पंचम मूल जगद्गुरु उत्तमई 1008 स्वामी श्री कृपालु जी महाराज।
काशी विद्वत परिषत द्वारा जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगद्गुरु' तथा उपाधियों की व्याख्या:
'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण'
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिये गये प्रवचन एवं संकीर्तनों में उनका यह स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को भी जनसाधारण के लिये बोधगम्य बनाना उनकी प्रवचन शैली की विशेषता है। गूढ़ से गूढ़ शास्त्रीय सिद्धान्तों को इतनी मनमोहक सरल शैली में प्रस्तुत करते हैं कि मन्द बुद्धि वाले भी निरंतर श्रवण करने से ऐसे तत्वज्ञ बन जाते हैं जो बड़े-बड़े विद्वान तार्किकों को भी तर्कहीन कर देते हैं।
सरलता और सरसता के साथ साथ दैनिक जीवन के क्रियात्मक अनुभवों का मिश्रण उनके प्रवचन की बहुत बड़ी विशेषता है। बोलचाल की भाषा में ही; जिसमें कुछ अंग्रेजी के शब्द भी आ जाते हैं, वह कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को जीवों के मस्तिष्क में भर देते हैं। श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष ही ऐसा करने में सक्षम हो सकता है। जब प्रवचनों में प्रमाण स्वरूप शास्त्रों वेदों के श्लोक बोलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो समस्त शास्त्र वेद उनके सामने उपस्थित हैं और वे एक के बाद एक पन्ने पलटते जा रहे हैं।
जितने भी आचार्य श्री के द्वारा ग्रन्थ प्रकट किये गये हैं चाहे वह गद्य में हों अथवा पद्य में, उन सभी में शास्त्रों वेदों के गूढ़तम रहस्यों को बहुत ही सरलता व सरसता से प्रतिपादित किया गया है। प्रत्येक ग्रन्थ नाना पुराण निगमादि सम्मत तो हैं ही, साथ ही अपने आप में अप्रत्यक्ष रूप से ब्रम्हसूत्र का भाष्य ही है। गौरांग महाप्रभु ने भागवत को ब्रम्हसूत्र भाष्य के रूप में स्वीकार किया है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित प्रत्येक ग्रन्थ ही भागवत, वेद, पुराण, गीता आदि का पूर्णरूपेण सरलतम रूप है, जो इस कलिकाल के मन्द से मन्द बुद्धि वालों के लिये भी ग्राह्य है। पद्य में विषय अधिक बोधगम्य हो जाता है क्योंकि संकीर्तन में ही श्रवण भक्ति का भी समावेश हो जाता है। पूर्ण तत्वज्ञान युक्त पदों का पुनः पुनः गान करने से बुद्धि में विषय स्वाभाविक रूप से बैठ जाता है, जो जीव को भक्तियोग की क्रियात्मक साधना की ओर स्वतः प्रेरित करता है। साहित्य के विषय में कुछ भी लिखना प्राकृत बुद्धि से संभव नहीं है, बस इतना ही कहा जा सकता है कि इनका प्रत्येक ग्रन्थ गागर में सागर ही है। इनका साहित्य ऐसा प्रेमरस सिन्धु है जिसमें अवगाहन करने पर शुष्क से शुष्क हृदय भी ब्रजरस में डूब जाता है। हृदय श्रीराधाकृष्ण प्रेम में विभोर हो जाता है तथा युगल झाँकी के दर्शन की लालसा तीव्रातितीव्र होती जाती है। सत्य ही है, उनके प्रत्येक ग्रन्थ को यदि ब्रम्हसूत्र का भाष्य कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित ब्रजरस साहित्यों की सूची इस प्रकार है : प्रेम रस मदिरा (पद ग्रन्थ), राधा गोविन्द गीत (दोहा ग्रन्थ), श्यामा श्याम गीत (दोहा ग्रन्थ), भक्ति-शतक (दोहा ग्रन्थ), युगल शतक (कीर्तन ग्रन्थ), युगल रस (कीर्तन ग्रन्थ), ब्रज रस माधुरी (4 भाग, कीर्तन ग्रन्थ), श्री राधा त्रयोदशी (पद ग्रन्थ), श्री कृष्ण द्वादशी (पद ग्रन्थ), युगल माधुरी (कीर्तन ग्रन्थ)
