Posts

Showing posts from 2021

धर्म का स्वरूप क्या है? धर्म है क्या?

Image
युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से शर-शैया पर प्रश्न किया महाराज! तमाम शास्त्र-वेद से तो हम थक गये, संक्षेप में ऐसी कोई चीज बताइये कि धर्म का स्वरूप क्या है? धर्म है क्या?          तो भीष्म पितामह ने उत्तर दिया_ एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः। यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा॥            (महाभारत)       तमाम धर्म भ्रम में डालने वाले हैं और तुमको तो भ्रम मिटाना है? भ्रम माने माया, जिसके कारण आनन्द प्राप्ति से वंचित हो। तो केवल पुण्डरीकाक्ष श्रीकृष्ण में मन का लगाव कर दो, सरेन्डर कर दो, शरणागत कर दो, उनकी भक्ति करो, बस। इसके अतिरिक्त कोई धर्म ही नहीं होता। धर्म माने, आप जानते हैं? धर्म माने होता है धारण करने योग्य। धारण करने योग्य, जैसे आप लोग शरीर के लिये धारण करने योग्य आटा, दाल, चावल सब रखते हैं, बनाते हैं, खाते हैं क्यों? वह शरीर चलाने के लिये, शरीर को धारण करने के लिये योग्य है, वह सब सामान। ऐसे ही इस आत्मा का जो स्वरूप है असली, उसके धारण करने का सामान क्या है? स्प्रिचुअल खाना क्या है? कुछ नहीं है और कही...

भाव शरीर के बारे में डिटेल्स -

Image
भाव शरीर के बारे में डिटेल्स -  हमारे श्री महाराज जी जब धारा धाम पर थे तो उनके स्थूल शरीर के अंदर सूक्ष्म शरीर या कारण शरीर आदि नहीं था , उनके पंचमहाभौतिक प्राकृत शरीर के अंदर दिव्य शरीर, चिन्मय शरीर था केवल ।  प्रश्न : जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो सूक्ष्म शरीर धारण करती है, तो क्या वह सूक्ष्म शरीर में थोड़े दिन के लिए रह सकती है? या तुरन्त स्थूल शरीर धारण करना पड़ता है? उत्तर( श्री महाराज जी ) : नहीं, वह हजार युग रहे, रहने को क्या है? सूक्ष्म शरीर तो सदा है सब आत्माओं के, तुम्हारे भी है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर - तीन शरीर होते हैं। और इन तीन शरीरों को पार कर जाय तो दिव्य शरीर मिलता है।  गोलोक, वैकुण्ठ लोक, भगवान का लोक। तो सूक्ष्म शरीर तो already सब के है ही है। बिना शरीर के जीव कभी नहीं रह सकता। बिना शरीर के आत्मा नहीं रहती, बिना आत्मा के शरीर नहीं रहता। इनका अन्यान्य संबंध है।  खाली स्थूल शरीर जो है उसके बिना आत्मा रह सकती है। लेकिन सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, कारण शरीर माने संस्कार और सूक्ष्म शरीर जो आँखों से दिखाई न पड़े। आतिवाहिक शरीर भी कहते हैं उसको। तो ज...

यह धराधाम कभी इश्वर से खाली नही रहा है। कभी पूर्णावतार , कभी अंशावतार , कभी विलाशावतार , कभी युगावतार, कभी संत और महापुरुषावतार तो कभी दासावतार आदि के रुप में हमेशा भगवान सगुन साकार रुप में इस धराधाम पर निवास हमेशा किये थे , करते है , और करते रहेगें ।

Image
यह धराधाम कभी इश्वर से खाली नही रहा है। कभी पूर्णावतार , कभी अंशावतार , कभी विलाशावतार , कभी युगावतार, कभी संत और महापुरुषावतार तो कभी दासावतार आदि के रुप में हमेशा भगवान सगुन साकार रुप में इस धराधाम पर निवास हमेशा किये थे , करते है , और करते रहेगें । जब भगवान, संत , महापुरुष , सारे एक हीं है , अपने लीला का संवरण करते हैं तो अपने पीछे अपने परम नीधी स्वरुप अंशो को छोड़ जाते हैं हमारे कल्याण के लिये , हमारी रक्षा के लिये ।  हमारे मार्ग दर्शन के लिये । ये वे दया वश , करुणा वश , कृपा वश करते है , हम पतित जीवो के उद्धार के लिये।  अब हमारे प्राण वल्लभ श्री 'कृपालु जी महाराज जी ' ने भी ऐसा ही किये हैं । अपनी अंशो को , तीनो दीदीयों को और पुत्रों को हमारे कल्याण के लिये एक वरदान स्वरुप हमे देकर खुद निराकार स्वरुप हो कर इस चराचर में व्याप्त हो गये हैं ।  यह अनुभव प्रमाण और शास्त्र प्रमाण है ऐसा हर युग में हुआ हैं। जिन लोगों ने भाव चक्छु , प्रेम पुर्ण नेत्रों से दीदीयों को देखा है , उनके चरण कमल पर अपना मस्तक रखा है , उनको जरुर ऐ एहसास हुआ होगा या हुआ है कि तीनो दीदीयां और भईया क...

