कैसे जाने कि हम आध्यात्मिक हैं ? गुरूशरणापन्न हैं ?
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कैसे जाने कि हम आध्यात्मिक हैं ? गुरूशरणापन्न हैं ?
बहुत से लोग कहते हैं मैं बहुत आध्यात्मिक हुँ ! मैं छ: छ: घंटे पुजा पाठ करती हुँ व करता हुँ । रोज रामायण का पाठ करता हुँ , श्री मद्भागवद् पढ़ता हुँ , सुनता हुँ , गीता पढ़ता हुँ , श्री मद्भागवद् का कथा करवाता हुँ, चारो धाम तीर्थ कर चुका हुँ , रोज मंदीर नंगे पैर जाता हुँ , जो भी प्रबचन , सत्संग करने आते हैं हमारे शहर में, तो मैं जरुर सुनता हुँ , आदि, आदि ।
इसलिए मैं बड़ा आध्यात्मिक हुँ । उसको देख कर बेचारे भोले भाले लोग समझते है , देखो जी वो बड़ा आध्यात्मिक है ।
फिर कुछ समय पश्चात लोग कहते हैं , वो इतना आध्यात्मिक तो है फिर भी दुखी है बेचारा , क्रोध बहुत आता है उसको जी । आध्यात्मिक है किन्तु राग , द्वेष , घृणा, इर्ष्यादि दोषों से भरा परा है ।
ऐसा क्यों ?
तो ऐसा इसलिए कि आध्यात्मिक होना तो दुर , आध्यात्म किसे कहते हैं और आध्यात्मिक होना किसे कहते हैं हमने जाना हीं नही अबतक ! गुरू कौन हैं ? भगवान कौन हैं ? उनसे क्या नाता है हमारा ? हमने जानने , समझने का प्रयास ही नही किया अभी तक ! केवल फिजीकल ड्रिल मात्र किए जा रहें हैं ।
" मैं कौन हुँ और मेरा कौन है " जाना हीं नही !
जो खुद को जानने का प्रयास हीं नही किया अबतक वो भला हरि और गुरू को कैसे जान पाएगा भला ? जो खुद को नहीं जाना वो अभी आध्यात्म से तो नेचुरली कड़ोरो मील दुर है ।
जो खुद को नही समझा, न जाना कि मैं आत्मा हुँ तो किस तरह मैं आत्मा हुँ ? मैं भगवान का अंश हुँ तो कैसे मैं अंश हुँ ?
मेरे इस मानव जीवन का क्या महत्व है ? क्या लक्ष्य है मेरा ? क्या करना है मुझे ? मेरे इस मानव जीवन का असली उद्धेश्य क्या हैं ? क्या पाना है हमें ? जो हम पाना चाहतें है असली 'आनंद' वो कैसे मिलेगा ? कहां मिलेगा ? किससे मिलेगा ? किसके पास है वो सामान ' आनंद ' ?
हमें क्या करना होगा इस आनंद को प्राप्त करने के लिए ? इत्यादि ।
अत: आत्मा को जानने की प्यास , फिर परमात्मा को जानने की प्यास , भगवद् तत्व को , गुरू तत्व को जानने की प्यास , फिर सद्गु्रू के सिद्धांतों को समझना , इस पर चिन्तन , मनन करना , इसके बाद इन सिद्धान्तों को व्यवहार में लाना , व्यवहारिक जीवन में उतारना , अमल करना , फिर अपने आपको मन , बुद्धि को गुरू की मन बुद्धि से जोड़ना , गुरू जैसा कहें वैसा हीं करना , उसे अपनाना हीं गुरू का पुर्ण शर्णागत है । और यही आध्यात्म है ।
जो सही सही इसको करे वही आध्यात्मिक है, शिष्य है , श्री हरि प्रेमी है , नही तो सब नाटक है , दिखावा है । बहिरंगा कर्म है , आध्यात्मिक होने का, दिखाने का एक्टिंग मात्र है ।
फिर काम , क्रोध , मद् , अहंकार , लोभ आदि विकृतियां कम कैसे होगी ?
अजी हम तो श्री महाराज जी को डेली सुनते हैं टीवी पर , उनके पुस्तक को भी पढ़ते हैं , मंदीर में रोज जाते हैं , सबका सत्संग भी सुनते हैं , श्री महाराज जी के अलावा टीवी पर जो जो आतें हैं सबका , किसी को नही छोड़ते ! दान भी करते है मंदीर में । तो इस प्रकार हम बड़े आध्यात्मिक हैं ।
हां वो अलग बात है कि मनगढ़ गुरूधाम कभी नही जाते , किसी साधना शिविर को अटेंड नही करते , श्री महाराज जी के फिलौसोफी को सुनतें हैं , पढ़ते हैं पर अमल नही करते , उल्टा उल्टा करते हैं । नही जाते , समय नही है , आलस्य करतें है।
समय है संसार में बेकार की बात करने के लिए , छुट्टी के दिनो में खुब सोने के लिए , अड़ोषी , पड़ोषियों , रिस्ते रिस्तेदार के यहां जाकर अपना किमती समय गंवाने के लिए । इन सबके लिए पैसा है ! थोड़ा गर्मी की छुट्टी में हील स्टेशन घुम आते हैं, बच्चों के साथ , तो दो चार रिस्तेदारों के यहां जाने के लिए छुट्टी में महीनो पहले टिकट कटा लिए है आने जाने दोनो का !
