यह जो आपका मन अशान्ति और अतृप्ति से सदा विचलित रहता हैं, इसमें बस एक ही मुख्य कारण हैं कि

★★★ श्रीकृपालु भक्ति-धारा ★★★

यह जो आपका मन अशान्ति और अतृप्ति से सदा विचलित रहता हैं, इसमें बस एक ही मुख्य कारण हैं कि--

आपको भगवान पर, संतो/महापुरुषो पर उनके उपदेशो पर पूर्ण श्रद्धा और अटल विश्वास नही हैं, बिलकुल नही हैं, ये पक्का मान लो !

और इस अश्रद्धा और अविश्वास का मुख्य कारण हैं हृदय की मलिनता अर्थात् अभी आपका हृदय बहुत अधिक पापयुक्त हैं (अनंत जन्मो में किये गये गंदे संसारी चिन्तन और पाप आदि करने के अभ्यास के फलस्वरूप) ।
इस रोग का बस एक ही उपचार हैं
 "निरंतर भगवद्भजन/हरि-हरिजन का चिन्तन" ।

भले ही आपका मन भगवद्भजन में ना लग रहा हो (क्योकि कभी लगाने का अभ्यास दृढ़ता से किया ही नही हैं) लेकिन फिर भी जुट जाओ अपनी पूरी शक्ति लगाकर "निरंतर हरि-गुरु चिन्तन करने में" और ये भी ध्यान रखो कि हरि-हरिजन के प्रति अनुकूल चिन्तन ही हो, विपरीत भाव हृदय में आते ही इस प्रकार उसको सावधानी से भगा दो जैसे भोजन के समय ध्यान रखते हो कि कंकड़ आदि ना आ जाऐ और यदि फिर भी कोई कंकड़ आ जाता हैं तो तुरंत उतना भोजन ही उगल देते हो, 

वैसे ही तुरंत उस विपरीत भाव और विपरीत भाव लाने वाले कारण दोनो से ही तुरंत पीछा छुड़ा लो, अगर वास्तव में अपना कल्याण/भला चाहते हो तो अन्यथा पतन के गर्त में और भीतर चले जाओगे ।

और इस प्रकार भजन का अभ्यास करते-करते जैसे-जैसे हृदय पर से मैल की परत उतरती चली जाऐगी और हृदय शुद्ध होता जाऐगा वैसे-वैसे ही आपको भगवान और संत और अधिक प्रिय लगने लगेंगे और उनकी वाणी पर भी श्रद्धा बढ़ती जाऐगी और जैसे ही ये श्रद्धा-विश्वास 100% हुआ कि तुरंत आपका समस्त कार्य सदा-सदा को सिद्ध हो जायेगा और सदा को नष्ट हो जायेगी अतृप्ति/अशान्ति/क्लेश ।

: - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

साधना के नियम : - -

1. रूपध्यान करते हुए ही संकीर्तन करो।
2. निरन्तर मौन व्रत का पालन करो।
3. अत्यंत दीन भाव उत्पन्न करो।
4. हरि-गुरु के अनुकूल ही चिन्तन करो।
5. अन्य साधकों में सम्मान की भावना करो।
6. भाव प्रकट करने का दंभ भी न करो।
7. मोक्ष-पर्यन्त की कामना कभी न करो।
8. क्षण क्षण सर्वत्र-सर्वदा हरि स्मरण करो।

: - जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज।

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