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Showing posts from April, 2021

यह जो आपका मन अशान्ति और अतृप्ति से सदा विचलित रहता हैं, इसमें बस एक ही मुख्य कारण हैं कि

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★★★ श्रीकृपालु भक्ति-धारा ★★★ यह जो आपका मन अशान्ति और अतृप्ति से सदा विचलित रहता हैं, इसमें बस एक ही मुख्य कारण हैं कि-- आपको भगवान पर, संतो/महापुरुषो पर उनके उपदेशो पर पूर्ण श्रद्धा और अटल विश्वास नही हैं, बिलकुल नही हैं, ये पक्का मान लो ! और इस अश्रद्धा और अविश्वास का मुख्य कारण हैं हृदय की मलिनता अर्थात् अभी आपका हृदय बहुत अधिक पापयुक्त हैं (अनंत जन्मो में किये गये गंदे संसारी चिन्तन और पाप आदि करने के अभ्यास के फलस्वरूप) । इस रोग का बस एक ही उपचार हैं  "निरंतर भगवद्भजन/हरि-हरिजन का चिन्तन" । भले ही आपका मन भगवद्भजन में ना लग रहा हो (क्योकि कभी लगाने का अभ्यास दृढ़ता से किया ही नही हैं) लेकिन फिर भी जुट जाओ अपनी पूरी शक्ति लगाकर "निरंतर हरि-गुरु चिन्तन करने में" और ये भी ध्यान रखो कि हरि-हरिजन के प्रति अनुकूल चिन्तन ही हो, विपरीत भाव हृदय में आते ही इस प्रकार उसको सावधानी से भगा दो जैसे भोजन के समय ध्यान रखते हो कि कंकड़ आदि ना आ जाऐ और यदि फिर भी कोई कंकड़ आ जाता हैं तो तुरंत उतना भोजन ही उगल देते हो,  वैसे ही तुरंत उस विपरीत भाव और विपरीत भाव लाने वाले कारण दो...

आप लोग सभी श्री शंकराचार्य जी के बारे में सुना है आज का गद्दी धारी शंकराचार्य नहीं , ओरीजनल शंकराचार्य

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श्री महाराज जी :- देखिए, आप लोग सभी श्री शंकराचार्य जी के बारे में सुना है आज का गद्दी धारी शंकराचार्य नहीं , ओरीजनल शंकराचार्य , उन्होंने अद्वैत बाद का प्रचार प्रसार किया समय और परिस्थितियों के अनुसार , उस समय सभी लोग माथ मुड़ा कर संन्यासी बन रहे थे । भगवान श्री कृष्ण ने शंकर जी को भेजा पृथ्वी पर , वो शंकराचार्य बन कर आए और अद्वैत का प्रचार किया , खुद संन्यासी बने और जीवों को कहा की तुम ही ब्रह्म हो , "तत् त्वमसी से अहं ब्रह्मास्मी" के जाप । ताकी लोग संन्यासी बन कर जंगलों और पहाड़ो में ना जाएं । सब संन्यासी अगर हो जाए , जंगल और पहाड़ में चले जाएं तो सृष्टि कैसे चलेगी ! तो भगवान श्री कृष्ण शंकर जी को भेजा , प्रथम जगद्गुरू की उपाधी लिया उन्होंने मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया और अद्वैत का सम्यक प्रचार प्रसार किया ।‌ लेकिन खुद अपने चारों मठों में उसी सगुण साकार ब्रह्म श्री कृष्ण के प्रतिमा की स्थापना करके उनकी भक्ति कर रहें हैं ।  उनका लिखा पद् आज आप लोग गातें हैं ना , :- " यमुना निकट तटस्थित वृंदावन कानने महारम्ये, कल्पद्रुमतलभूमौ चरणं चरणोपरिस्थाप्यम।। तिष्ठंतं घननील...

