पर उपदेश कुशल बहुतेरे!

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जब तक माया नहीं जाएगी तब तक जीव भगवान को नहीं जान सकता , उन्हें पाना तो बहुत दुर कि बात है, बड़े बड़े सरस्वती बृहस्पति तथा स्वर्ग के देवी देवता भी माया के अधीन है, संसार के ज्ञानियो की कौन कहे, और माया का गुण है अहंकार, जब तक माया नहीं जाएगी तब तक अहंकार जीव पर हावी रहेगा , वो स्वयं को बहुत बड़ा बुद्धिमान मानेगा, समर्थ मानेगा , और यही सबसे बड़ी मुर्खता का पहचान है, स्वयं को सबसे अधिक ज्ञानी मानना सबसे बड़ी मुर्खता है । दीनता ,विनम्रता, सहिष्णुता स्वयं को छोटा मानना और दुसरे को सम्मान देना भगवान की ओर चलने वाले का प्रथम गुण है । 

शंकराचार्य के पास एक व्यक्ति आया, मैं ओरिजनल जगद्गुरु शंकाराचार्य की बात कर रहा हुं , वो आजकल के गद्दीधारी किसी शंकराचार्य की नहीं, तो उसने शंकराचार्य जी से कहा मैने सभी शास्त्रों का अध्ययन किया है , ज्ञान प्राप्त किया है , तप व्रत उपवास, दान , यज्ञ, योग जप आदि किया है , मुझे अपना शिष्य बना लीजिए , मुझे दीक्षा दिजिए । बैधी भक्ति के लिए गुरू अपने शिष्य को दीक्षा देते हैं, और दीक्षा के लिए गुरू सबसे पहले शिष्य की पात्रता देखते हैं, उसमें दीनता , नम्रता , सहिष्णुता अहंकार शून्यता आदि का गुण है या नहीं , वो आज की तरह नहीं कि जो भी आया गुरू उसका कान फुक कर अपना चेला बना लिया । 
तो शंकराचार्य ने उसके पात्रता की परीक्षा लिया , उन्होने कहा तुम कल आना ।
और पीछे से एक भंगी ( सड़क पर झाड़ू लगाने वाले को ) को बुला कर कहा कि देखो कल जब ये मेरे पास आए तो इसके उपर तुम कुड़ा कचड़ा फेंक देना ! 

कल जब वो शंकराचार्य के पास आ रहा था दीक्षा के लिए तो रास्ते में उस भंगी ने उसके उपर कुड़ा फेंक दिया । यह देख कर उसने उस भंगी को क्रोध के साथ मारने दौड़ा । 

शंकराचार्य ने कहा तुमने उस भंगी को मारने दौड़ा है , तुम अधिकारी नहीं हो मेरा चेला बनने के , जाओ जाकर एक साल तक एकांत में साधना करो । 
साधना के एक साल बाद जब वो शंकराचार्य के पास लौट रहा था दीक्षा के लिए , इस बार फिर शंकराचार्य के निर्देशानुसार भंगी ने उसके उपर कुचड़ा फेंक दिया , अबकी बार वो उसे मारने तो नहीं दौड़ा , लेकिन उसने भंगी पर क्रोध किया , दो चार अपशब्द सुनाया । 
शंकराचार्य ने फिर उसे कहा तुमने उस पर क्रोध किया है इसलिए फिर जाओ एक साल तक साधना करो । 
एक साल बाद फिर जब वो लौट रहा था शंकराचार्य के पास , तो अबकी बार भी भंगी ने शंकराचार्य के निर्देशानुसार उसके उपर कुड़ा फेंक दिया । 
इस बार वो न तो क्रोध किया और न ही कुछ बोला , लेकिन मन ही मन भंगी के प्रति थोड़ा दुर्भावना किया । 
शंकराचार्य ने कहा हां इस बार तो तुमने बाहर से शालिनता का व्यवहार किया है लेकिन भीतर हीं भीतर तुम उसके प्रति गुर्रा रहे थे , अभी भी तुम पात्र नहीं हुए हो , जाओ फिर एक साल तक एकांत साधना करो । 
अबकी बार जब वो साधना से लौटा तो भंगी ने फिर उसके उपर कुड़ा फेंक दिया । 
इस बार उसने जाकर उस भंगी का पैर पकड़ कर रोने लगा और कहा कि मेरी प्रथम गुरू तो आप ही हैं , आप ही के कृपा से मेरे अंदर का अहंकार नष्ट हुआ है , मैं आपके इस उपकार का ऋण नहीं चुका सकता, कृप्या मेरे सभी पिछले अपराधों को माफ कर दें नहीं तो मैं आपका पैर नहीं छोड़ूंगा । 

यह देख कर इस बार शंकराचार्य ने उसे अपने गले से लगा लिया और उसको दीक्षा देकर अपना शिष्य स्वीकार कर लिया । 

तो आजकल चेला की कौन कहे , बड़े बड़े स्वयं को ज्ञानि समझने बाले गुरू खूद अहंकार में डूबे हुए हैं उनको खूद के प्रतिष्ठा कि चिंता और सम्मान का भुख है, जो स्वयं अहंकार में उन्मत्त हो, वो दूसरे को कर्म-धर्म वैराग्य, शास्त्र-ज्ञान तथा भक्ति का उपदेश भला क्या देगें , और भला दुसरे का कल्याण कैसे करेंगे ? 
वास्तविक संत और महापुरुष न तो किसी भी जीव को श्राप देता है और न अनाधिकारी जीव को दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाता है । 
जो जितना अहंकार में उन्मत्त है वो उतना‌ भगवान से दुर है । ऐसे शब्दक ज्ञानियों से उदासिन रहना श्रेयकर है । 
भगवान राम ने स्वयं कहे हैं :- 

जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई । 
मोरें सनमुख आव कि सोई ॥ 

पापवंत कर सहज सुभाऊ |
भजन मोर तेहि भाव न काऊ ||

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।

जिन्हके कपट दंभ नहीं माया। 
तिन्हके ह्रदय बसही रहघुराया।। 

:- श्री कृपालु जी महाप्रभु द्वारा दिए गए तत्वज्ञान से ।

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