इनके अलावा गद्य अथवा उनके प्रवचन के लिखित रूप पर आधारित प्रेम रस सिद्धान्त, भक्ति-शतक, सेवक सेव्य सिद्धान्त, मैं कौन मेरा कौन, नारद भक्ति दर्शन, दिव्य स्वार्थ, कृपालु भक्ति धारा, कामना और उपासना आदि अगणित साहित्यों में से कोई भी ग्रन्थ पढ़ने के पश्चात पाठक के लिये कोई भी ज्ञातव्य ज्ञान शेष नहीं रह जाता। भक्तिमार्गीय साधक के लिये जितना ज्ञान आवश्यक है, वह सम्पूर्ण रूप में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित प्रवचन, संकीर्तन तथा साहित्यों में उपलब्ध है।
अतः काशी विद्वत परिषत द्वारा प्रदत्त उपाधि 'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण' श्री कृपालु जी के व्यक्तित्व में सत्यशः परिलक्षित होता है। हम सभी का सौभाग्य है कि उनके द्वारा प्रदत्त दिव्यज्ञान से लाभ प्राप्त कर अपना आत्मिक कल्याण करने का सुअवसर हमारे हाथ में है।
'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य'
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। इन्होंने जो वेदमार्ग प्रतिष्ठापित किया है, वह सार्वभौमिक है। वैदिक सिद्धान्तों के सार को प्रकट करते हुये जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भगवत्प्राप्ति के सर्वसुगम सर्वसाध्य मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इन्होंने वेदों, शास्त्रों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों में जो मतभेद सा है, उसका पूर्णरूपेण निराकरण करके बहुत ही सरल मार्ग की प्रतिष्ठापना की है, जो कलियुग में सभी जीवों के लिये ग्राह्य है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार यद्यपि ईश्वरप्राप्ति के अन्य मार्ग भी हैं तथापि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ व सर्वसुलभ मार्ग है। आपकर अनुसार कलियुग में एकमात्र नाम-संकीर्तन की ही साधना निर्धारित की गई है। यदि यह भी मान लें कि कलियुग में अन्य साधनों से भगवत्प्राप्ति हो सकती है तब भी विचारणीय हो जाता है कि इतने अमूल्य, सरस एवं शीघ्र फल प्रदान करने वाली संकीर्तन साधना को छोड़कर क्लिष्ट अन्य साधनाओं में प्रवृत्त होने में बुद्धिमत्ता ही क्या है।
आपके मतानुसार तो 'स्वसुखवासना गन्धलेशशून्य श्रीकृष्ण सुखैक तात्पर्यमयी' सेवा ही जीव का लक्ष्य है अर्थात अपने सेव्य के सुख के लिये ही उनकी नित्य निष्काम सेवा प्राप्त करना ही जीवमात्र का परम लक्ष्य है। जो रसिक महापुरुष की अनन्य शरणागति पर उनकी अहैतुकी अकारण करुणा से ही प्राप्त होगा।
०० जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया 'श्रुति-सारांश'
"...ब्रम्ह, जीव एवं माया तीनों ही सनातन हैं। एवं जीव तो ब्रम्ह की परा शक्ति है, चेतन है। माया तो ब्रम्ह की अपरा शक्ति है, जड़ है। दोनों शक्तियों का शासक ब्रम्ह है।
ब्रम्ह की चेतन शक्ति होने के कारण, जीव को ब्रम्ह का अंश कहा गया है। ब्रम्ह एवं आनंद पर्यायवाची हैं, अतः जीवशक्ति, आनंद का अंश हुआ। इसी से प्रत्येक आनंदांश जीव अपने अंशी आनंद श्रीकृष्ण को ही स्वभावतः चाहता है। साथ ही अनादिकाल से प्रतिक्षण आनंदप्राप्ति के हेतु ही प्रयत्नशील है। किंतु उपाय से अनभिज्ञ है।
आनंदकंद श्रीकृष्णचंद्र की प्राप्ति से ही वह दिव्यानंद प्राप्त होगा। वह श्रीकृष्ण प्राप्ति केवल भक्ति से ही होगी। भक्ति निष्काम होनी चाहिये तथा उसमें अनन्यता भी होनी चाहिये।
तदर्थ श्रीगुरु एवं राधाकृष्ण का रूपध्यान करते हुये रोकर उनका नाम गुणादि संकीर्तन करना चाहिये। इससे अन्तःकरण शुद्ध होगा। तब स्वरूप शक्ति से अन्तःकरण दिव्य बनेगा। तब गुरु द्वारा दिव्य प्रेम दान होगा। तब माया निवृत्ति एवं दिव्यानंद प्राप्ति होगी।
(भवदीय, जगद्गुरु: कृपालु:)
कलियुग के हम पामर जीव इन दिव्य वचनों से निश्चय ही आत्मकल्याण का अति सुगम मार्ग प्राप्त कर सकते हैं, जिस पर श्रद्धापूर्वक आरूढ़ होकर चलने से हम भी भगवान के दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश कर सकेंगे तथा अनादिकाल के दुःख-क्लेश आदि से निवृत्ति प्राप्त करेंगे।