उपवास का अर्थ

Image
उपवास का अर्थ सनातन धर्म का इन वेद-शास्त्रो से अनभिज्ञ मूर्ख पंडितो(अज्ञानी ब्राह्मणो) और तथाकथित ढोंगी बाबाओ/महात्माओ ने कितना बेड़ागर्क किया हैं उसकी एक झलक देखिये- उप समीपे यो वास जीवात्मपरमात्मनोः । उपवासः स विज्ञेयः न तु कायस्य शोषणम् ।। (2-39; वराहोपनिषत्) वेद कह रहा हैं कि- जीव के मन-बुद्धि का परमात्मा के निकट/समीप वास करना ना कि काया/शरीर का शोषण; यही वास्तविक अर्थ हैं उपवास का । और समाज में उपवास का अर्थ प्रचलित क्या हैं? इस दिन ये मत खाओ ! उस दिन वो मत खाओ ! एकादशी के व्रत में ये खाओ, प्रदोष के व्रत में वो खाओ, जन्माष्टमी-रामनवमी-नवरात्रि आदि सभी पर्वो में हम बस व्रतो को खाने-पीने की वस्तुओ से ही जोड़कर देखते है !!! अच्छा जी ! तो वेद की परिभाषानुसार आपका मन एकादशी या किसी भी अन्य पर्व या व्रत पर कितनी देर हरि-गुरु के पास रहा अर्थात् कितनी देर आपने भगवद्विषयक चिन्तन किया और मायिक विषयो से मन को दूर रखा?? अजी ! वो तो एक सेकण्ड के लिये भी नही हुआ बल्कि दिन में 20 बार हमने क्रोध किया सैकड़ो बार दूसरो के प्रति गलत चिन्तन किया !! तो फिर आपने कोई व्रत नही किया यहाॅ तक कि रसनेन्द्रिय...

श्री महाराज जी :- भगवान जीव से कैसे आनंद प्राप्त करतें हैं - एक काम की बात सुनो मन -

Image
श्री महाराज जी :- भगवान जीव से कैसे आनंद प्राप्त करतें हैं - एक काम की बात सुनो मन -  जीस प्रकार जीव माया के अण्डर में है उसी प्रकार भगवान योगमाया के अण्डर में हैं । यह योगमाया उनकी प्रर्सनल पावर हैं जिसे स्वरूप शक्ति भी कहतें हैं , सीधी सीधी समझिये गधे की अकल से । तो  वो योगमाया क्या करती है ? भगवान् की सर्वज्ञता को समाप्त कर देती है । अगर भगवान् ये याद रखें कि मैं भगवान् हूंँ तो फिर वो हमारे काम का नहीं , बेकार हो गया वो ।  हाँ, जैसे संसारी स्त्री , संसारी पति के लिए व्याकुल हो रही है और पति परवाह नहीं कर रहा है तो वो स्त्री कहेगी , नमस्कार, ऐसे पति से, और कहीं व्याह कर लेंगें । तो उसी प्रकार अगर हम भगवान् से प्यार करें और भगवान् आत्माराम बने रहें, अजी गधों तुम्हारी हमको क्या आवश्यकता है ? मैं तो ब्रह्मा , शंकर की भी आवश्यकता नहीं महसूस करता । तुम कूड़ा-कबाड़ा जीवों से हमारा क्या लेना-देना।  ना, जितनी मात्रा में हम भगवान् से प्यार करेंगें उसी प्रकार प्रेम करना पड़ेगा भगवान को । करते हैं । तो कैसे करतें हैं ? वही योगमाया, जो स्वरूपशक्ति है भगवान को मोहित कर देती है ...

प्रश्न - धर्म , अर्थ, काम और मौक्ष को कैतव क्यों कहा गया है ?

Image
प्रश्न - धर्म , अर्थ, काम और मौक्ष को कैतव क्यों कहा गया है ? उत्तर ( श्री महाराज जी द्वारा ) - धर्म, अर्थ, काम ऐ बंधन कारक है। यानि यह पुनर्पि जननम पुनर्पि मरनम, यानी आवागमन के चक्र में बांधने वाला कारक है इसलिए इस त्रिकर्म को कैतव कहा गया है। और मौक्ष अपवर्ग है, यह तो बड़ा खतरनाक है। इसे गौरांग महाप्रभु ने पिशाचनी की संज्ञा दिए हैं। क्यूंँकि मौक्ष प्राप्त होने के बाद ज्ञानि खुद ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। आनंदस्वरूप हो जाता है। फिर मैं और मेरा का संभावना खत्म हो जाता हैं। आनंद पा कर आनंदित होना‌ और आनंद स्वरूप बन जाना दोनों में बड़ा भारी अंतर है। अब शुभकर्म किया तो स्वर्ग मिलेगा, स्वर्ग भी माया के अधिन है। मनुष्य हीं शुभकर्म करके, ‌ यानी जीव ही कर्म धर्म करके देव लोक में इंद्र वरूण कुबेर बनतें हैं। और फिर जब उनके सारे पुण्य क्षीण हो जाते हैं स्वर्ग के भोग द्वारा तो फिर धरती पर उनको मनुष्य का शरीर भी नहीं मिलता। देवता एक भोग योनि हैं अन्य जीव की तरह, देवता कर्म नहीं कर सकते क्यूंकि शरीर नहीं है मनुष्य के तरह उनके पास। और जब उनके सारे पुण्य समाप्त हो जातें हैं तो धरती पर कीड़ा मकोड़ा का ...

प्रश्न: साधना करते-करते ही मन दिव्य होने लगता है या थोड़ा शुद्ध होने के बाद गुरु से जब प्रेम मिलता है उसके बाद जा के दिव्य होता है ?

