प्रेम , भगवद्प्रेम , श्री हरि से प्रेम , सदगुरू से प्रेम , निष्काम प्रेम , अनन्य प्रेम , श्री राधारानी , सदगुरू के कृपा का परिणाम है ।
प्रेम , भगवद्प्रेम , श्री हरि से प्रेम , सदगुरू से प्रेम , निष्काम प्रेम , अनन्य प्रेम , श्री राधारानी , सदगुरू के कृपा का परिणाम है । प्रेम ही भक्ति है और भक्ति हीं प्रेम हैं । जब श्रद्धा और विस्वास अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त करती है तो भगवद्प्रेम का प्रकटीकरण होता साधक के ह्रदय में गुरूदेव के प्रेमदान के फलस्वरूप ।
इसका वर्णन शब्द नहीं कर सकता । यह तो एक अलौकिक दिव्य अनुभव है ।
जब भक्ति अपने चरम पर पहुंचता है तो प्रेम का रूप लेता है ।
प्रेम में प्रेमी अपने प्रेमास्पद् पर अपना सबकुछ लुटा चुका होता है । मिट चुका होता है । अपना सुध-बुध खो चुका होता है । खुद के होने का भान नहीं होता ।
न नाम , न यश , न मान , और न सम्मान , सबकुछ समाप्त ।
शरीर के सूधि बात हीं छोड़िए ।
दिव्य प्रेम निस्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा का प्रतिफल है गुरू का प्रसाद है ।। यह सबसे उच्चकोटि का भाव हैं । ऐसा भाव जिसमें मैं को "मैं" होने का भान मिट जाता है ।
फिर नाम , यश मान सम्मान और अहंकार का तो नामोनिशान कहां !
प्रेम में प्रेमी को केवल अपने प्रेमास्पद् की उपस्थिति का हीं एहसास होता है ।
"आप अपने गुरू देव का प्रेम पाना चाहते हो तो खुद को मिटाना होगा " यानि मैं को भुलना होगा ।
यानि खुद को खुद होने तक का भान तक ना रहे ।
ध्यान रहे , मैं सेवक तुम स्वामी में , मैं को मैं होने का भान है यहां , इसलिए दास भाव भक्ति निचले कक्षे का भक्ति है ।
सखा भाव भक्ति में भी "मैं "के होने का भाव है ,
वात्सल्य भाव भक्ति में भी मैं पिता तुम पुत्र , यानी मैं के होने का भान है ।
पर प्रेम भाव भक्ति में केवल प्रेमास्पद् के होने का भान है ,
सर्वोत्तम कक्षा के प्रेम में प्रेमी को खुद का होने का भान नहीं रहता ।
यह है निष्काम प्रेम ।
गोपियां अपने प्रेमास्पद् श्री कृष्ण में ऐसे खो जाती है कि अपने प्रेमास्पद् के वियोग में खुद का होने का भान मिटा देती है । और एक गोपी कृष्ण बन जाती है तो दुसरी उनकी प्रेमिका बनकर लिपट जाती है , सुध-बुध नहीं होता , होश नहीं रहता । एक्टिंग में नहीं , स्वभाविक तौर पर ऐसा भाव उत्पन्न होता है ।
ऐसा है प्रेम और निष्काम भक्ति । इसको समझना होगा आप सभी को । हमारे गुरूदेव हमसे यही अपेक्षा रखते हैं कि हम निष्काम भाव भक्ति के पथिक बने ।
सावधान , अगर बालु के कण मात्र की लालसा है ह्रदय में अपने मान , सम्मान , यश , प्रतिष्ठा की तो भगवद् प्रेम की बात तो कोसों दुर हम साधारण सेवक भी नहीं हैं हरि और गुरू के ।
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