प्रेम के नष्ट होने का कारण हो, और प्रेम नष्ट न हो, उसको प्रेम कहते हैं ।

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प्रेम के नष्ट होने का कारण हो, और प्रेम नष्ट न हो, उसको प्रेम कहते हैं । हमारे संसार में मां से, बाप से, भाई से, बीबी से, पति से, जो हम प्रेम करते हैं, मन का अटैचमेंट करते हैं, इसमें उल्टा होता है । उल्टा माने? हम अपने स्वार्थ के लिए प्रेम करते हैं । तो जब हमारे स्वार्थ का नाश होता है, स्वार्थ का नुकसान होता है, तेरा वह प्रेम भी उसी लिमिट में कम होता जाता है और समाप्त हो जाता है । यहाँ तक कि हम एक दिन उसी माँ को, बाप को, बीबी को, पति को गोली मार देते हैं । तो यहाँ पर तो प्रेम है ही नहीं, पर प्रेम शब्द का गलत प्रयोग करते हैं । संसार में कोई भी किसी भी व्यक्ति से, जो मायाबद्ध है, जिसके पास प्रेम नहीं है, उससे प्रेम नहीं कर सकता । और अगर करेगा भी, या करता भी है, तो दुःख, अशांति, अतृप्ति, अपूर्णता, औरj चौरासी लाख का बंधन, यही मिलता है । सूत जी महाराज शौनकादिक परमहंसों से कहते हैं कि भक्ति में दो शर्त हैं । एक तो अपनी कामना न हो, अपनी इच्छा न हो । और दूसरी, वह निरंतर हो, सदा हो । उस को प्रेम कहते हैं । अपने सुख की। कामना न हो, और निरंतर हो । थोड़ी देर तो प्रेम हो गया, फिर झगड़ा हो गया, यह त...

मानव के जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई , धोखा और कमजोरी क्या है ?

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प्रश्न - मानव के जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई , धोखा और कमजोरी क्या है ? उत्तर - "तीनों सवाल" का जवाब एक कहानी के माध्यम से-  एक बार एक राजा बड़ा प्रसन्न मुद्रा में था , और अपने वज़ीर के पास गया और कहा कि तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी ख़्वाहिश क्या हैं? वज़ीर शरमा गया और नज़रे नीचे करके बैठ गया। राजा ने कहा तुम घबराओ मत तुम अपनी सबसे बड़ी ख़्वाहिश बताओ। वज़ीर ने राजा से कहा हुज़ूर आप इतनी बड़ी सल्लतनत के मालिक हैं और जब भी मैं यह देखता हूँ तो मेरे दिल में ये चाह जाग्रत होती हैं कि काश मेरे पास इस सल्लतनत का यदि दसवां हिस्सा होता तो मैं इस दुनिया का बड़ा खुशनसीब इंसान होता। ये कह कर वज़ीर खामोश हो गया। राजा ने कहा कि यदि मैं तुम्हें अपनी आधी जायदाद दे दूँ तो। वज़ीर घबरा गया और नज़रे ऊपर करके राजा से कहा कि हुज़ूर ये कैसे मुनकिन हैं? मैं इतना खुशनसीब इंसान कैसे हो सकता हूँ। राजा ने दरबार में आधी सल्लतनत के कागज तैयार करने का फरमान जारी करवाया और साथ के साथ वज़ीर की गर्दन धड़ से अलग करने का ऐलान भी करवाया। ये सुनकर वज़ीर बहुत घबरा गया। राजा ने वज़ीर की आँखों में आँखे डालकर कहा तुम्...

आप सब थोड़ा अपना किमती समय निकाल कर इस पोस्ट को जरूर पढ़े , बिना पढ़े कृप्या अपना लाइक मत दें -----

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आदरणीय श्री युगल शरण जी ( भारत सरकार के पुर्व वैज्ञानिक , इन्होंने भारत सरकार के काफी उच्च वैज्ञानिक पद् से इस्तिफा देकर श्री कृपालु महाप्रभु जी का प्रचारक बन गए सन् 1998 में ) आप सब थोड़ा अपना किमती समय निकाल कर इस पोस्ट को जरूर पढ़े , बिना पढ़े कृप्या अपना लाइक मत दें ----- आज के इस भोतिक युग में आध्यात्मिक उत्थान की बहुत आवस्यकता हैं । बिना आध्यात्मिक आधार के भौतिक विकास दीर्घकालिक व स्थाई कभी नही हो सकता ।  यहां तक की विना आध्यात्मिक विकास के भौतिक विकास रक्षक के जगह भक्षक हीं साबित होगा ।  आप सब इतिहास पर नज़र डालिए , कितने कितने ताकतबर से ताकतबर , शीर्शस्थ सत्तासीन व्यक्ति अपने रक्षागार्ड के हांथों हीं प्राणों से हांथ धो बैठे , उनकी हत्या करने वाले कम पढ़े लिखे ,या कम बड़े भौतिक ज्ञानी तो नही थे ? न्युयार्क टुईन टाबर धाराशायी कर दिया गया । होटल ताज मुम्बई की घटना करने वाले क्या कम पढ़े लिखे थे ? हजारो निर्दोषों की हत्या !  बस एक हीं अन्तर था , ऐसे लोगों में सही सही आध्यात्मिक विकास नही हुआ । केवल भौतिक विकास हुआ जो घातक हो गया । अत: आज के परिदृष्य में हर व्यक्ति क...