Image
प्रश्न: साधना करते-करते ही मन दिव्य होने लगता है या थोड़ा शुद्ध होने के बाद गुरु से जब प्रेम मिलता है उसके बाद जा के दिव्य होता है ?     नहीं, शुद्ध होने लगता है उसी को दिव्य कहते है। शुद्ध होने लगता है कि गन्दगी साफ़ होती गई, तो हमारे विचार अच्छे होने लगे नैचुरल, हमारा अटैचमेंट संसार से कम होने लगा नैचुरल। ये सब उसकी पहचान है। जैसे हमारा किसी ने अपमान किया तो कितना चिन्तन हुआ था, आज अपमान किया तो थोड़ी देर में ख़तम कर दिया। हाँ, अब आगे बढ़ गये। कल हमारा सौ रुपया खो गया तो हम आधा घंटा परेशान रहे, आज सौ रुपया खो गया तो पाँच मिनट परेशान रहे, उसके बाद हमने कहा – ये हमारे लिये नहीं रहा होगा। हटाओ। ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ेंगे ईश्वर की ओर त्यों-त्यों ये कष्ट की फीलिंग कम होती जाएगी। ये माइलस्टोन असली है।     तो साधना में मन धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शुद्ध होता है। लेकिन जब पूर्ण शुद्ध होगा तो अलौकिक शक्ति गुरु देगा, वह असली दिव्य है जिससे माया निवृत्ति होगी, भगवद्दर्शन होगा, सब समस्यायें हल होंगी। वह दिव्यता एक पॉवर है। और इधर की जो शुद्धता है इसको दिव्य बोलते हैं कि ये माया से ...

मसूरी लीला........साधक-श्री महाराजजी संवाद। श्री महाराज जी अपने गुरू के बारे में ।

Image
मसूरी लीला........साधक-श्री महाराजजी संवाद। एक बार एक सत्संगी ने श्री महाराजजी से पूछा कि हम संसार के लोगों को बाकी सभी प्रश्नों के उत्तर तो दे देते हैं किन्तु एक प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते। जब लोग हमसे बहस करते हैं कि रामजी, कृष्णजी,और गौरांग महाप्रभु जी के गुरु थे,तो फिर तुम्हारे गुरु (श्री महाराजजी) के कोई गुरु क्यों नहीं है? श्री महाराजजी: अरे! तो तुम कह दो न की उनके भी गुरु हैं। सत्संगी: महाराजजी,लेकिन आपके गुरु तो कोई भी नहीं है। महाराजजी: हैं.....हैं .....पर बताएँगे नहीं। सत्संगी: महाराजजी,प्लीज बताइये न? महाराजजी: जब प्रचारक लोग प्रवचन करते हैं और सत्संगी फिर उनसे जुड़ते हैं और बाद में ये प्रचारक लोग बताते हैं कि हमारे गुरु 'जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज' हैं तो सब उन लोगों को छोड़ के मेरे पास आ जाते हैं। इसलिए अगर मैं भी अपने गुरु का नाम बता दूँगा तो तुम लोग भी मुझे छोड़ के उनके पास चले जाओगे, और मैं अकेले बैठा रह जाऊँगा मसूरी में। थोड़ी देर बाद सिद्धान्त समझाया कि देखो दो प्रकार के महापुरुष होते हैं एक साधन सिद्ध, और एक नित्य सिद्ध। तो साधन सिद्ध को तो गुरु बनाना ही पड़त...

मुर्ति पुजा क रहस्य , भगवान श्री कृष्ण का वास्तविक रंग कैसा है ।

Image
संसार में अगर श्यामसुन्दर के रंग की कोई वस्तु एक प्रतिबिम्ब रुप में आप जानना चाहें, तो ऐसा करें यहाँ गाँवों में अलसी का फूल होता है अलसी का पेड़ होता है उसमें एक फूल होता है हलका नीला , उसके ऊपर जब सबेरे - सबेरे की सूर्य की किरण पड़ती है लाल लाल , तो वो जो फूल में सूर्य की लाल किरण का मिक्श्चर होता है , ऐसा आईडिया आप ले सकते हैं, श्यामसुन्दर के शरीर के रंग का ।  लेकिन ऐसी कोई मूर्ति बनी नहीं । इतने बड़े साइंस के युग में भी या तो धर दिया काला पत्थर या तो धर दिया सफ़ेद पत्थर ये ठाकुर जी हैं । अब हमारे मन को कैसे भावे ? अरे ये मूर्ति बड़ी चमत्कारी है । इस डर के मारे हम जाते हैं मंदिर में । चमत्कारी ? अरे चमत्कारी फमत्कारी कुछ नहीं होता , ये हमारी भावना का फल देती है मूर्ति ।  मूर्ति में कोई बात कुछ नहीं है । उसी मूर्ति को हजारों हथौड़ी मारा है शिल्पी ने , लोहे की हथौड़ी से मार- मार करके  उनके हाथ पैर बनाये हैं । वही मूर्ति है ये । अजी लेकिन , अब तो मंदिर में आ गई है । मंदिर क्या है , मिस्त्रियों ने चढ़-चढ़  के उसके ऊपर दीवार बना दी , मंदिर खड़ा किया है और क्या है मंदिर ...

कोई अगर पुर्ण या आंशिक रूप से मानसिक विकलांग है तो वो जीव क्या भक्ति का अधिकारी नहीं है , या वो कैसे भक्ति करें ? या उसका उद्धार कैसे हो ?

Image
एक बहन ( जो युगल सरकार की भक्ति करती है पर  श्री महाराज जी से नहीं जुडें हैं और ना हीं उनके किसी प्रचारक से जुड़े हैं पर छ: महीने से उनका झुकाव श्री महाराज जी के तरफ हुआ है सोसल मिडिया द्वारा ) वो बहन बहुत बड़े सरकारी पद पर हैं ।  उन्होंने एक बड़ा मार्मिक प्रश्न पुछा है मुझसे और रिक्वेस्ट की है कि मैं उनके प्रश्न का समाधान करूं पहले बिना नाम लिए उनका और पोस्ट कर दुं फेसबुक पर ताकी उनके रिस्ते नाते दार संगी साथी भी समझ सके और बाद में मां से पुछ कर फिर डिटेल डालुं । उनका प्रश्न बड़ा मार्मिक और दिल को द्रवित करने वाला है । उनका प्रश्न है कि किसी का बेटा अगर पुर्ण या आंशिक रूप से मानसिक विकलांग है तो वो जीव क्या भक्ति का अधिकारी नहीं है , या वो कैसे भक्ति करें ? या उसका उद्धार कैसे हो ?  मैं अंत:प्रेरणा के आधार पर समाधान देता हुं । और मां से भी पुछ कर फिर लिखुंगा आगे । लेकिन मुझे लगता है यही उत्तर मां से भी मिल सकता है ।  सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा की मानसिक विकलांगता का स्तर क्या है । दुनिया के मनोवैज्ञानिकों ने इसे वर्गीकृत निम्न प्रकार से किया है :-  ...

" भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यत : । तेन पापेन युज्येत यस्यार्योऽनुरमते गत : ।।"भरत जी ने कहा था कि भक्ति मार्ग में जो बहस करता है वो भी अपराध है ।

Image
" भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यत : ।     तेन पापेन युज्येत यस्यार्योऽनुरमते गत : ।।" भरत जी ने कहा था कि भक्ति मार्ग में जो बहस करता है वो भी अपराध है । अगर कोई व्यक्ति आपसे कुछ पुछता है और आपने ठीक जबाब दे दिया और देख लिया ये जिद्दी है , नहीं मानता तो ठीक है , ठीक है । आप ठीक कहते हैं बस चुप हो जाओ, विल्कुल हाँ मेरी नॉलिज इतनी है ही नहीं आप बहुत ज्यादा जानतें हैं । ठीक है ठीक है खतम करो बात को बहस न करो आगे न बढ़ाओ । क्योंकि वह जिद्द करके आया है कि हम इसके खिलाफ बोलेंगे और तुम उससे भिड़ोगे फिर तुम्हे टेंशन होगा फिर तुमको अशांति होगी । - श्री महाराज जी ( कामना और उपासना भाग-२ पेंज ४४१) प्रश्न श्री महाराज जी से - ईश्वर प्राप्ति में मान-अपमान को सबसे बड़ा बाधक माना जाता है, किन्तु इनसे छुटकारा पाना इतना आसान नहीं है । क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे इन दोनों के रहते हुए भी हमारा काम बन जाए ?  उत्तर श्री महाराजी द्वारा - हमारा मन मान-अपमान दोनों को पकड़े हुए है । ये दोनों ईश्वर प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण बाधक तत्त्व बनकर हमारे सामने उपस्थित हैं । इनसे छुटकारा पाना इतन...

जब हमारा राग भगवान् में हो गया तो फिर हमारे कर्म का कर्त्ता भगवान हो गया ।

Image
जब हमारा राग भगवान् में हो गया तो फिर हमारे कर्म का कर्त्ता भगवान हो गया । इसलिये हम उसके फल के भोक्ता नहीं रहे । इसलिये उस कर्म के जो फल को बुरा बताया है , शास्त्र में , उसके लिये भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि तु धर्म को छोड़ करके मेरी शरण में आयेगा अगर तो -      " अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मौक्षयिष्यामि मा शुच: ।। "                                                 ( गीता १८-६६) तू चिन्ता मत कर , मैं सब पाप तेरे समाप्त कर दूँगा । जो वेद लोग लगायेंगे - तूने पाप किया , क्या पाप किया हमने ? तुमने वाप की बात नहीं माना, प्रह्लाद ! तुझे नरक मिलेगा । भगवान् बीच में आ गये । लेकिन इसने हमको बाप मान लिया है इसलिये बाप की आज्ञा नहीं माना तो कोई बात नहीं वो माफ हो गया । कानून कानून को काटता है । ये फिज़ीकल धर्म है । माँ बाप वेटा स्त्री पति ये शारीरिक धर्म है,  अध्यात्मिक धर्म के आगे शारीरिक धर्म कट जाता है । उसका कोई मूल्य नहीं है एक पैसे का मूल्य नहीं है ।...

योग का क्या मतलब है ? योग क्या हैं ? योग का असली अर्थ - श्री महाराज जी के श्री मुख से :- " संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्म परमात्मनो: ।" (याज्ञवल्क्य )

Image
योग का क्या मतलब है ? योग क्या हैं ?  योग का असली अर्थ - श्री महाराज जी के श्री मुख से :-  " संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्म परमात्मनो: ।" (याज्ञवल्क्य ) जीवात्मा परमात्मा का मिलन हो उसका नाम योग । योग माने मिलन । तो जीवात्मा परमात्मा का मिलन तो सदा से है ही । होना क्या है? वो मन बुद्धि का मिलन । यानी आपके मन का अटैचमेंट सेन्ट परसेन्ट भगवान् में हो , निरंतर । अर्जुन को यही कर्मयोग बताया श्री कृष्ण ने । काम तो हत्या का , इतना बुरा काम किया हत्या करना , लाखों करोड़ो की हत्या की अर्जुन ने और जिनकी जिनकी हत्या की पुरुषों की उनकी स्त्रियाँ विधवा हो गयीं । अब विधवा होने के बाद बहुत सी स्त्रियाँ करैक्टरलेस हो गईं , दुश्चचरिता हो गईं । इतना सारा रियक्शन बुरा होगा , भविष्य में , लेकिन युद्ध कोई अच्छी चीज तो नहीं हैं ? ये अर्जुन ने स्वयं किया । हाँ और गवाही ? करोड़ो । लेकिन श्रीकृष्ण जो भगवान् बनें हैं उन्होंने अपने वहीखाते में कुछ लिखा ही नहीं । अरे दफा ३२३ भी नही लिखा । मर्डर वगैरह की बात कौन करता । क्यों ? इसलिये कि योग था उसके मन का श्रीकृष्ण में ।   " तस्मात् सर्वेषु कालेषु ...

*यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।**तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।*(श्वेता. ६-२३)

Image
*आप लोग जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ जानते हैं, जो कुछ करते हैं, तीन- ज्ञान, बल, क्रिया यानी ज्ञान, बल, माने इच्छा क्रिया। ये तीन भगवान् में पूर्ण-पूर्ण और हमारे अन्दर क्षुद्र-क्षुद्र, थोड़ी-थोड़ी। लेकिन वहीं से कनेक्टेड हैं सदा। उन्हीं की शक्ति से ये शक्तिमान् हो रहा है जीव और उन्हीं की शक्तियों से शक्तिमती, जितनी भी शक्तियाँ हमारी वर्क कर रही हैं जितनी शक्तियाँ भगवान् में हैं उतनी हमारे अन्दर भी हैं लेकिन एक के पास पारस है, एक के पास एक लाख रुपया है। पारस तो अनन्त रुपया बनाता जायगा और बना रहेगा स्वयं और एक लाख रुपया क्या है आज, दो-एक साल में समाप्त हो जाता है। लेकिन है सब चीज हमारे पास भी क्योंकि हम सत्, चित्, आनन्द ब्रह्म के अंश हैं इसलिये सन्धिनी, संवित्, ह्लादिनी, तीनों शक्तियों का रियेक्शन हमारे साथ है। वो भी चेतन, हम भी चेतन, वो भी अनादि, हम भी अनादि, वो भी नित्य, हम भी नित्य। लिमिट का भेद है। हम लिमिटेड हैं वो अनलिमिटेड है, बस। मोटी-सी परिभाषा समझिये हमारी सब चीजें सीमित हैं, उसकी सब चीजें सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। कोई भी चीज़ भगवान् की सान्त नहीं है, सीमित नहीं है, सब अनन्त। सत्ता...

शास्त्र की ये चिकनी-चुपड़ी बातें लौजिक से समझ नहीं आतीं । तो क्या आचार्यो ने जो कहा, वह गलत है । यदि नहीं, तो नाम लेने पर भी अभी तक हमारा काम क्यों नही बना ?

Image
भाव कुभाव अनख आलसहूँ ।  नाम जपत मंगल दिसि दसहुँ । - रामचरित मानस , तुलसीदास ।। नाम चाहे श्रद्धा से लीजिए या अश्रद्धा से । भाव हो या न हो, नाम लेते रहिए । काम बन जाएगा । जैसे - गंगाजी का नाम ले लीजिए, स्नान मत करिए । केवल नाम ले लेने से समस्त पाप चले जाएँगें ।  शंकराचार्य जी ने भी कहा है - श्रद्धाभक्त्योरभावेयपि भगवन्नाम संकिर्तनं समस्तं पापं दुरितं नाश्यति । तात्पर्य यह है कि श्रद्धा हो या न हो, लेकिन भगवान का नाम लेने मात्र से जीव पाप मुक्त हो जाता है ।  किन्तु शास्त्र की ये चिकनी-चुपड़ी बातें लौजिक से समझ नहीं आतीं । तो क्या आचार्यो ने जो कहा, वह गलत है । यदि नहीं, तो नाम लेने पर भी अभी तक हमारा काम क्यों नही बना ? इस विषय पर भागवत का एक प्रकरण बड़ा प्रसिद्ध है । सभी लोग इस बात का ढिंढोड़ा पीटतें हैं कि अजामिल ने अपने पुत्र नारायण का नाम लिया और काम बन गया । म्रियमाणो हरेर्णाम गृणन् पुत्रोपचारितम् । अजामिलोअ्प्यगाद्धामकिं पुन: श्रद्धया गृणन् ।। - भागवत  उसी प्रकार जब कोई मरता है तो लोग गीता-रामायण सुनाते हैं । तुलसी जल पिलाते हैं । भगवान की फोटो लगातें हैं । किन्तु...

ध्वंस का कारण हो, प्रेम के नष्ट होने का कारण हो, फिर भी प्रेम न घटे, उसमें हलचल न होने पावे। नॉर्मेलिटी में चलता जाय आगे को, उसका नाम प्रेम।

Image
*सुकरात एक फिलॉसफर हुआ है, उसका शिष्य था डायोज़नीज़, उसके पास सिकन्दर बादशाह गया और उसने कहा महाराज! कुछ हमारे लिए सेवा बताइये। तो डायोजनीज ने कहा, हट! धूप छोड़ दे! सेवा करेगा यह। है क्या तेरे पास फटीचर दरिद्री। तू क्या सेवा करेगा? मेरी सेवा करेगा? मेरी सेवा करना है तो दे स्प्रिचुअल हैपीनेस। है तेरे पास? नहीं वह तो नहीं है। फिर क्या सेवा करेगा तू? रसगुल्ला खिलायेगा मुझे? इसके लिये मैं बाबा जी बना हूँ? अरे! भाई कोई गरीब पैसा माँगने जाये तो उसको पैसा चाहिए। कोई बुद्धि माँगने जाय उसको ज्ञान चाहिए। हमको स्प्रिचुअल हैपीनेस चाहिए और तू दान करने का स्वांग रचकर के मेरे पास आया है। क्या देगा तू तो खुद भिखारी है। यह जो छोटी मोटी सम्पत्ति यह हीरा मोती यह मिट्टी के टुकड़े जो तू इण्डिया वगैरह से लेके आया है, यह मुझे देने आया है? (हाँ!)* *तो प्रेम एक दिव्य वस्तु है। यह नं. दो वाला। लेकिन नं. एक वाला जो प्रेम है, वो हमको करना है। करना पड़ेगा। यहीं पर कनफ्यूजन हो जाता है संसार में बड़े-बड़े काबिलों को कि भाई यह तो ऐसा है महाराज जी कि वह तो कृपा साध्य है प्रेम। हाँ है। तो फिर कृपा कर दीजिये। लेकिन यह त...