'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य'
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरु हैं। उनके जन्मदिवस को विश्व में 'जगद्गुरूत्तम-जयंती' के रूप में मनाया जाता है। 1957 में मकर संक्रान्ति के दिन उन्हें 'जगद्गुरूत्तम' की उपाधि प्राप्त हुई, यह दिन 'जगद्गुरूत्तम-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना भक्तिप्राधान्य समन्वयवादी सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, अतएव उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।
जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में चित्रकूट में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलन में ही आचार्य श्री का यह स्वरूप प्रकट हो गया था। 1956 में कानपुर में आयोजित द्वितीय महाधिवेशन में काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी भी उपस्थित थे। उन्होंने विद्वत् परिषत् के अन्य विद्वानों से सहमति करके उन्हें काशी विद्वत् परिषत् आमंत्रित किया। जहाँ विद्वत् परिषत् ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -
(1) समस्त मौलिक जगद्गुरुओं में जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे जगद्गुरु हैं जिन्हें इस उपाधि से विभूषित किया गया है।
(2) इस उपाधि का तात्पर्य है कि उन्होंने समस्त दर्शनों अर्थात् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, उपनिषदों तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों एवं साथ ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगद्गुरुओं के परस्पर विरोधाभासी सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए उनका समन्वयात्मक रूप प्रस्तुत किया।
(3) समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कलियुग में भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति के लिए 'भक्तिमार्ग' की ही प्राधान्यता स्थापित की है। इस सिद्धांत को उन्होंने वेदादिक ग्रंथों का प्रमाण देते हुए सिद्ध भी किया है।
(4) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कभी भी किसी वेद-शास्त्र आदि का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्हें समस्त वेद-शास्त्र कंठस्थ थे। अपने प्रवचनों में वे इन वेदादिक-ग्रंथों के प्रमाण धाराप्रवाह नंबर सहित बोलते थे। प्रसिद्ध विचारक, लेखक और आलोचक श्री खुशवन्त सिंह ने इन्हें 'कंप्यूटर जगद्गुरु' की संज्ञा दी है।
(5) समस्त जगद्गुरुओं ने शंकराचार्य जी के अद्वैत मत का खंडन किया किन्तु समन्वयवादी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने उनके इस सिद्धांत का खंडन तो किया लेकिन उनके जीवन में भक्ति के क्रियात्मक स्वरूप को उजागर किया। बोलने मात्र का भेद है। वस्तुतः शंकराचार्य जी ने भी अपने अंतिम जीवन में श्रीकृष्ण-भक्ति ही की थी। उन्होंने अंतःकरण शुद्धि के लिए कहा था -
'शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते।'
(प्रबोध सुधाकर)
अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अंतःकरण शुद्धि नहीं हो सकती।
उन्होंने अपने शिष्य से यह भी कहा था कि एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है - 'कामारि-कंसारि-समर्चनाख्यम्'। अपनी माता को शंकराचार्य जी ने श्रीकृष्ण भक्ति का उपदेश किया और स्वयं दुन्दुभिघोष से यह कहा था -
काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम्, केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभिः ।
