इस संसार में ४ प्रकार के लोग मिलते हैं

संसार सम्बन्धी ऐश्वर्य जितने कम हों, उतना ही अच्छा और उतने में भी मन की आसक्ति न हो तब तो साधना हो सकती है अन्यथा रंक एवं सम्राट सब बराबर ही रहेंगे । जिसके पास एक कपडा नहीं है, वह एक कपडे के लिए परेशान है, जिसके पास ५० कपडे हैं वह ५१ वें के लिए परेशान है । परेशानी में कोई अन्तर नहीं पडता । इस संसार में ४ प्रकार के लोग मिलते हैं -

(१) कुछ लोग संसार के मदवर्द्धक ऐश्वर्यों के होते हुए भी ईश्वर के रस में विभोर रहते हैं ।

(२) कुछ लोग संसार के मदवर्द्धक पदार्थों के न होते हुए भी संसार के ही  ऐश्वर्यों के चिन्तन एवं उनके पुनः संग्रह में अशान्त रहते हैं ।

(३) अधिकांश लोग संसार के मदवर्द्धक ऐश्वर्यों होने के कारण ईश्वर से वंचित होकर, मदोन्मत बने हुए संसार कि ही ओर बढते जाते हैं ।

(४) अधिकांश लोग संसार के मदवर्द्धक पदार्थों के अभाव के कारण संसार से निराश होकर ईश्वर की शरण में जाते हैं एवं सत्संग द्धारा संसार का सत्य रूप समझ कर उससे विरक्त हो जाते हैं ।

इसमें प्रथम वर्ग के लोगों के उदाहरण बहुत कम मिलेंगे क्योंकि मदवर्द्धक पदार्थों के रहने पर भी उनमें आशक्ति न हो, उनका मद न हो, यह योगभ्रष्ट संस्कारी अर्थात उच्चकोटि का आध्यात्मिक पुरुष ही कर सकता है ।
दूसरे वर्ग के भी उदाहरण कम मिलेंगे क्योंकि संसार के अभाव में संसार का अंहकार न होने का कारण स्वभावतः मन ईश्वर में जाना चाहिये । किन्तु फिर भी घोर कुसंस्कार एवं कुसंग के परिणामस्वरूप ऐसा होता है । तीसरे एवं चौथे वर्ग के लोगों का नियमित रूप ही है । वास्तव में वही नियम सार्वजनिक है ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

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