वेद मंत्र में स्वर होते हैं। स्वर। जैसे गायत्री मंत्र आप लोग जानते होंगे।*

Image
*एक राक्षस ने यज्ञ कराया, ऋषियों को जबरदस्ती पकड़ के। और उसमें मंत्र था- "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्व"। यानी इन्द्र का शत्रु बढ़े और इन्द्र मारा जाय। यज्ञ हुआ तो जो यज्ञ कराने वाले थे, वो तो इन्द्र के भक्त थे, ब्रह्मर्षि लोग। उन्होंने कहा ये राक्षस तो हमको पकड़ कर लाया अब हम क्या करें ? तो उन्होंने चालाकी की। वेद मंत्र में स्वर होते हैं। स्वर। जैसे गायत्री मंत्र आप लोग जानते होंगे।* *तत्सवितु वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।* *ये गायत्री मंत्र है। ऐसे नहीं बोलना चाहिये। पाप लग जायेगा इसमें स्वर होते हैं-*  *तत्स वितुर्वरेण्यं भर्गो ऽ देवस्य धीमहि धियोऽयो नः प्रचोदयात्।* *ऐसे बोला जाता है। तो स्वर लगा है हर एक अक्षर के ऊपर । तो उन्होंने आद्युदात्त की जगह अन्त्योदात्त कर दिया। अक्षर वही बोले, तो उसका अर्थ हो गया कि 'इन्द्र के द्वारा राक्षस मारा जाय।‌' यज्ञ में भगवान् प्रकट हुये। भगवान् ने कहा तुम लोगों ने जो माँगा है, मैंने दिया। अब युद्ध हुआ तो राक्षस मारा गया। जब मरने लगा तो उसने कहा- ऐ भगवान् ! मैं भी तुम्हारी सन्तान हूँ। ये तुमने अनर्थ किया। हमको वरदान द...

वेद मंत्र में स्वर होते हैं। स्वर। जैसे गायत्री मंत्र आप लोग जानते होंगे।*

Image
*एक राक्षस ने यज्ञ कराया, ऋषियों को जबरदस्ती पकड़ के। और उसमें मंत्र था- "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्व"। यानी इन्द्र का शत्रु बढ़े और इन्द्र मारा जाय। यज्ञ हुआ तो जो यज्ञ कराने वाले थे, वो तो इन्द्र के भक्त थे, ब्रह्मर्षि लोग। उन्होंने कहा ये राक्षस तो हमको पकड़ कर लाया अब हम क्या करें ? तो उन्होंने चालाकी की। वेद मंत्र में स्वर होते हैं। स्वर। जैसे गायत्री मंत्र आप लोग जानते होंगे।* *तत्सवितु वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।* *ये गायत्री मंत्र है। ऐसे नहीं बोलना चाहिये। पाप लग जायेगा इसमें स्वर होते हैं-*  *तत्स वितुर्वरेण्यं भर्गो ऽ देवस्य धीमहि धियोऽयो नः प्रचोदयात्।* *ऐसे बोला जाता है। तो स्वर लगा है हर एक अक्षर के ऊपर । तो उन्होंने आद्युदात्त की जगह अन्त्योदात्त कर दिया। अक्षर वही बोले, तो उसका अर्थ हो गया कि 'इन्द्र के द्वारा राक्षस मारा जाय।‌' यज्ञ में भगवान् प्रकट हुये। भगवान् ने कहा तुम लोगों ने जो माँगा है, मैंने दिया। अब युद्ध हुआ तो राक्षस मारा गया। जब मरने लगा तो उसने कहा- ऐ भगवान् ! मैं भी तुम्हारी सन्तान हूँ। ये तुमने अनर्थ किया। हमको वरदान द...

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

Image
श्री महाराज जी - मीरा को जब उसके ससुराल में भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से रोका जाने लगा  , भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में  बाधा उत्पन्न किया जाने लगा उसके परिवारवालों के द्वारा , तरह तरह का कष्ट दिया जाता था उसे , भगवान श्री कृष्ण के विग्रह को फेंक दिया जाता था । तो मीरा दुखी होकर  तुलसीदास जी को  पत्र लिखी और उनसे पुछी कि ऐसे में मैं क्या करूं ? कभी कभी तो मेरी इच्छा होती है मैं सबको त्याग दूं सदा के लिए , इसमें कोई पाप तो नहीं ?  तो तुलसीदास जी ने मीरा के पत्र का ज़बाब दिया वो उनके विनय पत्रिका में हैं आप सब पढ़ लीजिएगा  । उन्होंने मीरा को लिखा कहा - "जाके प्रिय न राम बैदेही । तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि  परम  सनेही ।।1।। तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु , भरत महतारी । बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं,भए मुद-मंगलकारी।।2।। नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां  लौं । अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।3। तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे । जासों होय सनेह राम –पद , एतो मतो     हमारॉ ।। भावार्थ ...

"भगवद् मार्ग के पथिक को अपने मान सम्मान में सुख और अपमान में दुख का अनुभव कभी नहीं करना चाहिए

Image
श्री कृपालु जी महाप्रभु :- "भगवद् मार्ग के पथिक को अपने मान सम्मान में हर्ष और अपमान में दु:ख का फिलिंग (अनुभव) कभी नहीं करना चाहिए हमें तो यह शौख होना चाहिए कि कोई मेरा अपमान करे और मैं जरा भी बिचलित न होऊ , उल्टे हंसता रहुं ,   हमें अच्छा बनने का प्रयत्न करना चाहिए ना कि अच्छा कहलवाने का । "  और गौरंग प्रभु ने भी कहा है कि :-  न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।  मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥ अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, और मान सम्मान की कोई कामना है और न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ॥४॥ अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।  कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥ अनुवाद: हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये...

