प्रश्न: क्या गुरु - भक्ति से भगवत्प्राप्ति हो जायेगी ?
प्रश्न: क्या गुरु - भक्ति से भगवत्प्राप्ति हो जायेगी ?
उत्तर : गुरु की भक्ति से भगवत्प्राप्ति अपने आप हो जायेगी लेकिन दोनों को साथ रखना चाहिए। क्यों? इसलिये कि केवल गुरु की भक्ति करने में हमारी निष्ठा सदा दृढ़ नहीं रह सकती। डाँवाडोल अवस्था होगी क्योंकि वो प्रत्यक्ष है। भगवान् तो प्रत्यक्ष है नहीं। जब भगवान् प्रत्यक्ष होता है तो उसमें भी दोष बुद्धि होती है हमारी। ऐसे ही गुरु में दोष बुद्धि होगी। तो दोनों की भक्ति जब साथ-साथ करोगे तो मन शुद्ध होता जायेगा और भगवान् की लीलाओं में भी मन जल्दी लगेगा। श्रीकृष्ण की बाल लीलायें हैं, अनेक प्रकार की लीलायें हैं जिसमें जिसकी जैसी रुचि हो अपनी-अपनी रुचि के अनुसार मन का प्रेम होना चाहिये।
प्रश्न : गुरु जीव पर अहेतुकी कृपा क्यों करता है?
उत्तर : गुरु जीव पर अहेतुकी कृपा करता है जिससे जीव भगवत्प्राप्ति अर्थात् आनन्द प्राप्ति कर सके, क्योंकि प्रत्येक जीव आनन्द चाहता है और वह उसे संसार में ढूँढ़ रहा है, जहाँ आनन्द नहीं है। अतः गुरु ही अहेतुकी कृपा कर उसे सही रास्ता ही नहीं बताता बल्कि उसे उस गन्तव्य स्थान पर पहुँचा भी देता है
प्रश्न: गुरु जीव पर कृपा कैसे करता है ?
उत्तर: कृपा जीव की शरणागति पर निर्भर करती है। शरणागति मन और बुद्धि की होनी है क्योंकि इन्हीं के आधीन जीवात्मा रहती है या यों कह लीजिये कि जीवात्मा कोई कार्य नहीं करती और मन एवं बुद्धि के द्वारा कार्य हुआ करते हैं। गुरु शरणागत जीव को भगवान् की ओर उन्मुख करता है, उसको पात्र बनाता है, पात्र बनने के बाद उसमें भगवान् का दिव्य प्रेम देता है और भगवान् से मिलाता है। इसे यों समझें
जीव एक टीन की चादर के समान है जो मन और बुद्धि रूपी मालिक के आधीन है। जब मालिक राजी हो जाता है। तब उस टीन को कोई छू सकता है अर्थात् मन-बुद्धि के निर्णयानुसार गुरु आत्मा रूपी टीन को टेढ़ी रखता है, जिस पर पानी भी नहीं रुकता। उस टीन को टेढ़ी कर देता है जिस पर कुछ बूँद पानी कुछ समय तक रुक सकता है, फिर उस
टीन को तवा रूप में परिणित करता है जिसमें और अधिक पानी रुक सकता है और इस प्रकार एक दिन अच्छा सा कटोरे के आकार का बना देता है जिसमें खूब पानी काफी मात्रा में रुक सकता है। गुरु कटोरे को इस प्रकार बनाता है। कि उस पानी के भरने के बाद कटोरा इस माया रूपी भवसागर पर तैरता रहता है, कभी डूबता ही नहीं। और इतना ही नहीं, वह कटोरे की बाहरी सतह इस प्रकार कर देता है कि उस पर माया रूपी समुद्र का पानी भी कुछ असर नहीं कर पाता। परन्तु इस प्रकार का गुरु द्वारा बर्तन बनाने में एक शर्त है, जीव की शरणागति। मतलब यदि जीव के मन-बुद्धि बीच में ही अपना निर्णय कर लें कि बस अब हमें तवे के बाद या बीच की किसी भी अवस्था के बाद और आगे बर्तन नहीं बनवाना है तो गुरु कुछ भी नहीं कर सकता और इस प्रकार का अधूरा बर्तन समुद्र की तेज लहरों से उसमें कभी भी डूब सकता है। फिर भी गुरु अपनी अहैतुकी कृपा से या मन बुद्धि के फिर शरणागत होने पर गुरु फिर से समुद्र में डुबकी लगाकर अर्थात् संसार में अवतार लेकर फिर बर्तन को ठीक करके प्रेम दान दे देता है। अर्थात् जीव को भगवत्प्राप्ति के लिये केवल पूर्ण शरणागति (गुरु के प्रति) को छोड़ कर कुछ भी नहीं करना, बाकी सब तो गुरु ही करता है और वह भी अहैतुकी कृपा की आदत होने के कारण से संत कृपा कह कर नहीं, करके दिखाते हैं।
जिस महापुरुष के सान्निध्य से हृदय में भगवत्प्रेम बढ़ने लगे एवं हृदय पिघलने लगे, समझो कि वे वास्तविक संत हैं। कृपालु के साथ दो चाल नहीं चलेंगी कि मुझको भी हृदय में रखो और गलतियाँ भी करते जाओ। मुझे अपने हृदय से निकाल दो तब गलतियाँ करो।
:- श्री कृपालु महाप्रभु जी
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