बड़े भाग्य मानुस तन पावा। सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन गावा॥

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 बड़े भाग्य मानुस तन पावा।  सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन गावा॥ साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।  पाई न जेहि परलोक संवारा॥ सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि-धुनि पछिताय।  कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाय॥   जो न तरै भव सागर, नर समाज अस पाइ। सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाइ॥ (उत्तरकाण्ड दोहा ४४)तुलसीदास जी ।  बड़े सौभाग्य से जीवों को मनुष्य का शरीर मिलता है। यह शरीर पाना देवों के लिए भी दुर्लभ है। क्योंकि देवता  भगवद्प्रेम की प्राप्ति , श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने  के लिए कोई कर्म भी कर हीं नहीं सकता‌ , कारण कि देवता एक भोग योनि का शरीर है ,‌ आपलोग ही अनेकों पुण्य करके अनेक बार इंद्र वरूण कुबेर बने जैसे हरिश्चंद्र , राजा बलि आदि । और फिर जब सारा पुण्य समाप्त हो गया उनका  स्वर्ग के सुख को भोगने के बाद तो फिर से  पृथ्वी पर पटक दिए गए कुत्ता बिल्ली गद्हा आदि के योनि में ।  देवताओं का शरीर सूक्ष्म शरीर है , और केवल मनुष्य के शरीर में हीं यह गुण है कि वो कर्म करके , भक्ति करके भगवद् प्राप्ति कर लें । ऐसे दुर्लभ शरीर को पाकर जो मनुष्य भक्...

यह जो गुरू सेवा मिलती है यह भगवान के कृपा का प्रसाद है । यह सौभाग्यशालीयों को मिलती है ।

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बहुत हीं महत्त्वपूर्ण ,‌ ध्यान दें । यह जो गुरू सेवा मिलती है यह भगवान के कृपा का प्रसाद है । यह सौभाग्यशालीयों को मिलती है ।  जब भगवान किसी पर रीझ जातें हैं तब वे उसे अपने जनों की सेवा प्रदान करतें हैं । यह उनकी कृपा-प्रसाद है । उसे निष्ठापूर्वक धारण कर हमें उस सेवा को करना चाहिए । और फिर हमारे श्री महाराज जी की बात हीं कुछ और है - अवगुण करूँ समुद्र सम , गिनत ना अपनों जान । राई के सम भजन को मानत मेरू समान ।। ये तो हमारे कृपालु महाप्रभु की परम उदारता है । अवगुण धारण किए हुए हम दिन-रात अपराध कर रहें हैं, लेकिन समुद्र जैसे अवगुणों को मेरे गुरूवर देखते हीं नहीं हैं , क्यों -  गिनत न अपनों जान । अरे यह मेरा है, कोई बात नहीं ।  और राई सम यानी थोड़ा सा  भी  हम भजन करतें हैं तो -  मानत मेरू समान । विभोर हो जातें हैं । बड़े विभोड़ हो जाते हैं । अरे मेरा बच्चा कर तो रहा है न । चल रहा है, मेरी आज्ञा-पालन कर रहा है । काम-वाम सब हो जाएगा ।  इतने आशावादी हैं हमारे गुरूवर । तो सद्गुरू की कृपा से हीं यह उत्कट लालसा प्राप्त होती है । हां लेकिन एक बात का ध्यान रखें । स...

कैसे जाने कि हम आध्यात्मिक हैं ? गुरूशरणापन्न हैं ?