कलियुग केवल नाम आधारा ,सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा ।।

Image
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नाम केवलम् , कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा ।। नाम के अतिरिक्त क्ल्याण का और मार्ग नहीं। कलयुग में बहुत दोष है। दोष से युक्त है यह कलयुग! लेकिन दोषयुक्त होने पर भी इसमें एक सबसे बड़ा गुण है और यह गुण स्मस्त दोषों को ढके हुए हैं । यह एक गुण अन्य दोषों पर भारी पड़ता है। कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा ।। यानि कलयुग में कोई साधक भगवान में ध्यान स्थिर करके भगवन्नाम का सहारा लेता है , तो " गतिरन्यथा" - उसकी उत्तम गति एक मात्र भगवन्नाम लेने से हो जाती है । अन्यत्र कहीं जाने की भटकने की कोई आवश्यकता नहीं है । अन्य कोई उपाय करने की आवश्यकता नहीं हैं । इस कलियुग में जीव के उद्धार का सबसे सरल मार्ग है, माया से मुक्ति का यह सबसे बड़ी दवा है ।  गौरांग महाप्रभु ने कहा है कि -  संकिर्तन यज्ञे करे कृष्ण-आराधन । सेई तो सुमेधा  पाय कृष्णेर चरन ।।  सुमेधा माने बुद्धिमान , संकिर्तन यज्ञ माने - मन से भगवान के नाम का सेवन करना ,  संग करना अपने आपको अर्पित करना । तो यहां गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि इस कलियुग में कोई जीव यदि भगवान का नाम...

तीन प्रकार की भगवत्कृपा होती है ।

Image
तीन प्रकार की भगवत्कृपा होती है । एक कृपा , एक विशेष कृपा , एक अद्भुत कृपा , ये तीन कृपाये होती हैं , भगवान् की । किसी का पुण्य थोड़ा है, उसके ऊपर एक कृपा हुई । किसी का पुण्य विशेष अधिक है, तो दो कृपा हो गई और किसी का बहुत पुण्य है, तो तीन कृपा होती हैं । ये तीनों दुर्लभ हैं । बहुत दुर्लभ , हज़ारो में एक ऐसा नहीं , लाखों में एक ऐसा नहीं, करोड़ो में एक ऐसा नहीं, अरबों में एक ऐसा नहीं अनंत में एक । ये ऐसी कृपा है। पहली कृपा :- मानवदेह प्राप्त होना । ये मानवदेह सब देहों में श्रेष्ठ है । देवताओं के देह से भी श्रेष्ठ है । दूसरी कृपा :- महापुरुष का मिलना ये विशेष कृपा । जिसको भगवत्प्राप्ति हो गई हो , जो भगवत्प्राप्ति का सही मार्ग जानता हो , हमको बता सके ऐसा वास्तविक महापुरुष अगर किसी को मिल गया तो ये नंबर दो की कृपा हुई । तीसरी कृपा :- तीसरी चीज़ जो सबसे इम्पोर्टेन्ट है जिसको अद्भुत कृपा कहते है ,भूख कहते है , जिज्ञासा वो पाने की व्याकुलता । जो हमारे ऊपर नहीं हुई यह बहुत कम हुई । बार- बार सोचो, कितनी बड़ी भगवत्कृपा मेरे ऊपर है, अगर मृत्यु के एक सेकण्ड पहले भी आपको यह बोध हो गया कि मैं कितना स...

BGSM (ब्रजगोपिका सेवा मिशन ) द्वारा 2007 से बाल संस्कार शिविर का आयोजन।।

Image
राधेराधे  विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तमई स्वामी श्री कृपालु जी महाराज जी के विशिष्ट वरिष्ठ एवं प्रमुख प्रचारिका रासेस्वरी देवी जी द्वारा प्रतिस्थापित BGSM (ब्रजगोपिका सेवा मिशन ) द्वारा 2007 से बाल संस्कार शिविर का आयोजन किया जा रहा है । जिस में बच्चों के सर्वांगीण बहुआयामी उन्नति के लिए विभिन्न कार्यक्रम किये जाते रहे है । विद्वान और योग्य शिक्षकों द्वारा ट्रेनिंग दिया जाता है ।  बहुतों का प्रश्न ये है की ऐसा शिविर तो और भी संस्था आयोजन करते है लेकिन ऐसा क्या है जो इस शिविर को औरों से अलग करता है ? प्रत्येक पिता माता ये चाहते है कि हमारा संतान संस्कारवान बनें ।उसकी शिक्षा सबसे अच्छे school या college में हो ।सबसे qualified teacher मिले हमारे बच्चों को ।ये हर वो मातापिता चाहते है जो अपने बच्चों को समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित देखना चाहते है । और ये संस्था तो विश्व के पंचम मूल जगद्गुरु जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालुजी महाराज जी के आदर्श और दर्शन से प्रेरित है तो सोचिये यहां पर कि कितनी उच्च शिक्षा मिलती होगी आपके बच्चों को यहां ? बहुतों को ये भी भय रहता है कहीं ये हमारे ...