थोड़ा बढ़ीया बढ़ीया कपड़ा भी खरीद लिए हैं , क्युँ जी जहां जा रहें हैं तो लोग क्या सोचेगें ? हम असमर्थ है क्या , गरीव है क्या , वो इज्जत नही करेगा फिर रिसपेक्ट घट जाएगा , इसलिए यह सबसे जरूरी है इन सबके लिए तो पैसा है नही तो उधार भी कर आते हैं , लोन ले लेतें हैं ।
परंतु गुरूधाम में , वृंदावन में , शीविर में जाने के लिए न तो समय है और ना पैसा है ! वहां जाने के समय - हम वो हं हं बड़े गरीब हैं , आमदनी कम है इसलिए नही जाते हैं ।
और जिनके पास धन है वो - हं हं हं वो हमारे पास समय का बड़ा आभाव है , फुरसत ही नहीं है , वो मकान की चिन्ता है , दुकान की चिन्ता है , व्यापार की चिन्ता है , बच्चों की चिन्ता है आदि , आदि तमाम एक्सक्युजेज है !
संसार में कोइ दो बात बोल दे तो तुरंत क्रोध आ जाता है , वो दो वोलेगा तो हम चार वोलेंगें , कैसे चुप रहें भला , अरे उससे कम है क्या हम ? हम चार सुनाऐंगें जरूर , अरे..... हं हं हं हमारा पहुँच उपर तक है क्या समझा है हमको वो !
फिर भी कहते हैं हम तो बड़े आध्यात्मिक है ।
आध्यात्मिक तो बहुत दुर , दरअसल मीन माइंडेड हैं , हर दोष से संपन्न हैं ।
वास्तव में हम अपने आप को धोखा दे रहें हैं ।
जो वास्तव में हरि भक्त होगा , गुरूभक्त होगा , गुरू शरणागत होगा , हरि- गुरू के प्रति अनन्य होगा ,वही वास्तविक शिष्य है , आध्यात्म के रास्ते पर प्रयासरत है , आध्यात्मिक है ।
और उसी में दैवी गुणों का ईश्वरिय गुणों का विकास होगा ।
उसके मायादिक दोष दुर होते जाऐंगें , उसमें गुरू वल द्वारा , हरि वल द्वारा निर्भिक्ता आएगी , निश्चिंतता आएगी , निडरता आएगी , निश्छलता आएगी , हरि- गुरू से प्रेम बढ़ेगा , आंसु आऐंगें साधना में , क्रोधादि ,मोहादि , ईर्ष्यादि विकृतियां धीरे धीरे समाप्त होने लगेगी । ध्यान दिजिए हरि-गुरू शरणागत का योगक्षेम हरिगुरू वहन करतें हैं तो फिर चिन्ता क्युँ ?
हम हरि से गुरू से हीं छल करतें हैं बहाना वनातें हैं तरह तरह का और अपेक्षा करतें हैं भगवान से की वो हमारे लिए सब करें , भगवान से चारसौबिसी , गुरू से छल !
तो जान ले फिर जैसे को तैसा । हम चारसौ बीसी करेंगें तो वो आठसौ चालिसी करेंगें । हमारे लिए न्यायी बन जाएंगें , कृपा नही होगी ।
इस लिए अब भी वक्त है सुधरने का , नही तो सारा धन , और यहां तक की ए मानव शरीर एक दिन युँ ही छीन जाएगा । फिर लख चौरासी का चक्कर ।
अत: अभी से सोंचिए , सिरियस हो जाइए , रूप ध्यान साधना जो बताइ गइ है उसे प्रतिदिन करें , श्री महाराज जी के सिद्धांतों को प्रतिदिन सुने और अमल में लावे , हर रोज सोने से पहले सोंचें की आज हमने कहां कहां गलतियां की , कहां कहां सिद्धांत के उल्टा काम किए , उल्टा सोंचा , और संकल्प करें कि ये जो गलतियां आज हमने की वो कल से ना करेंगें , तब जाकर धीरे धीरे सुधार होगा और अपने लक्ष्य को एक दिन अवश्य प्राप्त करेंगें । - पुज्यनियां मां रासेश्वरी देवी जी
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