गुरू तत्त्व

💐💐💐💐गुरू तत्त्व💐💐💐💐
अभी तक हमने जाना कि तीन तत्त्व हैं - वह,  मैं  और यह । अर्थात् ब्रह्म, जीव और माया । फिर यह चौथा गुरू तत्त्व कहांँ से आ गया ? वेद व्यास जी कहतें हैं -

 'नास्ति तत्त्वं गूरो: परम् ।' 

गुरू के आगे कोई तत्त्व ही नहीं है । परतत्त्व यानी अंतिम तत्त्व गुरूतत्त्व है । यह वेदव्यास भगवान के अवतार लिख रहें हैं । कौन उँगली उठावे । 
पर स्वाभाविक प्रश्न है - जब वेदों में, शास्त्रों में परतत्त्व श्रीकृष्ण को बताया गया है, तो गुरू कैसे परतत्त्व हो जाएगा ।

इसका उत्तर वेद देता है कि गुरू तत्त्व भगवान से बड़ा नहीं है । लेकिन है भी । मतलब ! मतलब यह कि हम अपने स्वार्थ की दृष्टि से गुरू तत्त्व को भगवान से बड़ा मानते हैं । वास्तव में हैं नहीं , किन्तु मानतें हैं । क्यों ? इसलिए  कि भगवान को जानना सबसे पहले जरूरी है । श्रीकृष्ण कौन हैं ? उनसे हमारा क्या संबंध है ? उनकी प्राप्ति क्यों की जाए ? उनकी प्राप्ति कैसे की जाए ? यह सब ज्ञान सबसे पहले आवश्यक है । यह ज्ञान वेदों से प्राप्त होगा । किसी भी ज्ञान की अंतिम आथोरिटी वेद है । हम वेद पढ़कर भगवान के बिषय में  जान लेंगें । सबकुछ लिखा है वेद में । लेकिन आप जानते हैं कि वेद अलौकिक वाणी है । हाँ अलौकिक ! अलौकिक वाणी को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए । यानि अपौरूषेय वेद को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए । अलौकिक बुद्धि तो हमारी है नही ! फिर ज्ञान कैसे होगा ? इसलिए वेद ने कहा - देखो, तुम लोग मुझे मत पढ़ना । खबरदार ! 

'आचार्यवान पुरूषो हि वेद ।
तद् विज्ञानार्थं स गुरूमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।'

बार-बार वेद कह रहा है कि श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ महापुरूष की शरण में जाओ । जिसे हम परतत्त्व कह रहें हैं अर्थात् भगवान् , वह गुरू के द्वारा हीं प्राप्त होगा । इसलिए शास्त्रों ने, संतों ने और यहांँ तक की भगवान ने भी गुरू को परतत्त्व कहा और भगवान से बड़ा माना । आदिपुराण में वेदव्यास जी ने  कहा -
' मद्भक्तस्य ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मता: ।' 
जो मेरे भक्त हैं,वे मुझे उतने प्रिय नहीं । जो मेरे भक्त के भक्त हैं , वे मुझे अधिक प्रिय हैं । 
भगवान् कहते हैं - 

'तस्माद् गुरूं प्रपद्येत जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं  ब्रह्मण्युपशमाश्रयम ।।'

अर्थात् जो परम कल्याण का जिज्ञासु हो , उसे गुरूदेव की शरण लेनी चाहिए । गुरूदेव ऐसे हों , जो वेद का ठीक-ठीक परिज्ञान करा सकें; और साथ ही परब्रह्म के परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकी अपने अनुभव द्वारा प्राप्त हुई रहस्य की बातों को बता सकें । उनका चित्त शांत हो, व्यवहार के प्रपंच में बिशेष प्रवृत्त न हों ।

अत: या तो गुरू एवं श्रीकृष्ण की समान रूप से साथ-साथ भक्ति की जाए या केवल गुरू की भक्ति की जाए , फल वही मिलेगा । केवल भगवान की भक्ति से डाईरेक्ट कुछ नही मिलेगा । भगवान तो अनादिकाल से हमारे अंत:करण में बैठें हैं , पर हम सदा से दु:खी हैं । ८४ लाख योनियों में घूम रहें हैं ।
वेदव्यास जी ने कहा है- भगवान से किसी भी जीव का अंधकार न गया है , न जाएगा ।
अत: हमारे स्वार्थ के दृष्टिकोण से गुरू का स्थान ऊँचा है । क्योंकि गुरू ने हीं हमें तत्त्व ज्ञान प्रदान किया । प्रैक्टिकल साधना करवाई । साधना के बीच जो जो बाधाएँ- शंकाएँ आई , उनका समाधान किया और साधना द्वारा अंत:करण शुद्ध करके हमें दिव्य प्रेम प्रदान किया । उसके बाद हमें भगवान के गोद में बिठा दिया । अत: साधकों के लिए गुरू तत्त्व हीं परतत्त्व हैं । - पुज्यनियां मां श्री रासेश्वरी देवी जी ।

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