गुरू तत्त्व

Image
💐💐💐💐गुरू तत्त्व💐💐💐💐 अभी तक हमने जाना कि तीन तत्त्व हैं - वह,  मैं  और यह । अर्थात् ब्रह्म, जीव और माया । फिर यह चौथा गुरू तत्त्व कहांँ से आ गया ? वेद व्यास जी कहतें हैं -  'नास्ति तत्त्वं गूरो: परम् ।'  गुरू के आगे कोई तत्त्व ही नहीं है । परतत्त्व यानी अंतिम तत्त्व गुरूतत्त्व है । यह वेदव्यास भगवान के अवतार लिख रहें हैं । कौन उँगली उठावे ।  पर स्वाभाविक प्रश्न है - जब वेदों में, शास्त्रों में परतत्त्व श्रीकृष्ण को बताया गया है, तो गुरू कैसे परतत्त्व हो जाएगा । इसका उत्तर वेद देता है कि गुरू तत्त्व भगवान से बड़ा नहीं है । लेकिन है भी । मतलब ! मतलब यह कि हम अपने स्वार्थ की दृष्टि से गुरू तत्त्व को भगवान से बड़ा मानते हैं । वास्तव में हैं नहीं , किन्तु मानतें हैं । क्यों ? इसलिए  कि भगवान को जानना सबसे पहले जरूरी है । श्रीकृष्ण कौन हैं ? उनसे हमारा क्या संबंध है ? उनकी प्राप्ति क्यों की जाए ? उनकी प्राप्ति कैसे की जाए ? यह सब ज्ञान सबसे पहले आवश्यक है । यह ज्ञान वेदों से प्राप्त होगा । किसी भी ज्ञान की अंतिम आथोरिटी वेद है । हम वेद पढ़कर भगवान के बिषय ...

बड़े भाग्य मानुस तन पावा। सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन गावा॥

Image
बड़े भाग्य मानुस तन पावा।  सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन गावा॥ साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।  पाई न जेहि परलोक संवारा॥ सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि-धुनि पछिताय।  कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाय॥   जो न तरै भव सागर, नर समाज अस पाइ। सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाइ॥ (उत्तरकाण्ड दोहा ४४)तुलसीदास जी ।  बड़े सौभाग्य से जीवों को मनुष्य का शरीर मिलता है। यह शरीर पाना देवों के लिए भी दुर्लभ है। क्योंकि देवता भगवद्प्रेम की प्राप्ति , श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने के लिए कोई कर्म भी कर हीं नहीं सकता‌ , कारण कि देवता एक भोग योनि का शरीर है ,‌ आपलोग ही अनेकों पुण्य करके अनेक बार इंद्र वरूण कुबेर बने जैसे हरिश्चंद्र , राजा बलि आदि और फिर पुण्य सब समाप्त हो गया स्वर्ग के सुख को भोगने के बाद तो फिर से पृथ्वी पर पटक दिए गए कुत्ता बिल्ली गद्हा आदि के योनि में ।  देवताओं का शरीर सूक्ष्म शरीर है , और केवल मनुष्य के शरीर में हीं यह गुण है कि वो कर्म करके , भक्ति करके भगवद् प्राप्ति कर लें । ऐसे दुर्लभ शरीर को पाकर जो मनुष्य भक्ति नहीं करें , भगवद्प्राप्ति के ल...

राधा रानी की उपासना बड़ा आसान है , केवल मन से हमेशा उनको याद करिये |

Image
राधा रानी की उपासना बड़ा आसान है , केवल मन से हमेशा उनको याद करिये | हम शरीर नही आत्मा हैं और हम सभी आत्मा की शाश्वत मां राधा रानी हीं हैं |  ब्रह्मा , विष्णु , महेश , गणेश जी , हनुमान जी , मां जगदम्बा भी उन्ही को भजते हैं | क्योकि ये लोग ही भगवान श्री कृष्ण के डाईरेक्ट अंश हैं इसलिये ये भी भगवान ही कहलाते है | अब आप पुछियेगा की राम कृष्ण बहुत जगह शास्त्र में लिखा है कि पुजा करते हैं शंकर , या मां जगदम्बा आदि की तो इसलिय की वेद में ही लिखा है और यह भगवान श्री कृष्ण ने खुद कहा है कि अहं भक्त पराधिन: , इसका मतलब की हम अपने भक्तों के अधिन हैं , हम भक्त के बस में हैं हम अपने भक्तों को भजतें है और भक्त मुझे | भगवान ने देवी देवता तथा ग्रहो की पुजा बंद करा दि थी | देखिये गीता भागवत् कैसे उन्होने ईन्द्र की पुजा बंद करा दी , परन्तु पण्डितों ने लोगों को गुमराह कर अपने फायदे के लिये पुजा करवाते हैं जिसका कोइ फल नही हैं | तमाम ग्रह डरते हैं और भजते है एक मात्र राधाकृष्ण को| और जब वो देखेंगें की आप भी उनके इष्ट को भजते है तो खुश होंगें | आपका कुछ नही विगारेंगें | छोडिये करमकाण्ड - सत्यनारायन का...

ये स्वर्ग भी हमारे मृत्यु लोक की तरह है , कोई अन्तर नही है | वहाँ भी काम, क्रोध , लोभ , मोह, मद, मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेष सब बिमारियाँ स्वर्ग में भी हैं |

Image
ये स्वर्ग भी हमारे मृत्यु लोक की तरह है , कोई अन्तर नही है | वहाँ भी काम, क्रोध , लोभ , मोह, मद, मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेष सब बिमारियाँ स्वर्ग में भी हैं | परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन | तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् || ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ ) इस मंत्र का अभिप्राय यह है कि बड़े - बड़े योगियों ने , तपस्वियों ने , अनेक प्रकार के साधन किये किन्तु थक गये | न तो माया निवृत्ति हुई और न आनन्द प्राप्ति हुई | कोई लक्ष्य हल नहीं हुआ | स्वर्ग तक गये | स्वर्ग के सुखों को देखा , भोगा और वैराग्य हो गया | ये स्वर्ग भी हमारे मृत्यु लोक की तरह है , कोई अन्तर नही है | वहाँ भी काम, क्रोध , लोभ , मोह, मद, मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेष सब बीमारियाँ स्वर्ग में भी हैं | और वह भी कुछ दिन के लिय मिलता है | तब उन लोगों ने निश्चय किया कि उस ब्रह्म को जानने के लिये , भगवान को पाने के लिये और कोई साधन काम नहीं देगा | केवल एक साधन है | क्या ? श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की शरण में जाना होगा | श्रोत्रिय , ब्रह्मनिष्ठ , दो शब्द हैं | श...