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💐💐 श्री राधे💐💐 जरूर पुरा पढ़ें -  कैसे जाने कि हम आध्यात्मिक हैं ? गुरूशरणापन्न हैं ?  बहुत से लोग कहते हैं मैं बहुत आध्यात्मिक हुँ ! मैं छ: छ: घंटे पुजा पाठ करती हुँ व करता हुँ । रोज रामायण का पाठ करता हुँ , श्री मद्भागवद् पढ़ता हुँ , सुनता हुँ , गीता पढ़ता हुँ , श्री मद्भागवद् का कथा करवाता हुँ, चारो धाम तीर्थ कर चुका हुँ , रोज मंदीर नंगे पैर जाता हुँ , जो भी प्रबचन , सत्संग करने आते हैं हमारे शहर में,  तो मैं जरुर सुनता हुँ , आदि, आदि ।  इसलिए मैं बड़ा आध्यात्मिक हुँ । उसको देख कर बेचारे भोले भाले लोग समझते है , देखो जी वो बड़ा आध्यात्मिक है ।  फिर कुछ समय पश्चात लोग  कहते हैं , वो इतना आध्यात्मिक तो है फिर भी दुखी है बेचारा , क्रोध बहुत आता है उसको जी ।  आध्यात्मिक है किन्तु राग , द्वेष , घृणा, इर्ष्यादि दोषों से भरा परा है । ऐसा क्यों ?  तो ऐसा इसलिए कि आध्यात्मिक होना तो दुर , आध्यात्म किसे कहते हैं और आध्यात्मिक होना किसे कहते हैं हमने जाना हीं नही अबतक ! गुरू कौन हैं ? भगवान कौन हैं ? उनसे क्या नाता है हमारा ? हमने जानने , समझने का प्र...

गुरू तत्त्व

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💐💐💐💐गुरू तत्त्व💐💐💐💐 अभी तक हमने जाना कि तीन तत्त्व हैं - वह,  मैं  और यह । अर्थात् ब्रह्म, जीव और माया । फिर यह चौथा गुरू तत्त्व कहांँ से आ गया ? वेद व्यास जी कहतें हैं -  'नास्ति तत्त्वं गूरो: परम् ।'  गुरू के आगे कोई तत्त्व ही नहीं है । परतत्त्व यानी अंतिम तत्त्व गुरूतत्त्व है । यह वेदव्यास भगवान के अवतार लिख रहें हैं । कौन उँगली उठावे ।  पर स्वाभाविक प्रश्न है - जब वेदों में, शास्त्रों में परतत्त्व श्रीकृष्ण को बताया गया है, तो गुरू कैसे परतत्त्व हो जाएगा । इसका उत्तर वेद देता है कि गुरू तत्त्व भगवान से बड़ा नहीं है । लेकिन है भी । मतलब ! मतलब यह कि हम अपने स्वार्थ की दृष्टि से गुरू तत्त्व को भगवान से बड़ा मानते हैं । वास्तव में हैं नहीं , किन्तु मानतें हैं । क्यों ? इसलिए  कि भगवान को जानना सबसे पहले जरूरी है । श्रीकृष्ण कौन हैं ? उनसे हमारा क्या संबंध है ? उनकी प्राप्ति क्यों की जाए ? उनकी प्राप्ति कैसे की जाए ? यह सब ज्ञान सबसे पहले आवश्यक है । यह ज्ञान वेदों से प्राप्त होगा । किसी भी ज्ञान की अंतिम आथोरिटी वेद है । हम वेद पढ़कर भगवान के बिषय ...

प्रेम , भगवद्प्रेम , श्री हरि से प्रेम , सदगुरू से प्रेम , निष्काम प्रेम , अनन्य प्रेम , श्री राधारानी , सदगुरू के कृपा का परिणाम है ।

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प्रेम , भगवद्प्रेम , श्री हरि से प्रेम , सदगुरू से प्रेम , निष्काम प्रेम , अनन्य प्रेम , श्री राधारानी , सदगुरू के कृपा का परिणाम है । प्रेम ही भक्ति है और भक्ति हीं प्रेम हैं । जब श्रद्धा और विस्वास अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त करती है तो भगवद्प्रेम का प्रकटीकरण होता साधक के ह्रदय में गुरूदेव के प्रेमदान के फलस्वरूप ।  इसका वर्णन शब्द नहीं कर सकता । यह तो एक अलौकिक दिव्य अनुभव है ।  जब भक्ति अपने चरम पर पहुंचता है तो प्रेम का रूप लेता है ।  प्रेम में प्रेमी अपने प्रेमास्पद् पर अपना सबकुछ लुटा चुका होता है । मिट चुका होता है । अपना सुध-बुध खो चुका होता है । खुद के होने का भान नहीं होता ।  न नाम , न यश , न मान , और न सम्मान , सबकुछ समाप्त । शरीर के सूधि बात हीं छोड़िए ।  दिव्य प्रेम निस्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा का प्रतिफल है गुरू का प्रसाद है ।। यह सबसे उच्चकोटि का भाव हैं । ऐसा भाव जिसमें मैं को "मैं" होने का भान मिट जाता है । फिर नाम , यश मान सम्मान और अहंकार का तो नामोनिशान कहां ! प्रेम में प्रेमी को केवल अपने प्रेमास्पद् की उपस्थिति का हीं एहसास होता है । ...

