आप लोग सभी श्री शंकराचार्य जी के बारे में सुना है आज का गद्दी धारी शंकराचार्य नहीं , ओरीजनल शंकराचार्य

श्री महाराज जी :- देखिए, आप लोग सभी श्री शंकराचार्य जी के बारे में सुना है आज का गद्दी धारी शंकराचार्य नहीं , ओरीजनल शंकराचार्य , उन्होंने अद्वैत बाद का प्रचार प्रसार किया समय और परिस्थितियों के अनुसार , उस समय सभी लोग माथ मुड़ा कर संन्यासी बन रहे थे । भगवान श्री कृष्ण ने शंकर जी को भेजा पृथ्वी पर , वो शंकराचार्य बन कर आए और अद्वैत का प्रचार किया , खुद संन्यासी बने और जीवों को कहा की तुम ही ब्रह्म हो , "तत् त्वमसी से अहं ब्रह्मास्मी" के जाप । ताकी लोग संन्यासी बन कर जंगलों और पहाड़ो में ना जाएं । सब संन्यासी अगर हो जाए , जंगल और पहाड़ में चले जाएं तो सृष्टि कैसे चलेगी ! तो भगवान श्री कृष्ण शंकर जी को भेजा , प्रथम जगद्गुरू की उपाधी लिया उन्होंने मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया और अद्वैत का सम्यक प्रचार प्रसार किया ।‌
लेकिन खुद अपने चारों मठों में उसी सगुण साकार ब्रह्म श्री कृष्ण के प्रतिमा की स्थापना करके उनकी भक्ति कर रहें हैं । 
उनका लिखा पद् आज आप लोग गातें हैं ना , :- " यमुना निकट तटस्थित वृंदावन कानने महारम्ये,
कल्पद्रुमतलभूमौ चरणं चरणोपरिस्थाप्यम।।

तिष्ठंतं घननीलं स्वतेसा भास्यन्तिमिह विश्वम् ।
पीताम्बर परिधानं चंदनकर्पूर लिप्तसर्वांगम् ।।"

यह श्लोक उन्हीं का लिखा हुआ है । वो दुनिया को उस समय एक तरफ अद्वैत का पाठ पढ़ा रहे हैं, निराकार ब्रह्म का प्रचार कर रहें हैं और खुद इस प्रार्थना द्वारा सगुण साकार ब्रह्म श्री कृष्ण की भक्ति कर रहे हैं रो रो कर पुकार रहें हैं अपने इष्ट को ।
  शंकर जी से बड़ा भक्त भगवान श्री कृष्ण का समुचे ब्रह्मांड में कोई नहीं है । भक्तों में श्रेष्ठ है शंकर जी । 
तो महापुरूषों के व्यवहार में अगर हम जाएंगे तो बुद्धि काम करना बंद कर देगा । और नामापराध हो जाएगा । 
भगवान की बात तो छोड़िए उनके संत और महापुरूषों को समझना नामुमकिन है जब तक उनके शरण में जाकर उनके निर्देशित साधना ना करें कोई जीव ।

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।