अस्माकं यदुनंदनांघ्रियुगलध्यानावधानार्थिनाम्, किं लोकेन् दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम् ।।
अर्थात् सकाम भक्ति करने वाले भोले लोग स्वर्गप्राप्ति हेतु सकाम कर्म करें, मैं नहीं करता एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों, हमें नहीं चाहिए। हम तो आनंदकंद श्रीकृष्णचरणारविन्दमकरंद के भ्रमर बनेंगे।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी के श्रीकृष्णभक्ति संबंधी श्लोकों को अपने प्रवचनों में उद्धरित करके जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज यही सिद्ध करते हैं कि श्री शंकराचार्य जी प्रच्छन्न श्रीकृष्ण भक्त ही थे।
(6) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और वेदादिक ग्रंथों के अनर्थ कर देने से प्रचलित गलत मार्गों यथा- गुरुडम आदि का पुरजोर विरोध किया और शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा उसकी वास्तविकता को विश्व के समक्ष रखा।
ऐसे जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज के विलक्षण समन्वयवादी स्वरूप को देखकर काशी विद्वत् परिषत् के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी ने 1956 में सार्वजनिक रुप से घोषणा करते हुए कहा था -
'इतनी छोटी अवस्था में इन्होंने सब वेदों शास्त्रों का इतना विलक्षण ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह मैंने इससे पूर्व कभी भी स्वीकार नहीं किया था। किन्तु कल का प्रवचन सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। उन्होंने समस्त दर्शनों का विवेचन करके जिस विलक्षण ढंग से भक्तियोग में समन्वय किया है वह अलौकिक था, दिव्य था। इस प्रकार का प्रवचन भगवान् की देन है। इस प्रकार की प्रतिभा एवं इस प्रकार का ज्ञान कोई स्वयं अर्जित नहीं कर सकता। आप लोगों का यह परम सौभाग्य है कि ऐसे दिव्य वाङ्गमय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके मध्य आये हैं..'
साथ ही समस्त विद्वानों ने नतमस्तक होकर यह स्वीकार किया था -
'शास्त्रार्थ तो मनुष्य से किया जाता है, ये मनुष्य तो हैं नहीं। इनसे हम क्या शास्त्रार्थ कर सकते हैं??'
तुलसीदास जी की काव्यकला के लिए कहा गया है -
'कविता करि के तुलसी न लसे, कविता लसि पा तुलसी की कला..'
इसी प्रकार 'जगद्गुरूत्तम' की उपाधि से कृपालु जी नहीं अपितु कृपालु जी को पाकर 'जगद्गुरु' की उपाधि ने सम्मान पाया है।
'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्सम्प्रदायपरमाचार्य'
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज शिष्य भी नहीं बनाते और सम्प्रदाय भी नहीं चलाते। उनके अनुसार यह सब उचित नहीं है। वे कहते हैं सम्प्रदायों में परस्पर द्वेष फैलता है। वे सभी संप्रदायाचार्यों के सिद्धान्तों का पूरा समन्वय करते हैं।
उन्होंने आज तक किसी को मन्त्रदान नहीं दिया। अमेरिका में एक बहुत बड़े पादरी ने आपसे प्रश्न किया कि आपके कितने लाख शिष्य हैं? इनका उत्तर सुनकर वह आश्चर्य चकित हो गया जब इन्होंने मुसकुराते हुये उत्तर दिया - एक भी नहीं। उसने पुनः प्रश्न किया, आप वर्तमान मूल जगद्गुरु हैं और आपका एक भी शिष्य नहीं। क्या आप कान नहीं फूँकते? जगद्गुरु श्री कृपालु जी ने उत्तर दिया - नहीं, मैं कान नहीं फूँकता।