प्रश्न - लोग मरते वक्त क्यों अधुरा महसूस करतें हैं ?
प्रश्न - लोग मरते वक्त क्यों अधुरा महसूस करतें हैं ?
उत्तर - जब तक जीव आनंद प्राप्त नहीं कर लेगा ,यानि जीव जबतक भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर लेगा तबतक अधुरा हीं महसूस करेगा ।
दरअसल सभी जीव ऐसा आनंद चाहता है जो कभी ना समाप्त हो । और यह आनंद संसार में नहीं हैं । संसार का आनंद क्षनिक हैं । प्रतिक्षण घटने वाला है ।
जीव सभी कर्म केवल सुख पाने के लिए हीं करता है ।
पर अज्ञानता वश जीव संसार में हीं आनंद ढुढंता है जो नहीं मिलता कभी ।
क्यूंकि आनंद संसार में नहीं हैं ।
आनंद भगवान को प्राप्त करने में हैं ।
दरअसल भगवान हीं , सच्चिदानंद श्री कृष्ण हीं आनंद हैं।
वहीं सत् + चित् +आनंद हैं ।
जब तक जीव संसार के व्यक्ति और वस्तु में सुख ढुढेगा । धोखा हीं होगा ।
इसलिए जीव हमेशा पछताता है ।
सबसे बड़ा पछतावा है मानव शरीर गमा देना , वास्तविक माता पिता जो परमात्मा है उनको न पाना ।
संसारिक शरीर के रिस्तेदार को अपना समझना ।
पढ़ीए ध्यान से :-
जब हमारा आपका शरीर हीं अपना नहीं है तो भला कोई वस्तु या व्यक्ति आपका कैसे हो सकता है।
हम आप शरीर नहीं, आत्मा है।
और आत्मा का पिता परम पिता परमात्मा जो एक मात्र श्री कृष्ण हीं है, बस वही शास्वत अपना है, सनातन अपना है।
कोई भी जीव इस दुनिया से कुछ भी साथ लेकर नहीं जा सका है और ना जाएगा कभी।
ना भूतों और ना भबिष्यत्।
ऐ जितने भी लोग हैं जिन्हें हम आप रिस्तेदार कहतें हैं चाहे वो मां वाप हीं क्यों ना हों, ए शरीर के रिस्तेदार हैं। सबको अपने अपने समय पर अलग अलग जाना हीं होगा। ए फिर कभी नहीं मिलेंगें।
सबको अपने अपने कर्मों के हिसाब से अलग अलग योनि में जाना हीं होगा।
और साथ जाएगा आपके हमारे कर्मों का हिसाब।
कितने लोग हमारे आपके परिवार से चले गए। कहां गए, आपको मालुम नहीं।
ए दुनिया कर्मों का मेला है। हम आप सब एक मुसाफिर हैं।
जैसे ट्रेन का मुसाफिर। सबको कहीं ना कहीं उतरना हीं है।
हम सब कहते हैं हमारा मां वाप, भाई वहन, आदि आदि।
सब रिस्ते स्वार्थ के रिस्तें हैं। स्वार्थ के लिए रोते हैं केवल। केवल अपना फर्ज, डूयूटि अच्छे से पुरा करिए, लेकिन प्रेम तो एक मात्र अपने वास्तविक, सनातन, शास्वत माता पिता, भाई बन्धु, सखा, श्री कृष्ण से करिए।
संसार में प्रेम हैं हि नहीं। वास्तविक प्रेम संसार में नहीं।
संसार का प्रेम एक धोखा है।
किसी के भी मनोनुकूल करिए तो बहुत अच्छा नहीं तो आप नालाएक हैं।
केवल स्वार्थ, संसार का प्रेम स्वार्थ पर टीका रहता है।
स्वार्थ है तो मां बाप, भाई बहन दोस्त सब है। स्वार्थ खत्म रिस्ता खत्म।
अरे वेटा वाप मां को गोली मार देता है ।
मां वाप वेटा को तो वांकी रिस्ते कि क्या अहमियत है। और ना मारे ना सही पर रिस्ते में खटपट तो होता हीं है।
सबका अनुभव है यह।
लेकिन हमारा वास्तविक माता पिता श्री कृष्ण तो हमेशा हमारा राह देखता रहता है कि हम कब उनको अपना माने।
हम भगवान को भी स्वार्थ वश हीं प्रेम करतें हैं। भला भगवान हमें कैसे मिलेंगें?
भगवान तो निष्काम प्रेम से मिलते हैं।
आर्त पुकार चाहिए।
जबतक हमें अपने बिद्या, बल बुद्धि, धन, सम्पत्ती, रिस्ते, नाते, पद, प्रतिष्ठा, दान आदि का अहंकार है भगवान श्रीकृष्ण हमसे नहीं मिलेंगे।
हम सब अहंकार त्याग कर यह कबूल करले कि है प्रभु केवल तुम मेरे हो, मैं आपके शरण में आया हुं सारे माया से आसक्ति त्याग कर।
खुद दीन हीन हुं। किसी भी चीज का अहंकार नहीं हैं। अब तुम हीं अबलंब हो।
बस भगवान मिल जाऐंगें।
लेकिन इसमें चालाकी नहीं होना चाहिए।
केवल मुख से बोलने से काम नहीं बनेगा, भगवान नहीं मिलेंगे।
याद रखिए सबको हम आप धोखा दे सकतें हैं लेकिन भगवान को नहीं।
वो सर्वशक्तिमान हैं, सर्वनियंता, सर्वांतर्यामी हैं। उनसे छल किजिएगा तो वो आपसे बड़ा छल करेंगें।
वो कहतें हैं
निर्मल मन जन सो मोहीं पावा
मोहीं कपट छल छिद्र न भावा :- रामायण
ए मानव तन मिला है उनको पाने के लिए।
खुद को दीन जान और मान करके वास्तविक रूप से आर्त पुकार करना होगा। निष्काम भक्ति करनी होगी।
यहीं निष्काम भक्ति से वो मिलेंगें।
जय श्री राधे, जय श्री कृष्ण। :- अपने सद्गुरूदेव , प्राणों से भी ज्यादा प्यारे भगवान स्वरूप श्रीकृपालुजी महाराज जी के द्वारा दिए गय प्रवचन ।
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