सुख और दु:ख

**** संसारिक सुख और दु:ख****
आईये सुनते है महाराज जी ने क्या कहा :-
सुख और दु:ख दोनों क्रियामाण कर्म के कारण भी होते हैं और प्रारब्ध से भी | जैसे एक को बीमारी हुई प्रारब्धबस और दुसरे को बीमारी हुई बदहजमी से | यह जानने के लिए कि बीमारी प्रारब्धजन्य है या क्रियामाण क्रमानुसार , हमें यह देखना है कि बीमारी दवा से ठीक होती है या नहीं | यदि क्रियामान कर्म के कारण बीमारी होगी , तो दवा से ठीक हो जाएगी | जबकि प्रारब्धजन्य बीमारी एक निश्चित अवधि तक ही झेलनी पड़ेगी | दवा का कोई असर नहीं होगा |
" आज जो हम लोग बदल बदल कर कपड़े इस्तेमाल करतें हैं , बदल बदल कर खाना खाते हैं | ठाठ-बाठ ऐश्वर्य से रहतें हैं ये पिछले जन्मों में दान किया रहा होगा , उसका फल देते हैं भगवान् | और जो इतनी गरीबी में पल रहैं हैं , जिसकी माँ ने कूड़े में फेंक दिया था उसको | और बाद में बिचारा पेट भरने के लिए गुण्डा बना , सैंकड़ो मडर किए , चोरी किए | इतना सारा किसके लिए हुआ ? पेट के लिए | भगवान् ने एक ऐसी चीज बना दी है , सबके लिए , कुत्ता , बिल्ली , गधा-पेट | लेकिन साथ में बुद्धि भी दी है कि बेटा संसार के अनुसार चलो | कपड़ा पहनो खाना भी खाओ लेकिन लिमिट के अनुसार |
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् |
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ||
(भाग. ७-१४-८)
जितने से तुम्हारा काम चल जाए उतना ही अपने पास रखो बाँकी दान कर दो , अपना परलोक बनाओ , प्रारब्ध ठीक करो नही तो फिर भिखारी बनोगे अगले कई जनम में , दण्ड मिलेगा |
तो इस प्रकार दु:ख दो प्रकार से आता है - एक प्रारब्ध से एवं दुसरा क्रियामाण कर्म से | जहाँ तक मृत्यु की बात है , वह प्रारब्ध से ही आती है |
निर्धनता भी प्रारब्ध का फल है |
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य प्रारब्ध का बहाना लेकर बैठ जाए | जीवन में जो भी दुर्घटना घटे उसके लिए प्रारब्ध को दोशी ठहरा दे और अपनी गलती न माने |
प्रारब्धजनित भोग एवं क्रियामाण कर्म जनित भोग में अंतर करने की क्षमता मनुष्य में नहीं है , इसका मतलब यह नहीं कि वह प्रारब्ध पर सब दोश डाल दे | हम काल , कर्म और ईश्वर पर वृथा दोश लगाते हैं |
हम अकसर ऐसा कहते हैं - अभी समय नही आया | जब समय आयगा, तो स्वयं ईश्वर भक्ति करा लेंगे | या भाग्य में जब लिखा होगा , तो भक्ति अपने आप हो जाएगी | ये बहाना ही मनुष्य को साधना नहीं करने देते |
खड़ाब प्रारब्ध कुछ दिनों के लिए आता है | ऐसे समय में भगवान की ओर चलने के लिए ठीक उसी प्रकार ज़ोर लगाना चाहिए , जैसे साइकिल चलाते समय जब ऊँचाई आ जाती है , तो हम ताकत लगाते हैं | जब साईकिल पुल पर चढ़ गई , फिर ताकत लगाने की जरुरत नहीं पड़ती है | जब भोग समाप्त हो जाएगा, तो हम पहले की तरह ही साधना पथ पर आसानी से आगे बढनै लगेगें | इसलिए भाग्य के विषय में सोचना नहीं है | भाग्य के विषय में सोचने वाला अपाहिज हो जाता है | अकर्मण्य हो जाता है | वह कुछ नही कर सकता | हर असफलता , हर अपनी कमी , हर अपनी गलती को भाग्य के उपर डाल देना ठीक नहीं है , फिर सुधार कैसे होगा ?
गीता में अर्जुन को श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया है - ' कर्म करो | उसमे कभी कम सफल होओ या कभी असफल हो जाओ, होने दो | कर्म नही छोड़ो | पुरुषार्थ करते रहो '
पुरुषार्थ का मतलब वर्तमान काल का हमारा कर्म | भाग्य का मतलब है पहले का किया हुआ हमारा पुरुषार्थ | पूर्व जन्म का पुरुषार्थ अगले जन्म में भाग्य के नाम से पुकारा जाता है | पूर्व जन्म की कमाई को भगवान् भाग्य के रुप में अगले जन्म में दे देतें हैं | इसलिए कभी - कभी देखा जाता है कि जो वर्तमान जीवन के पूर्व भाग में घोर संसारी रहे , वे आगे चलकर महापुरुष हुए , जैसे - तुलसीदास , सूरदास | जब उनका प्रारब्ध समाप्त हुआ , जो भोग था वह समाप्त हुआ , तब वे जहां थे वहाँ पहुँच गए |
यही बात साधकों पर भी लागु होती है | अच्छे-अच्छे साधकों का जब प्रारब्ध आ जाता है और वे सावधान नही रहते तो उनका पतन हो जाता है | अत: साधकों को सदा याद रखना चाहिए कि हमारे पूर्व जन्म के कर्मानुसार
भगवान ने प्रारब्ध निश्चित कर दिया है | निश्चित समय मे प्रारब्ध आएगा ही और हमें भोगना भी पड़ेगा | संतो को भी प्रारब्ध भोगना परता है | पर हममे और उनमें इतना अंतर है कि हम रोकर प्रारब्ध काटते हैं और संत सहर्ष उसे स्वीकार करते हैं | वे प्रारब्धजनित दु:ख से दुखी नही होते |
" प्रारब्ध आएगा, लेकिन हमेशा नहीं रहेगा | आया , भोगो और आगे बढ़ो "
:-श्री महाराज जी

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