" भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यत : । तेन पापेन युज्येत यस्यार्योऽनुरमते गत : ।।"भरत जी ने कहा था कि भक्ति मार्ग में जो बहस करता है वो भी अपराध है ।
" भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यत : ।
तेन पापेन युज्येत यस्यार्योऽनुरमते गत : ।।"
भरत जी ने कहा था कि भक्ति मार्ग में जो बहस करता है वो भी अपराध है ।
अगर कोई व्यक्ति आपसे कुछ पुछता है और आपने ठीक जबाब दे दिया और देख लिया ये जिद्दी है , नहीं मानता तो ठीक है , ठीक है । आप ठीक कहते हैं बस चुप हो जाओ, विल्कुल हाँ मेरी नॉलिज इतनी है ही नहीं आप बहुत ज्यादा जानतें हैं । ठीक है ठीक है खतम करो बात को बहस न करो आगे न बढ़ाओ । क्योंकि वह जिद्द करके आया है कि हम इसके खिलाफ बोलेंगे और तुम उससे भिड़ोगे फिर तुम्हे टेंशन होगा फिर तुमको अशांति होगी । - श्री महाराज जी ( कामना और उपासना भाग-२ पेंज ४४१)
प्रश्न श्री महाराज जी से - ईश्वर प्राप्ति में मान-अपमान को सबसे बड़ा बाधक माना जाता है, किन्तु इनसे छुटकारा पाना इतना आसान नहीं है । क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे इन दोनों के रहते हुए भी हमारा काम बन जाए ?
उत्तर श्री महाराजी द्वारा - हमारा मन मान-अपमान दोनों को पकड़े हुए है । ये दोनों ईश्वर प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण बाधक तत्त्व बनकर हमारे सामने उपस्थित हैं । इनसे छुटकारा पाना इतना आसान नहीं है , किन्तु एक उपाय अवश्य है , जिसके द्वारा इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है ।
देखिए, मान हम अपने लिए चाहते हैं और अपमान दूसरों का करते हैं । हमें इसे बस उल्टा कर देना है । जो हम दूसरों के लिए चाहते हैं , वह हम अपने लिए चाहें । यानि दूसरों के लिए हम अपमान चाहतें हैं , वह अपने लिए चाहें । और जो अपने लिए चाहते हैं वह दूसरों के लिए चाहें ।
यानि हमेंशा दूसरो के लिए सम्मान और अपने लिए अपमान चाहें , जिससे दीनता बनी रहेगी , और ऐसा होते हीं यह 'मान-अपमान ' भगवत्प्राप्ति में बाधक न होकर सहायक हो जाएगा ।
" ब्रह्मवित् श्रुति मूर्ध्नि ।"
वो ब्रह्म को प्राप्त कर लेने वाला वेद के मस्तक पर पैर रखकर चलता है उसके लिये कोई बन्धन नहीं है । इसलिये कर्मयोग की परिभाषा ये हुई कि यथा शक्ति जो भी आप कर्म करते हों कोई वेद की पक्की विधि उसमें आवश्यक नहीं है वह आप करें तो कम्पलसरी है करना पड़ता है । वैदिक के अलावा लौकिक भी बहुत कुछ करना पड़ता है । संसार में बहुत से काम करने पड़तें हैं । दिखावे के लिये । वो भी कीजिये लेकिन मन का अटैचमेंट श्री कृष्ण में हो , ये शर्त है , तो फिर कर्म का फल नही मिलेगा , उसका नाम कर्मयोग हो जायेगा - श्री महाराज जी (कामना और उपासना भाग-२ पेंज ४११ )
" क्रतुमयोऽयं पुरुष: तस्मात्क्रतुं कुर्वीत ।।"
वेद कहता है कि इस मनुष्य में संकल्प शक्ति, इतनी बड़ी शक्ति दी है भगवान् ने कि उस शक्ति के द्वारा यदि दृढ़ता लावें प्रतिज्ञा करें तो मनुष्य सब कुछ कर सकता है , सब कुछ पा सकता है । वो चाहे सही क्षेत्र में जाय , चाहे गलत क्षेत्र में जाय कहीं भी जा सकता है । तो हम एकान्त में कुछ समय नियत करके कर्मसंन्यास की साधना करें तो हमारा परम कल्याण हो सकता है । - श्री महाराज जी ( कामना और उपासना भाग-२ पेंज ४३१)
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