वेद मंत्र में स्वर होते हैं। स्वर। जैसे गायत्री मंत्र आप लोग जानते होंगे।*
*एक राक्षस ने यज्ञ कराया, ऋषियों को जबरदस्ती पकड़ के। और उसमें मंत्र था- "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्व"। यानी इन्द्र का शत्रु बढ़े और इन्द्र मारा जाय। यज्ञ हुआ तो जो यज्ञ कराने वाले थे, वो तो इन्द्र के भक्त थे, ब्रह्मर्षि लोग। उन्होंने कहा ये राक्षस तो हमको पकड़ कर लाया अब हम क्या करें ? तो उन्होंने चालाकी की। वेद मंत्र में स्वर होते हैं। स्वर। जैसे गायत्री मंत्र आप लोग जानते होंगे।*
*तत्सवितु वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।*
*ये गायत्री मंत्र है। ऐसे नहीं बोलना चाहिये। पाप लग जायेगा इसमें स्वर होते हैं-*
*तत्स वितुर्वरेण्यं भर्गो ऽ देवस्य धीमहि धियोऽयो नः प्रचोदयात्।*
*ऐसे बोला जाता है। तो स्वर लगा है हर एक अक्षर के ऊपर । तो उन्होंने आद्युदात्त की जगह अन्त्योदात्त कर दिया। अक्षर वही बोले, तो उसका अर्थ हो गया कि 'इन्द्र के द्वारा राक्षस मारा जाय।' यज्ञ में भगवान् प्रकट हुये। भगवान् ने कहा तुम लोगों ने जो माँगा है, मैंने दिया। अब युद्ध हुआ तो राक्षस मारा गया। जब मरने लगा तो उसने कहा- ऐ भगवान् ! मैं भी तुम्हारी सन्तान हूँ। ये तुमने अनर्थ किया। हमको वरदान दिया था कि जो माँगा गया वो दे दिया। और हम मर रहे हैं। भगवान ने कहा- गधे ! तेरे मंत्र का मतलब यही था। ये तो ऋषियों ने गलत किया होगा। तो तेरे ही तो ऋषि हैं। तू जाने, मैं क्या जानूं? जैसा मंत्र तूने बोला वैसा हमने फल दे दिया। इतना कठिन है ये कर्मकाण्ड। तो भगवान ने कहा कि इन सब कर्मों का फल स्वर्ग है। प्रश्न ही नहीं उसको अपनाने का। हमको तो आनन्द चाहिये। तब आगे कहते हैं-*
*भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।*
(भाग. ११-१४-२१)
*ध्यान दीजिये। 'एकया भक्त्या।' केवल एक भक्ति से ही मैं ग्राह्य हूँ। मुझे कोई पकड़ सकता है, पा सकता है। वो चाहे चाण्डाल हो। अनन्तकोटि पाप किये बैठा हो। मेरी भक्ति कर ले मुझको पा लेगा और अगर भक्ति नहीं करता (ध्यान दीजिये।) तो-*
*धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपस्विता।*
*मद्भक्त्यपेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि॥*
(भाग. ११-१४-२२)
*अगर भक्ति नहीं करता तो सत्य प्लस दया से युक्त धर्म, धर्म में अगर ये दो चीजें प्लस हो जायँ तो वो टॉप का धर्म कहलाता है, सत्य और दया। और तपश्चर्या से युक्त ज्ञान वो टॉप का होता है। इससे युक्त भी कोई हो जाय तो भी बिना मेरी भक्ति के उसका अन्त:करण भी शुद्ध नहीं होगा। आगे की बात छोड़ो-*
*कथं बिना रोमहर्षं द्रवता वा चेतसा विना।*
*विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः॥*
(भाग. ११-१४-२३)
*देखो भगवान् का स्मरण कर के उनके मिलन की परम व्याकुलता बढ़ा करके जिसके आँखों से आँसू आयेंगे, उनके स्मरण से शरीर में रोमांच, कंपादि होंगे तभी अन्त:करण शुद्ध होगा। ये धर्म कर्म से अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता। फिर आगे कहते हैं-*
*तैस्तान्यघानि पूयन्ते तपोदान व्रतादिभिः।*
*नाधर्मजं तद्धृदयं तदपीशाड़्घ्रिसेवया॥* (भागवत ६-२-१७)
*बहुत सावधान होकर सुनो। मैं डिटेल नहीं कर सकूँगा। वेदव्यास कहते हैं कि भगवान् ऐसा कहते हैं कि जितने भी कर्म धर्म हैं इनसे पाप कटेगा, लेकिन पाप करने की वृत्ति नहीं जायेगी। तप से, व्रत से, तमाम साधन हैं, उनके द्वारा। आपने कोई पाप किया, एक गो हत्या किया, तो उसका प्रायश्चित लिखा है शास्त्र में, वो प्रायश्चित कर लिया तो गो हत्या का पाप मिट गया। आप झूठ बोले तो उस झूठ बोलने का यह प्रायश्चित है वह कर लिया तो झूठ बोलने के पाप से बरी हो गये लेकिन फिर झूठ बोलेंगे। क्योंकि अन्तःकरण की मशीन तो शुद्ध हुई ही नहीं। जैसे किसी डाकू को सजा होती है, मर्डर करने वाले को सजा होती है। दस साल की सजा हो गई, पाँच साल की हो गई। हाँ फिर लौट कर आया फिर डकैती डाला। क्योंकि उसका अन्त:करण तो शुद्ध नहीं हुआ तो जितने भी कर्म धर्म हैं अगर वह ठीक-ठीक नियम के अनुसार किये जायें तो पाप नष्ट होता है, लेकिन पाप करने की चित्तवृत्ति नहीं नष्ट होती। फिर पाप करेगा। यानी अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता।*
*-जगद्गुरूत्तम १००८ स्वामी श्री कृपालु महाप्रभु जी के प्रवचन का अंश।*
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