अनादिकाल से विश्व में सनातन रूप से दो बाद चल रहे हैं, एक का नाम अध्यात्मवाद, एक का नाम भौतिकवाद । वास्तव में अध्यात्म और भौतिकवाद इन दोनों का अन्योन्य परमावश्यक सम्बन्ध है जैसे हमारी आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है।

श्री महाराज जी के श्री मुख से :- 
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अनादिकाल से विश्व में सनातन रूप से दो बाद चल रहे हैं, एक का नाम अध्यात्मवाद, एक का नाम भौतिकवाद । वास्तव में अध्यात्म और भौतिकवाद इन दोनों का अन्योन्य परमावश्यक सम्बन्ध है जैसे हमारी आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है। बिना शरीर के आत्मा नहीं रह सकती और बिना आत्मा के शरीर नहीं रह सकता।

शरीर के उत्थान के लिए भौतिकवाद है। आत्मा के उत्थान के लिए अध्यात्मवाद है। कौन संन्यासी आज तक पैदा हुआ है जो भिक्षा माँग कर पेट न पालता हो ? संसार मिथ्या है तो क्यों भिक्षा माँग कर पेट पालते हो ? क्यों जल पीते हो हमारी सृष्टि का ? तो भौतिकवाद के बिना एक क्षण भी कोई जीवित नहीं रह सकता। केवल हम अपने श्वास को ये हवा न दें, देखो दो मिनट में संसार समाप्त हो जाये। 

जिस दिन जीवात्मा शरीर धारण करती है उसी दिन से भौतिकवाद आवश्यक होता है। अर्थात् माँ के पेट में जब आत्मा प्रवेश करती है सातवें महीने में तो उस शरीर का सम्बन्ध आत्मा से पूर्ण रूप से हो जाता है। यानी सब विटामिन, प्रोटीन जो कुछ माँ के पास है वह बच्चे को मिलने लगता है और फिर बाहर आने के बाद भी सब भौतिकवाद की आवश्यकता प्रारम्भ हो जाती है।

भौतिक माने शरीर-संबधी, आध्यात्मिक माने आत्मा -संबंधी। हम दो हैं न। एक तो हमारे अन्दर आत्मा है जिसकी शक्ति से यह शरीर चल रहा है। देखना, सुनना, सूँघना, रस लेना, स्पर्श करना, सोचना, डिसीजन लेना ये सब कर्म भौतिक शरीर कर रहा है। यह क्यों कर रहा है? यह तो जड़ है। इसके भीतर एक चैतन्य है। जब कोई मर जाता है तो आप लोग क्या कहते हैं ? आज चार बजे रामदास संसार से चला गया और लोग देख रहे हैं कि लेटा है। यह उसका शरीर है, वह नहीं है। तो इस प्रकार चूँकि हम दो हैं इसलिये हमारे धर्म भी दो हैं और दोनों का उत्थान कम्पलसरी है

शरीर माद्यं खलु धर्मसाधनम् । (सूक्ति)

चाहे भौतिक उत्थान हो, चाहे आध्यात्मिक उत्थान हो, दोनों में शरीर का स्वस्थ रहना परमावश्यक है। देखिये, प्रत्येक देश में प्रत्येक मनुष्य का अपना कुछ धर्म होता है; कोई मज़हब कहता है, कोई और किसी शब्द से पुकारता है लेकिन सबके कल्याण के लिये अपना कोई धर्म होता है।
 हमारे हिन्दू धर्म में परिभाषा दी गई है धर्म की

 यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्म: (वैशेषिक दर्शन)

जिससे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों का उत्थान हो, उसको धर्म कहते हैं। यानी शरीर के बिना प्रारम्भ ही नहीं हो सकता:

तनु बिनु भजन वेद नहीं बरना।

बिना शरीर के अध्यात्मवाद प्रारम्भ ही नहीं होगा। शरीर के लिये पतंजलि महर्षि ने योग का उपदेश दिया है। योग सृष्टि के प्रारम्भ से चला आ रहा है, यह कोई नया नहीं है। यह जो पतंजलि का नाम योग के साथ जुड़ा है, वह इसलिये जुड़ा है कि उन्होंने योग का विशेष प्रचार किया प्रचार के दृष्टिकोण से ऐसा समझा जाता है कि पतंजलि योग के आदिकारक हैं, ऐसा नहीं है। योग अनादिकाल से वेदों के द्वारा निर्दिष्ट है। इसके आठ अंग होते हैं: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये पाँच शरीर-सम्बन्धी योग के अंग हैं और धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन आध्यात्मिक उन्नति के लिये हैं। यानि इतना बढ़िया समन्वय करके योगदर्शन का निरूपण हुआ है। यद्यपि यम के बाद नियम आता है, उस नियम में भी 'ईश्वर प्रणिधान' है जिसमें भगवान की भक्ति बतायी गई है क्योंकि यम, नियम के द्वारा मन को शुद्ध करना होता है, इन्द्रियों को गवर्न करना पड़ता है, तब आगे गाड़ी चलती है योग की। यदि कोई योगी महान से महान उच्च कोटि पर पहुँच जाय तो भी शुकदेव परमहंस कहते हैं :

युंजानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः ।
 अक्षीणवासनं राजन् दृश्यते पुनरुत्थितम् ।। (भाग १०.५१.६१)

अगर भगवान् की भक्ति साथ में नहीं करता, केवल योग करता है 'प्राणायामादिभिर्मनः' तो उससे मन की वासनायें नहीं जायेंगी। सतयुग में सनकादिक परमहंसों ने योग की परिभाषा की है:

 सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धाऽऽवेश्यते यथा ।

ध्यान माने भगवान् में मन लगाना, धारणा यानी भगवान् में मन लग जाना, समाधि यानी आत्मविस्मृति, लय हो जाना, एकत्व हो जाना भगवान् के स्वरूप में स्थित हो जाना, दृष्टा-दृश्य के भेद को अलग कर देना, यही योग की प्रमुख विशेषता है लेकिन भक्तियोगादि द्वारा ही हमारी वासनायें जायेंगी क्योंकि उन वासनाओं का मूल कारण है माया और माया के विषय में अकाट्य ये सिद्धान्त है कि-

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। (गीता ७.१४)

जो केवल मेरी ही शरण में आयेगा (‘एव' शब्द है गीता में) मैं उसकी माया को भगा दूंगा। अपने परिश्रम से, तपश्चर्या, योग ध्यान से कोई माया को नहीं भगा सकता।

येषां स एव भगवान् दययेदनन्तः (भाग २.७.४२)

भागवत भी यही कहती है कि माया का अत्यन्ताभाव भगवान् के द्वारा ही होगा। इसलिये योग का प्रमुख उद्देश्य समझे रहिये कि भगवान् से मन को एक कर देना अर्थात् निर्भरा भक्ति, जीवात्मा परमात्मा का मिलन, यही योग का प्रमुख उद्देश्य है:-

संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्म परमात्मनोः (याज्ञवल्क्य)

 जीवात्मा का परमात्मा से संयोग हो जाय, इसी का नाम योग है परन्तु जीवात्मा परमात्मा के मिलन में जो बाधक है मन, उस मन की वृत्ति पर निरोध करना पड़ेगा। वह संसार की ओर भागता है, भगवान् से मिलने नहीं देता क्योंकि माया का संसार है और माया का पुत्र मन है। इसलिये अपने सजातीय विषय की ओर नैचुरल भाग रहा है। अब विपरीत दिशा में मुड़ने के लिये प्रयत्न करना होगा। इसलिये पतंजलि ने योग की परिभाषा बतायी-

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः (योगदर्शन १.२)

चित्तवृत्ति का निरोध करो, कैसे करें? बहुत से उपाय बताये। हम भगवान् सम्बन्धी ध्यान करें या कोई भी ध्यान करें जैसे

वीतरागविषयं वा चित्तम् । ( योगदर्शन १.३७)

अगर तुम भगवान् का चिन्तन पहले नहीं कर सकते तो वीतराग महापुरुष का चिन्तन करो। महापुरुष के चिन्तन से भी मन शुद्ध होगा और भगवान् के चिन्तन से भी मन शुद्ध होगा लेकिन महापुरुष सामने होता है इसलिये उसका चिन्तन सरल है। किसी महापुरुष का चिन्तन और अष्टांग योग के द्वारा मन को समाधिस्य कर लिया जाता है, निर्विकल्प कर दिया जाता है, तब योग पूरा होगा।

:- जगद्गुरु १००८ स्वामि श्री कृपालु जी महाराज

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