ये जप , तप , योग , ध्यान , यज्ञ , हवन , मंत्र आदि सभी कलयुग में निष्प्रभावी हैं ।

ये जप , तप , योग , ध्यान , यज्ञ , हवन , मंत्र आदि सभी कलयुग में निष्प्रभावी हैं ।
कलियुग केवल हरि गुण गाहा । गावत नर पावत भव थाहा ।।
"कलियुग केवल नाम आधारा , सुमिरि सुमिरि नर उतरहुं पारा ।। - ( रामायण )"

लेकिन इसमें भी बहुत गहराई है । केवल मुख से नाम राम या कृष्ण या राधा लेना काफी नहीं । क्यूंकि कलयुग में बहुत के नौकर का नाम राम, रामु और नौकरानी का नाम राधा है ।
इसलिए केवल मुख से नाम लेना एक फिजिकल ड्रिल मात्र है । इससे काम कभी नहीं बनेगा ।

जिसका नाम लेंगें तो सबसे पहले उनका रूप मन में खड़ा करना होगा । जैसे राधा नाम लेना शुरू करने से पहले राधा रानी के रूप का ध्यान मन में लाना होगा । और प्रत्यक्ष ये मानना होगा की वो हमारे सामने खड़ी हैं और हम उनके आगे रो कर उनको पुकार रहें हैं । उनकी सेवा कर रहें हैं , चमर डोला रहें हैं या उनके आंगन को बुहार रहें हैं आदि । 

ये रोने में भी अंतर हैं ।
एक अपने दु:ख से दु:खी हैं और उनके सामने ,ध्यान करके रो रहें हैं । ऐसा रोने से कोई लाभ नहीं ।
अपने किसी आभाव के लिए रोना भक्ति कतई नहीं हैं ।
ऐसे आंसुओं से भगवान नहीं रिझते कभी ।

भक्ति में तो हमें अपने को परम निर्बल , दीन , हीन मानते हुए (जो हम सभी हैं हीं ) , भगवान श्री कृष्ण का प्रेम पाने के तड़प में रोना होगा ।
आंसु बहाकर रोना भगवान श्री कृष्ण और राधारानी के प्रेम या विरह में रोना असली रोना हैं ।
इसी को निष्काम भक्ति कहतें हैं ।
उनसे रिस्ता जोड़ना होगा । उनको मां बाप , या भाई बहन , या दोस्त , या उनको अपना बेटा बेटी , कोई भी रिस्ता मानना होगा फिर मिलने के लिए व्याकुल होकर तरपना होगा ।

निष्काम भक्ति से हीं भगवान का प्रत्यक्ष दर्शण होता है ।

वो बहुत से लोग रोतें भी हैं तो अपने दु:ख के कारण भगवान के आगे रोतें हैं , इससे भगवान की भक्ति कभी नहीं होगी ।

भक्त उसी को कहते हैं जो अति व्याकुल होकर , गिड़गिड़ाकर भगवान श्री कृष्ण राधारानी या राम सीता सभी एक हीं हैं से मिलने के लिए तरपे , रोए ।
दिखावा के लिए नहीं । असली आंसुओं की माला विरह में या उनसे प्रेम में ।
असली आंसु होना चाहिए । तब इसको भक्ति और ऐसे को भक्त कहतें हैं ।
वो आजकल मंदिर में जाने वाले को लोग भक्त बोल देतें हैं तीर्थ में जाने वाले को भक्त कहतें हैं , पुजा पाठ , जपी तपी कर्मकांडी आदि ना भक्त हैं और ना पंडित ।
लोग सभी को भक्त बोल देतें हैं इसलिए की शब्द का असली अर्थ लोग नहीं जानतें ।

कहहुं भक्ति पथ कवन प्रयासा। 
जोग ना जप तप व्रत उपवासा ।।
"कलियुग जोग यज्ञ नहिं ज्ञाना । 
एक आधार राम गुन गाना।

 - रामायण 


जो भगवान के प्रेम में रोए या उनके विरह में रोए , तरपे भगवान ऐसे भक्त के अधीन हैं ।

" अहं भक्त पराधीन ।" गीता में भगवान ने स्वयं कहा है कि जो व्यक्ति केवल मुझे पाने के लिए रोता है , मुझसे मिलने के लिए व्याकुल होता है केवल वही मेरा भक्त हैं । मैं केवल ऐसे हीं भक्तों का ख्याल रखता हूं ।