श्री महाराज जी द्वारा एक लाईन में भक्ति का तरीका :-

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श्री महाराज जी द्वारा  एक लाईन में भक्ति का तरीका :-  " तन कार में मन यार में (३६५ दि.x२४ घंटा x60 मि.x 60 से.)   लगा रहे , यह भक्ति है , फिर किसी साधन और साधना की जरुरत नहीं , एक सेकेंड को भी भगवान् को ना भुलो फिर किसी चीज की जरुरत नही । तुम्हारा काम बन जाऐगा ।" " सोते समय भगवान् को याद करके सो जाओ और उठते समय में भगवान् में मन को लगा कर रखो " तो अब सबाल यह उठता है कि " तन कार में और मन यार में चौबीसों धण्टें तीन सौ पैसठो दिन के हरेक पल भगवान् मे कैसे लगा रहे ?  मैने आपलोगों को बताया कि कोई भी व्यक्ति कामनाओं का समाप्त नही कर सकता, क्योंकि कामनाओं का मूल कारण है, वो माया है और यह भी सम्भव नहीं है कि हम संसार की कामना मन में रखे रहे और भगवान् की उपासना भी कर लें । " "अब हमारे यहां वेदों से लेकर शास्त्रो तक मे भी लिखा है दो परस्पर विरोधी वातें,  एक  तो ये कि समस्त कामनाओं का परित्याग कर देने से जीव अपने परम लक्ष्य यानि भगवद् प्राप्त लेगा , और दूसरी बात ये लिखी है कि भगवान् की उपासना करने से ही जीव अपना परम लक्ष्य प्राप्त कर लेगा । मैने दोनो पक्षों को ग...

सनातन वैदिक धर्म में उपासना के तीन प्रकार हैं ।१. व्यास पद्धति , २. नारद पद्धति ३. हनुमत पद्धति ।

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भजनक्रिया में सावधानी , ( अति महत्वपूर्ण गाइडलाइन मां द्वारा ) सनातन वैदिक धर्म में उपासना के तीन प्रकार हैं । १. व्यास पद्धति , २. नारद पद्धति ३. हनुमत पद्धति । १. व्यास पद्धति में केवल शास्त्राधारित यानि भगवान के लीला गुण , धाम का भजन गीत गाने के साथ-साथ भगवान और गुरू के स्मरण का नियम है ।।  २. नारद पद्धति में भगवान का स्मरण एवं गायन के साथ-साथ बाद्ययंत्र के साथ यानि स्मरण ,(भजन) गीत और संगीत का नियम है ।  ३. हनुमत पद्धति में भगवान का स्मरण , भजन (गीत ) , बाद्ययंत्र के साथ यानि संगीत , और नृत्य का विधान है । पर स्मरण तीनों प्रकार के उपासना में प्राण हैं   स्मरण के विना वांकी सभी शव के समान है , लाभ हीन है । इसलिए स्मरण प्रमुख हैं । गायन के लिए सावधानी , भजन गायन में भगवान के रूप , गुण, लीला और धाम प्रमुख हैं जिसमें निष्काम भाव भजन सर्वोत्तम है । एक और बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि स्मरण तो जरूरी है लेकिन केवल गीत के लय , ताल ,छंद , लहरी में खो जाना , यानी भजन गीत, संगीत में हीं रम जाना भक्ति नहीं है । यानि केवल अलाप में मन रमना सही सही भजनक्रिया नहीं माना जा...

धर्म है क्या?

