इन्द्रियादी कर्मो को नोट नही करते , क्युँ क्युँकि सबसे पहले आप मन मे ही संकल्प करते है उसके बाद ही मन के अनुसार इन्द्रियादी अपना कर्म करता है क्युँकि सभी इन्द्रियादी मन के हीं दास होते है अत: भगवान मन के संकल्पो को ही नोट करते है , वो इन्द्रियादी कर्मो के तरफ देखते भी नही , आपका प्राइभेसी यहां नही काम करेगा , आप बुरा सोचे किसी के लिय , अरे अपने लिय भी , भगवान नो...