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कोई भी नया सम्प्रदाय नहीं चलाया। वे कहते हैं तीन सनातन तत्व हैं - ईश्वर, जीव और माया। अतः दो ही क्षेत्र हैं - ब्रम्ह श्रीकृष्ण एवं मायिक जगत। मन ही शुभाशुभ कर्म का कर्ता है। यदि मन श्रीकृष्ण में लगा दिया जाय तो श्रीकृष्ण सम्बन्धी ज्ञान (सर्वज्ञता) एवं आनंद (दिव्य अनंत) प्राप्त होगा। यदि मायिक जगत में मन लगा रहेगा तो अज्ञान एवं दुःख ही प्राप्त होता रहेगा। अतः जो भगवान में ही शाश्वत सुख मानते हैं तदर्थ निरंतर प्रयत्नशील हैं वे 'भगवत्सम्प्रदाय' वाले हैं और जो इसके विपरीत मायिक जगत में मन को लगाते हैं वे 'माया के सम्प्रदाय' वाले हैं, और कोई सम्प्रदाय ही नहीं, हो ही नहीं सकता। इनको 'श्रेय और प्रेय' भी कहते हैं।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार, सत्य मार्ग यह है कि जीव एकमात्र पूर्णतम पुरुषोत्तम आनन्दकन्द सच्चिदानन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में ही अपने आपको समर्पित कर दें, एवं उन्हीं के नाम, गुण, लीलादिकों का स्मरण करता हुआ रोमांचयुक्त होकर, आनंद एवं वियोग के आँसू बहावे। अपने हृदय को द्रवीभूत कर दे, तथा मोक्ष पर्यन्त की समस्त इच्छाओं का सर्वथा त्याग कर दे। इस प्रकार बिना किये अन्तःकरण शुद्धि नहीं हो सकती। सत्य एवं दया से युक्त धर्म एवं तपश्चर्या से युक्त विद्या भी भगवान की भक्ति से रहित जीव को पूर्णतः शुद्ध नहीं कर सकती।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज सम्प्रदायवाद से दूर रहकर, शिष्य परम्परा से भी दूर हटकर केवल श्रीकृष्ण की निष्काम भक्ति के लिये ही जीवों को निर्देश देते हैं। उन्होंने अपने 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ में लिखा है :::
सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान।
मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान।।
कर्म, ज्ञान अरु योग को, जो भी फल श्रुति गाय।
अनायास बिनु माँगे भगत, सकल फल पाय।।
सौ बातन की बात इक, धरु मुरलीधर ध्यान।
बढ़वहु सेवा वासना, यह सौ ज्ञानन ज्ञान।।
यही 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदाय' है। अतः आचार्य श्री को 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य' की उपाधि से अलंकृत किया गया।
'भक्तियोगरसावतार'
शरद पूर्णिमा की पावन रात्रि में आविर्भूत श्री कृपालु जी महाराज पंचम् मूल जगद्गुरु तो हैं ही, वे स्वयं भक्तिरस के अवतार हैं। काशी विद्वत् परिषत् के द्वारा उन्हें प्रदान की गई उपाधियों में एक उपाधि 'भक्तियोगरसावतार' भी है। कलिकाल के प्रभाव से जनमानस भगवन्नाम-संकीर्तन के माहात्म्य को भूलता जा रहा था। दूसरी ओर नाना प्रकार के मत, नाना प्रकार के साधन समाज में प्रचलित होने लगे जिससे लोग दिग्भ्रमित होने लगे। ऐसे समय में ऐसे ही किसी अवतार की आवश्यकता थी जो लोगों के हृदय में पुनः भक्ति की ज्योति जगाये और आध्यात्मिक रुप से पुनर्जीवित करे। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज वही अवतार हैं जिन्होंने कलिकाल में भक्ति की प्राधान्यता और वास्तविकता स्थापित की।
उनके रोम-रोम से भक्तिरस की धारा प्रवाहित होती थी। जब वे 16 साल के थे, तब से ही उनका भक्तिमय व्यक्तित्त्व अधिकारी जनों के समक्ष प्रकाशित होने लगा था। वे अधिकारीजन इन्हें सदा श्रीराधाकृष्णप्रेम में भवाविष्ट पाते। बाह्य जगत के ज्ञान से शून्य इनके शरीर में भक्ति की सर्वोच्च अवस्था महाभाव के लक्षण रह-रहकर प्रकट होते जिसके दर्शन कर हृदय में अदभुत रोमांच भर उठता था। ऐसी प्रेममय दशा देखकर अनायास ही प्रेमावतार श्री गौरांग महाप्रभु जी की याद आती थी जिन्होंने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी जी को वचन दिया था -
'आरो दुइ जन्म एइ संकीर्तनारम्भे, हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे'
(चैतन्य भागवत)
'एइ अवतारे भगवत रुप धरि, कीर्तन करिया सर्व शक्ति परचारि..