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🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹*युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से शर-शैया पर प्रश्न किया महाराज! तमाम शास्त्र-वेद से तो हम थक गये, संक्षेप में ऐसी कोई चीज बताइये कि धर्म का स्वरूप क्या है? धर्म है क्या? तो भीष्म पितामह ने उत्तर दिया_ *एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः।*   *यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा॥* (महाभारत) *तमाम धर्म भ्रम में डालने वाले हैं और तुमको तो भ्रम मिटाना है? भ्रम माने माया, जिसके कारण आनन्द प्राप्ति से वंचित हो। तो केवल पुण्डरीकाक्ष श्रीकृष्ण में मन का लगाव कर दो, सरेन्डर कर दो, शरणागत कर दो, उनकी भक्ति करो, बस। इसके अतिरिक्त कोई धर्म ही नहीं होता। धर्म माने, आप जानते हैं? धर्म माने होता है धारण करने योग्य। धारण करने योग्य, जैसे आप लोग शरीर के लिये धारण करने योग्य आटा, दाल, चावल सब रखते हैं, बनाते हैं, खाते हैं क्यों? वह शरीर चलाने के लिये, शरीर को धारण करने के लिये योग्य है, वह सब सामान। ऐसे ही इस आत्मा का जो स्वरूप है असली, उसके धारण करने का सामान क्या है? स्प्रिचुअल खाना क्या है? कुछ नहीं है और कहीं नहीं सोचना। बस, श्रीकृष्ण को धारण करो, यही धर्म है क्यों...

महाराज जी :- भगवान जीव से कैसे आनंद प्राप्त करतें हैं?

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श्री महाराज जी :- भगवान जीव से कैसे आनंद प्राप्त करतें हैं - एक काम की बात सुनो मन -  जीस प्रकार जीव माया के अण्डर में है उसी प्रकार भगवान योगमाया के अण्डर में हैं । यह योगमाया उनकी प्रर्सनल पावर हैं जिसे स्वरूप शक्ति भी कहतें हैं , सीधी सीधी समझिये गधे की अकल से । तो  वो योगमाया क्या करती है ? भगवान् की सर्वज्ञता को समाप्त कर देती है । अगर भगवान् ये याद रखें कि मैं भगवान् हूंँ तो फिर वो हमारे काम का नहीं , बेकार हो गया वो ।  हाँ, जैसे संसारी स्त्री , संसारी पति के लिए व्याकुल हो रही है और पति परवाह नहीं कर रहा है तो वो स्त्री कहेगी , नमस्कार, ऐसे पति से, और कहीं व्याह कर लेंगें । तो उसी प्रकार अगर हम भगवान् से प्यार करें और भगवान् आत्माराम बने रहें, अजी गधों तुम्हारी हमको क्या आवश्यकता है ? मैं तो ब्रह्मा , शंकर की भी आवश्यकता नहीं महसूस करता । तुम कूड़ा-कबाड़ा जीवों से हमारा क्या लेना-देना।  ना, जितनी मात्रा में हम भगवान् से प्यार करेंगें उसी प्रकार प्रेम करना पड़ेगा भगवान को । करते हैं । तो कैसे करतें हैं ? वही योगमाया, जो स्वरूपशक्ति है भगवान को मोहित कर देती है ...

इस संसार में ४ प्रकार के लोग मिलते हैं

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संसार सम्बन्धी ऐश्वर्य जितने कम हों, उतना ही अच्छा और उतने में भी मन की आसक्ति न हो तब तो साधना हो सकती है अन्यथा रंक एवं सम्राट सब बराबर ही रहेंगे । जिसके पास एक कपडा नहीं है, वह एक कपडे के लिए परेशान है, जिसके पास ५० कपडे हैं वह ५१ वें के लिए परेशान है । परेशानी में कोई अन्तर नहीं पडता । इस संसार में ४ प्रकार के लोग मिलते हैं - (१) कुछ लोग संसार के मदवर्द्धक ऐश्वर्यों के होते हुए भी ईश्वर के रस में विभोर रहते हैं । (२) कुछ लोग संसार के मदवर्द्धक पदार्थों के न होते हुए भी संसार के ही  ऐश्वर्यों के चिन्तन एवं उनके पुनः संग्रह में अशान्त रहते हैं । (३) अधिकांश लोग संसार के मदवर्द्धक ऐश्वर्यों होने के कारण ईश्वर से वंचित होकर, मदोन्मत बने हुए संसार कि ही ओर बढते जाते हैं । (४) अधिकांश लोग संसार के मदवर्द्धक पदार्थों के अभाव के कारण संसार से निराश होकर ईश्वर की शरण में जाते हैं एवं सत्संग द्धारा संसार का सत्य रूप समझ कर उससे विरक्त हो जाते हैं । इसमें प्रथम वर्ग के लोगों के उदाहरण बहुत कम मिलेंगे क्योंकि मदवर्द्धक पदार्थों के रहने पर भी उनमें आशक्ति न हो, उनका मद न हो, यह योगभ्रष्ट सं...

