यह जो गुरू सेवा मिलती है यह भगवान के कृपा का प्रसाद है । यह सौभाग्यशालीयों को मिलती है ।
बहुत हीं महत्त्वपूर्ण , ध्यान दें ।
यह जो गुरू सेवा मिलती है यह भगवान के कृपा का प्रसाद है । यह सौभाग्यशालीयों को मिलती है ।
जब भगवान किसी पर रीझ जातें हैं तब वे उसे अपने जनों की सेवा प्रदान करतें हैं ।
यह उनकी कृपा-प्रसाद है ।
उसे निष्ठापूर्वक धारण कर हमें उस सेवा को करना चाहिए । और फिर हमारे श्री महाराज जी की बात हीं कुछ और है -
अवगुण करूँ समुद्र सम , गिनत ना अपनों जान ।
राई के सम भजन को मानत मेरू समान ।।
ये तो हमारे कृपालु महाप्रभु की परम उदारता है । अवगुण धारण किए हुए हम दिन-रात अपराध कर रहें हैं, लेकिन समुद्र जैसे अवगुणों को मेरे गुरूवर देखते हीं नहीं हैं , क्यों -
गिनत न अपनों जान ।
अरे यह मेरा है, कोई बात नहीं ।
और राई सम यानी थोड़ा सा भी हम भजन करतें हैं तो -
मानत मेरू समान ।
विभोर हो जातें हैं । बड़े विभोड़ हो जाते हैं । अरे मेरा बच्चा कर तो रहा है न । चल रहा है, मेरी आज्ञा-पालन कर रहा है । काम-वाम सब हो जाएगा ।
इतने आशावादी हैं हमारे गुरूवर । तो सद्गुरू की कृपा से हीं यह उत्कट लालसा प्राप्त होती है ।
हां लेकिन एक बात का ध्यान रखें । सेवा करते समय ये ध्यान रखना हैं कि कहीं हममें सेवा का दंभ तो नहीं आ रहा है । कहीं हममें कर्तृत्वाभिमान तो नहीं बढ़ रहा है । कहीं हममें अहंकार तो नहीं आ रहा है । कहीं हममें ये भाव तो नहीं आ रहा है कि मैं हीं कर सकता हुं, कर सकती हुं , और कोई नहीं कर सकता , मैं हीं करूंगी और कोई नहीं करेगा , मेरे से आगे कोई कैसे जा सकता है आदि । या हमारा मन हरि-गुरू के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र लग रहा है ?
ये बाधक है , ये सेवा में बाधक है ।
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