संकीर्तने पूर्ण हइव सकल संसार, घरे घरे हइव प्रेम भक्ति परचार..'
(चैतन्य भागवत)
लगता था कि वही गौरांग पुनः अपने जीवों को प्रेम का दान करने आ गए हैं। उत्तर प्रदेश के मनगढ़ नामक ग्राम में परम सौभाग्यवती माँ भगवती की गोद में शरद पूर्णिमा की रात्रि में जन्में श्री कृपालु जी का बालपन अनोखी लीलाओं से भरा है। उनकी बाल-लीलाओं को देखकर ऐसा लगता था जैसे कि बाल-कृष्ण ही साक्षात् लीला कर रहे हैं। जगद्गुरु बनने से पूर्व अक्सर ही भावाविष्ट अवस्था में जंगल की ओर निकल पड़ते थे। प्रेमानंद आस्वादन में निमग्न वे चित्रकूट के पावन वनों में महीनों-महीनों विचरा करते, उनकी उस दशा का यथार्थ वर्णन लेखनी के द्वारा संभव नहीं है। कभी वहाँ वे प्रिया-प्रियतम के रूपदर्शन में निमज्जित रहते तो कभी उनके अन्तर्धान से परम व्याकुल होकर करुणापूर्वक चीत्कार करते। जिन्होंने भी जब भी इन्हें उन जंगलों में देखा तो यही देखा कि कभी ये भूमि पर मूर्च्छित पड़े हैं, कभी करुणक्रन्दन कर रहे हैं तो कभी राहों पर बिखरे कंकण और काँटों पर भी प्रिया-प्रियतम के विरह में समाधिस्थ हैं।
चित्रकूट और शरभंग आश्रम तथा वृन्दावन के निकट के जंगलों में इनका यह रूप जंगल के पेड़-पौधों और जंगली जीव-जंतुओं के हृदय में भी प्रेम का संचार कर देता था। उनकी इस अलौकिक दशा का जब लोगों को पता लगना शुरू हुआ तो उनका वहाँ पहुँचना प्रारम्भ हो गया। उन्होंने जैसे तैसे इन्हें मनाकर अपने घरों में लाने की कोशिश की किन्तु ये पुनः जंगलों की ओर ही निकल पड़ते थे और पुनः -पुनः उसी समाधिस्थ अवस्था में चले जाते, हुँकार भरते, उच्च अट्टहास करते, अविरल अश्रुपात करते। यद्यपि वे इस अवतार में जीव-कल्याण के उद्देश्य को लेकर आये थे अतएव भक्तों के द्वारा इस ओर ध्यानाकृष्ट करने पर वे आम लोगों के संपर्क में आने लगे। जंगलों से आमजन के मध्य में आने के पश्चात् इन्होंने साहित्य एवं आयुर्वेद का अध्ययन किया। इस समय भी वे कभी 7 दिन, कभी 15 दिन, कभी एक महीने तो कभी 4-4 महीने का अखंड संकीर्तन कराते। भावविष्ट जब ये राधाकृष्ण की लीलास्थली वृन्दावन पहुँचे थे, तब वहाँ पहुँचते ही प्रेमातिरेक में उस पावन ब्रजरज में लोटपोट होकर बिलखने लगे। कभी उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते, कभी लीलाविष्ट हो जाते और कभी सुध खोकर गिर पड़ते। राधा गोविन्द नामों और हरि बोल का संकीर्तन उस वक्त अद्भुत रस का संचार कर देता था।