एक महाशय का प्रश्न है कि कैसे जाने हम कहां है?हमारा कितना उत्थान या पतन हुआ है अपने आप कैसे जाने ?

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Divine word of mahraj ji   - एक महाशय का प्रश्न है कि कैसे जाने हम कहां है? हमारा कितना उत्थान या पतन हुआ है अपने आप कैसे जाने ? और ए सही है अपने आप कोई नही जान सकता ! इसलिय कि जिस मन में उचाई निचाई होती है उत्थान पतन होता है वो मन अपने खिलाप जजमेंट नही दे सकता | अर्थात हमारा मन गड़बड़ है और उसी मन से हम पुछ रहे है        - क्यों , गड़बड़ है ? तो वो मन कहेगा नही कहां गड़बड़ है हम तो विल्कुल ठीक है| सो ए तो भगवान और महापुरुष ही जान सकता है कि कौन कहां है | लेकिन थोड़ा बहुत आइडिया फिलौसोफी के द्वारा हो सकता है | और वो होना भी चाहिए , सबको खुद को नापना चाहिए तो वो क्या है नपना ? " यावत् पापयैस्तु मलीनम् ह्रदयं ताव देव ही :" ब्रह्मवैवर्त पुराण मे कहा गया कि जिसका ह्रदय जितना पापयुक्त होता है वो उतना ही गंदी वाते सोचता है , सुनता है , और वोलता है | संसारी बाते , निदंनीय बाते , पाप की बाते सुनना, सोचना , वोलना , पहचान है कि हमारा मन कितना गंदा है | पहली बात तो हम दुसरे में दोष देखने की सोचते है-  बस पक्का प्रमाण है कि हमारा मन पापयुक्त है हम अपने गंदगी को नह...

प्रश्न - लोग मरते वक्त क्यों अधुरा महसूस करतें हैं ?

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प्रश्न - लोग मरते वक्त क्यों अधुरा महसूस करतें हैं ? उत्तर - जब तक जीव आनंद प्राप्त नहीं कर लेगा ,यानि जीव जबतक भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर लेगा तबतक अधुरा हीं महसूस करेगा ।  दरअसल सभी जीव ऐसा आनंद चाहता है जो कभी ना समाप्त हो । और यह आनंद संसार में नहीं हैं । संसार का आनंद क्षनिक हैं । प्रतिक्षण घटने वाला है । जीव सभी कर्म केवल सुख पाने के लिए हीं करता है ‌ । पर अज्ञानता वश जीव संसार में हीं आनंद ढुढंता है जो नहीं मिलता कभी । क्यूंकि आनंद संसार में नहीं हैं । आनंद भगवान को प्राप्त करने में हैं । दरअसल भगवान हीं , सच्चिदानंद श्री कृष्ण हीं आनंद हैं। वहीं सत् + चित् +आनंद हैं । जब तक जीव संसार के व्यक्ति और वस्तु में सुख ढुढेगा । धोखा हीं होगा । इसलिए जीव हमेशा पछताता है । सबसे बड़ा पछतावा है मानव शरीर गमा देना , वास्तविक माता पिता जो परमात्मा है उनको न पाना । संसारिक शरीर के रिस्तेदार को अपना समझना । पढ़ीए ध्यान से :- जब हमारा आपका शरीर हीं अपना नहीं है तो भला कोई वस्तु या व्यक्ति आपका कैसे हो सकता है।  हम आप शरीर नहीं, आत्मा है।  और आत्मा का पिता परम पिता परमात्...

राधा रानी कौन हैं? , बहुत गुढ़ तत्त्व के बारे में :- श्री कृपालु महाप्रभु जी का दुर्लभ प्रबचन ।

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कृपया जरूर पढ़ें: राधा रानी कौन हैं?  जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा राधारानी के विषय में प्रकाश डाला जा रहा है। राधारानी कौन हैं, थोडा समझ लीजिये। आप लोगों ने भगवान का नाम तो सुना ही होगा। राधा तत्त्व से अधिक लोग परिचित नहीं हैं। भगवान के नाम से अधिक परिचित हैं और भगवान भी बहुत प्रकार के होते हैं। एक भगवान तो श्री कृष्ण हैं, उन भगवान से एक और भगवान प्रकट होते हैं, उनको कहते हैं- प्रथम पुरुष। प्रथम पुरुष भगवान श्री कृष्ण के अंश हैं, उनको महाविष्णु भी कहते हैं। अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के निर्माण करने में पहला काम महाविष्णु का होता है। श्री कृष्ण सृष्टि वगैरह नहीं करते। सृष्टि वगैरह बहुत नीचे वाले भगवान करते हैं। ये सृष्टि वगैरह का कार्य ब्रह्मा-विष्णु-शंकर करते हैं। श्री कृष्ण स्वयं सृष्टि नहीं करते। न करोमि स्वयं- वे स्वयं कुछ नहीं करते, वेद कहता है। तो भगवान ने अपना अंश प्रकट किया प्रथम पुरुष के रूप में। तो प्रथम पुरुष ने क्या किया, ये बलराम हैं प्रथम पुरुष। वेद कह रहा है इन्होंने (प्रथम पुरुष) संकल्प किया, सोचा, प्रकृति की ओर देखा, दो काम किया- सोचा और देखा। प्रकृति माने माया,...

