शास्त्र की ये चिकनी-चुपड़ी बातें लौजिक से समझ नहीं आतीं । तो क्या आचार्यो ने जो कहा, वह गलत है । यदि नहीं, तो नाम लेने पर भी अभी तक हमारा काम क्यों नही बना ?
भाव कुभाव अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहुँ ।
- रामचरित मानस , तुलसीदास ।।
नाम चाहे श्रद्धा से लीजिए या अश्रद्धा से । भाव हो या न हो, नाम लेते रहिए । काम बन जाएगा । जैसे - गंगाजी का नाम ले लीजिए, स्नान मत करिए । केवल नाम ले लेने से समस्त पाप चले जाएँगें ।
शंकराचार्य जी ने भी कहा है -
श्रद्धाभक्त्योरभावेयपि भगवन्नाम संकिर्तनं समस्तं पापं दुरितं नाश्यति ।
तात्पर्य यह है कि श्रद्धा हो या न हो, लेकिन भगवान का नाम लेने मात्र से जीव पाप मुक्त हो जाता है ।
किन्तु शास्त्र की ये चिकनी-चुपड़ी बातें लौजिक से समझ नहीं आतीं । तो क्या आचार्यो ने जो कहा, वह गलत है । यदि नहीं, तो नाम लेने पर भी अभी तक हमारा काम क्यों नही बना ?
इस विषय पर भागवत का एक प्रकरण बड़ा प्रसिद्ध है । सभी लोग इस बात का ढिंढोड़ा पीटतें हैं कि अजामिल ने अपने पुत्र नारायण का नाम लिया और काम बन गया ।
म्रियमाणो हरेर्णाम गृणन् पुत्रोपचारितम् ।
अजामिलोअ्प्यगाद्धामकिं पुन: श्रद्धया गृणन् ।। - भागवत
उसी प्रकार जब कोई मरता है तो लोग गीता-रामायण सुनाते हैं । तुलसी जल पिलाते हैं । भगवान की फोटो लगातें हैं । किन्तु विचारणीय बात यह है कि जिसने जीवनभर भगवान का चिन्तन नहीं किया , क्या मरते समय भगवान का चिन्तन कर पाएगा ? कभी नहीं !
मरते समय जिसका चिन्तन होगा, उसी की प्राप्ति होगी । मरते समय बड़ा कष्ट होता है ।
महापुरूष एवं साधारण मनुष्य के मरने में बड़ा अन्तर है ।
जनम मरण दुसह दु:ख होई ।
जब हमारी मृत्यु होती है और प्राण को शरीर से निकाला जाता है, तब बहुत कष्ट होता है । उससे कम कष्ट जन्म के समय होता है । भगवान एवं महापुरूष स्वेच्छा से शरीर छोड़तें हैं, वहीं हमसे ( साधारण मनुष्य से ) जबरदस्ती शरीर छुड़वाय जाते हैं ।
अत: मरते समय जैसा चिन्तन होगा , उसी की प्राप्ति होगी ।
यदि सतोगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो स्वर्ग का सुख प्राप्त होगा । रजोगुणी व्यक्ति में आसक्ति होगी तो मृत्युलोक की प्राप्ति होगी । वहीं यदि तमोगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो नरक की प्राप्ति होगी । अब यदि किसी की निर्गुणी महापुरूष और भगवान में आसक्ति हो गई, तो उसे आनंद मिलेगा , भगवान का लोक मिलेगा ।
अजामिल जो मृत्युशय्या पर बेहोश पड़ा था , तो उसने यमदूत एवं विष्णुदूत के मध्य वार्तालाप सुना, जिससे उसे तीव्र वैराग्य हो गया । स्वस्थ होने पर उसने एक वर्ष गंगाद्वार ( हरिद्वार) में तप किया , साधना की । चूकिँ वह पूर्व में तत्त्वज्ञ-वेदज्ञ-सदाचारी था, इसलिए अंत:करण शुद्ध होने में ज्यादा समय नहीं लगा ।
अत: तुलसी दास जी जो श्रद्धा या अश्रद्धा से भगवान का नाम लेने को कह रहे हैं , इससे भगवत्प्राप्ति नहीं होगी , क्योंकि फिर तुलसीदास जी स्वयं कह रहें हैं -
वारि मथे बरू होय घृत , सिकता ते वरू तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धांत अपेल ।।
फिर शंकराचार्य ने भी कहा है -
"शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते ।"
उसी प्रकार गौरांग महाप्रभु भी भगवन्नाम लेने की योग्यता बतलाते हुए कहतें हैं -
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्रूद्धया गिरा ।
पुलकैर्निचितं वपु: कदा तव नामग्रहणे भविष्यति ।। - शिक्षाष्टकम्
इस लिए भगवन्नाम लेने के लिए पूर्व तैयारी आवश्यक है । चाहे गुरू सेवा कहें या साधना ! तैयारी परम आवश्यक है ।
चूंँकि हम ढीठ हैं इसलिए महापुरुषों ने लिख दिया की श्रद्धा या अश्रद्धा से हीं सही कम से कम मनुष्य भगवन्नाम तो लेगा और कहीं एक दिन कोई महापुरूष मिल गया , और फिर श्रद्धा और विश्वास हो गया गुरू पर , फिर वे रहस्य बतलाऐंगें एवं हम उनके मार्गदर्शन में भगवान के नाम , रूप, गुण, और उनके धाम का चिंतन कर अपना अंत:करण शुद्ध करेंगें , तभी हमारा काम बनेगा , नामी मिलेंगें , और भगवान का धाम , उनकी सेवा मिलेगी । आनंद प्राप्ति होगी, सदा के लिए हम मालोमाल हो जाऐंगें ।
Comments
Post a Comment