यह तो ऐसे अलौकिक महापुरुष की उस अलौकिक अवस्था का किंचितमात्र ही वर्णन है। वस्तुतः वह लेखनी का विषय ही नहीं है, न उसके वर्णन की पात्रता किसी में हो सकती है। काशी विद्वत् परिषत् के 500 मूर्धन्य विद्वानों के समक्ष अद्वितीय रूपमाधुरी, काले घुँघराले केशों और गौर वर्ण के ये कृपालु जब उपस्थित हुए तो इनके रोम-रोम से भक्तिरस की बहती धारा को देखकर मंत्रमुग्ध विद्वत्सभा ने एकमत होकर यह स्वीकार किया कि ये तो स्वयं भक्ति महादेवी ही इनके रूप में साक्षात् विराजित है। वहाँ अपने व्याख्यानों में आपने समस्त वेदों-शास्त्रों और अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार बताते हुए कलियुग में एकमात्र भक्ति को ही जीव-कल्याण का साधन सिद्ध किया, आपको विद्वत् परिषत् की ओर से 'भक्तियोगरसावतार' की उपाधि प्रदान की गई।
जगद्गुरु बनने के उपरान्त आपने राधाकृष्ण की उस माधुर्यमयी भक्ति के सिद्धांत का जन-जन में प्रचार किया। कलियुग के इस चरण में जीवों को भक्ति के लिए तत्वज्ञान की परम अनिवार्यता को जानकर आपने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों और अन्यान्य धर्मग्रंथों के वास्तविक रहस्य को संसार के मध्य बारम्बार प्रकट किया। वेदों के 'आवृत्ति रसकृदुपदेशात्' और गौरांग महाप्रभु के 'सिद्धांत बलिया चित्ते न कर आलस' की उक्तियों को लोगों की बुद्धि में भरकर बार बार महापुरुषों के सिद्धांतों को सुनने पर जोर दिया।
कलियुग में संसार के लोगों को गृहस्थ में रहकर ही भक्ति करते हुए सरलता से भगवत्प्रेमप्राप्ति का साधन बतलाते हुए उनकी साधना और भगवान्नुराग को बढ़ाने के लिए हजारों ब्रजरस से ओतप्रोत संकीर्तन एवं पदों की रचना की जिसे सुनकर और गाकर हृदय में बरबस ही प्रेमरस की धार उमड़ पड़ती है और मन राधाकृष्ण की उस रूपमाधुरी पर मुग्ध होता जाता है। श्री कृपालु जी का रूप ही ऐसा है जिसे कोई एक बार देख ले तो उसी के द्वारा वह अपने पुराने भक्ति-संस्कारों को पुनः प्राप्त कर लेता था।
अपनी जन्मभूमि मनगढ़ को आपने 'भक्तिधाम' के रूप में प्रतिष्ठित किया। भविष्य में युगों-युगों तक भक्ति की ध्वजा फहराने वाला मनगढ़ का 'भक्ति मंदिर' और वृन्दावन का 'प्रेम मंदिर' इस विश्व को अनुपम भेंट है। प्रेम मंदिर के स्वागत द्वार पर आपके द्वारा रची गई पंक्ति 'प्रेमाधीन ब्रम्ह श्याम वेद ने बताया, याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया' के द्वारा भी आपने भक्ति को सर्वोच्च सिद्ध किया। मनगढ़ में स्थित 'भक्ति भवन' और वृन्दावन का निर्माणाधीन 'प्रेम भवन' ऐसे ऐतिहासिक भवन हैं जो भविष्य में जीवों को भक्तिपथ की साधना का सन्देश देंगे। इस मनगढ़ धाम में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा सन् 1966 से साधना शिविर का आयोजन होता रहा है।
उनके 'राधा गोविन्द गीत' से....
'मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे।
सोते जागते हो राधे प्रेम अगाधे।।
मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे।
नित ही 'कृपालु' रहें और कृपा दें।।
ऐसी दिव्य विभूति, भक्तियोगरसावतार के श्रीचरणों में बारम्बार अभिनन्दन है।
०० सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
Comments
Post a Comment