वांकी कितना भी रोए धन, स्त्री , निरोग काया , पद , पद्वी , पूत्र के लिए तो मैं उसके लिए मात्र उसके कर्म के अनुसार हीं फल देता हुं ।
अच्छा कर्म अच्छा फल , बुरा कर्म बुरा फल मिलेगा ही , ।
भगवान कहतें हैं कि व्यक्ति कितना भी रोए गाए या मुझे गाली दे । जो उसके भाग्य में मैंने लिखा है वह उसको मिलेगा हीं ।
लेकिन जो मुझे केवल चाहता हैं संसार के वैभव से या किसी भी दु:ख से विचलित नहीं होता और मुझको प्राप्त करने के लिए रोता हैं मैं उसपर विशेष कृपा करता हुं । उसका योगक्षेम खुद मैं बहण करता हुं। 

भगवान ने स्वयं कहा है । कि " ये जितने भी जप तप , योग , ज्ञानी , ध्यानी हैं जपी तपी योगी हैं पुजा पाठ करने वाले हैं । इन सबके तरफ मैं देखता भी नहीं ।
इनको तो इनके कर्मों के हिसाब से मेरी दास दासियां ( ग्रह नक्षत्र ) दंड और फल देतें हैं । चाहे इनको कितना भी चढ़ावा चढ़ाओ , ऐ सारे ग्रह ,‌नक्षत्र , देवी देवता , घुस नहीं खातें हैं ये बिकने वाले नहीं । ये सब देवी देवता , ग्रह नक्षत्र मेरा गुलाम है और मेरे बल से हैं संचालित ।

और रही बात कर्मकांड की तो मैंने हीं कर्मकांड का विधान साधारण जीवों के लिए बनाया है । कि कम से कम किसी प्रकार संसार में सुकर्म तो करें , किंतु कुछ लोग अगर सही सही इन कर्मकांडो को कर भी लेते हैं तो इनको अपने वल का अहंकार हो जाता हैं । और पतन हो जाता है ।
मैं तीर्थ किया , मैं जप किया मैं तप किया , हमेशा मैं मैं मैं ..... इसलिए मैं इनके तरफ देखता भी नहीं ।

मैं तो ऐसे कर्मकांडी को ज्ञानी को ,‌ध्यानी को बंदर के बच्चे की तरह रखता हुं बस । ऐ खुद अपने हाथों से बंदर के बच्चे की तरह मुझे पकडे रखतें हैं और जैसे हीं हाथ छुटता है गीर कर मर जातें हैं । मैं इन्हे कभी नहीं पकड़े रहता हुं । क्यूंकि ये अपने बल पर रहतें हैं ।

मैं तो बिल्ली के सामान अपने भक्त को संभालता हुं , पकड़े रखता हुं , केवल । जो खुद को दीन हीन पतित मान कर मेरी भक्ति करतें हैं ।
जैसे एक बिल्ली अपने कठोर दांतों से अपने बच्चे को पकड़ कर एक स्थान से दुसरे स्थान पर सुरक्षित करके रखता रहता है और बिल्ली का बच्चा अपने शरीर को ढ़ीला छोड़कर बिना हिले डुले खुद को अपने मां पर छोड़ देता है , ठीक उसी प्रकार मैं अपने परम शरणागत भक्त को जो खुद को निर्वल , दीन , हीन जानकर , खुद को मुझपर छोड़ देता हैं । मेरी शरण में आ जाता है , का खयाल रखता हूं हमेशा ।

चुंकि इनको मैं पकडे रहता हुं इसलिए मैं इनको कभी गिरने नहीं देता हूं।

इसलिए मैं केवल अपने वास्तविक सच्चे भक्त के अधीन हुं ।
मैं तो मानव के मन को नोट करता हुं , कर्म को नहीं , क्यूंकि पहले मन में संकल्प उठाता है तभी लोग कर्म करते हैं ।
मैं मुख में राम और मन में पाप बिचार रखने वाले का घोर पतन करा देता हूं ।
लोग अज्ञानता बस गलत शास्त्रों और गलत ज्ञान कराने वाले पंडितों की बातों को मान कर अर्थ का अनर्थ करके तंत्र मंत्र , पुजा पाठ आदि करके अपना समय नष्ट करतें रहतें हैं कलयुग में । इससे कोई फायदा नहीं ।

"निर्मल मन जन सो मोहीं पावा 
मोही कपट छल छिद्र ना भावा ।" - रामायण 

और हां मेरे भक्तों के प्रति जो दुर्भावना करतें हैं उनको मैं कठोर दंड देता हूं । उनको कष्ट पहुंचाने वाले को मैं कभी माफ नहीं करता । चाहे वो मेरा पुत्र ब्रह्मा हीं क्यूं नहीं ।
मैं अपने भक्तों को सबसे ज्यादा प्यार करता हुं ।"
:- मां के प्रवचन का अंश ।

श्री राधे ।

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।