ये जप , तप , योग , ध्यान , यज्ञ , हवन , मंत्र आदि सभी कलयुग में निष्प्रभावी हैं ।

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ये जप , तप , योग , ध्यान , यज्ञ , हवन , मंत्र आदि सभी कलयुग में निष्प्रभावी हैं । कलियुग केवल हरि गुण गाहा । गावत नर पावत भव थाहा ।। "कलियुग केवल नाम आधारा , सुमिरि सुमिरि नर उतरहुं पारा ।। - ( रामायण )" लेकिन इसमें भी बहुत गहराई है । केवल मुख से नाम राम या कृष्ण या राधा लेना काफी नहीं । क्यूंकि कलयुग में बहुत के नौकर का नाम राम, रामु और नौकरानी का नाम राधा है । इसलिए केवल मुख से नाम लेना एक फिजिकल ड्रिल मात्र है । इससे काम कभी नहीं बनेगा । जिसका नाम लेंगें तो सबसे पहले उनका रूप मन में खड़ा करना होगा । जैसे राधा नाम लेना शुरू करने से पहले राधा रानी के रूप का ध्यान मन में लाना होगा । और प्रत्यक्ष ये मानना होगा की वो हमारे सामने खड़ी हैं और हम उनके आगे रो कर उनको पुकार रहें हैं । उनकी सेवा कर रहें हैं , चमर डोला रहें हैं या उनके आंगन को बुहार रहें हैं आदि ।  ये रोने में भी अंतर हैं । एक अपने दु:ख से दु:खी हैं और उनके सामने ,ध्यान करके रो रहें हैं । ऐसा रोने से कोई लाभ नहीं । अपने किसी आभाव के लिए रोना भक्ति कतई नहीं हैं । ऐसे आंसुओं से भगवान नहीं रिझते कभी । भक्ति में तो हमें...

भगवान के अनन्तानंत नामों में जीवों के लिए महत्वपूर्ण नाम है ' पतितपावन' - ऐसा क्यों कहा गया है ?

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*-*-*-*-*-*-*-पतितपावन-*-*-*-*-*-*-* भगवान के अनन्तानंत नामों में जीवों के लिए महत्वपूर्ण नाम है ' पतितपावन' - ऐसा क्यों कहा गया है ? आइए , इस गूढ़ विषय को समझने के लिए श्री महाराज जी के श्रीमुख से नि:सृत इसकी अनमोल व्याख्या पर अपने मन को केन्द्रित करें | भगवान का एक नाम है - पतितपावन | यह सबसे Important नाम है क्योकि  अनंत कोटी ब्रह्माण्ड के समस्त जीव पतित हैं , पापात्मा हैं | अनन्त जन्मों में अनंत पाप कर चुके हैं और वर्तमान में भी कर रहें है | जितने क्षण आपके मन का attachment भगवान और महापुरुष में नहीं है, वह सब पाप है , वह सब समय आपका पापमय है | यह परिभाषा याद कर लो , भगवत्प्राप्ति तक काम देगी |  आप नहीं जानते - हमने कहाँ पाप किया ? हमने कोई चोरी नहीं की | हमने झुठ नहीं बोला एक घंटे में | कुछ तो किया ! क्या किया बोलो ? तुम्हारे मन ने क्या सोंचा ? संसार सोंचा ! तो संसार जो सोंचा तुम्हारे मन ने भगवान को छोड़ करके , वह सब पाप है |  अच्छा कर्म भी पाप है और बुरा कर्म भी पाप है | केवल भगवान और महापुरुष का चिन्तन , यही सही है | बाकी सब कर्म पाप है क्योंकि बाँधने वाले है वह | ...