ध्वंस का कारण हो, प्रेम के नष्ट होने का कारण हो, फिर भी प्रेम न घटे, उसमें हलचल न होने पावे। नॉर्मेलिटी में चलता जाय आगे को, उसका नाम प्रेम।

*सुकरात एक फिलॉसफर हुआ है, उसका शिष्य था डायोज़नीज़, उसके पास सिकन्दर बादशाह गया और उसने कहा महाराज! कुछ हमारे लिए सेवा बताइये। तो डायोजनीज ने कहा, हट! धूप छोड़ दे! सेवा करेगा यह। है क्या तेरे पास फटीचर दरिद्री। तू क्या सेवा करेगा? मेरी सेवा करेगा? मेरी सेवा करना है तो दे स्प्रिचुअल हैपीनेस। है तेरे पास? नहीं वह तो नहीं है। फिर क्या सेवा करेगा तू? रसगुल्ला खिलायेगा मुझे? इसके लिये मैं बाबा जी बना हूँ? अरे! भाई कोई गरीब पैसा माँगने जाये तो उसको पैसा चाहिए। कोई बुद्धि माँगने जाय उसको ज्ञान चाहिए। हमको स्प्रिचुअल हैपीनेस चाहिए और तू दान करने का स्वांग रचकर के मेरे पास आया है। क्या देगा तू तो खुद भिखारी है। यह जो छोटी मोटी सम्पत्ति यह हीरा मोती यह मिट्टी के टुकड़े जो तू इण्डिया वगैरह से लेके आया है, यह मुझे देने आया है? (हाँ!)*

*तो प्रेम एक दिव्य वस्तु है। यह नं. दो वाला। लेकिन नं. एक वाला जो प्रेम है, वो हमको करना है। करना पड़ेगा। यहीं पर कनफ्यूजन हो जाता है संसार में बड़े-बड़े काबिलों को कि भाई यह तो ऐसा है महाराज जी कि वह तो कृपा साध्य है प्रेम। हाँ है। तो फिर कृपा कर दीजिये। लेकिन यह तुमको पता है कि वह कृपा साध्य है तो उसके लिये बर्तन तो होना चाहिए। आपको दूध चाहिए हम फ्री में देंगे दूध। लेकिन, बर्तन तो ले आओ। यह लीजिये बर्तन इसमें एक हजार छेद हैं इस बर्तन में दूध नहीं टिकेगा। बर्तन ठीक करो, अंत:करण शुद्ध करो। उसके लिये एक प्रेम करो। तो प्रेम शब्द का वैसे तो बहुत लम्बा चौड़ा अर्थ है। लेकिन एक परिभाषा समझ लीजिये आप लोग सबसे पहले-*

*सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंस कारणे।*
*यद्भावबन्धनं यूनो: सः प्रेमा परिकीर्तितः॥*
(उ.न, भ.र.सि.) 

*ध्वंस का कारण हो, प्रेम के नष्ट होने का कारण हो, फिर भी प्रेम न घटे, उसमें हलचल न होने पावे। नॉर्मेलिटी में चलता जाय आगे को, उसका नाम प्रेम।*

*देखिये, आपके संसार में जो आसक्ति होती है, इसमें क्या होता है? ध्वंस का कारण आया, प्रेम जीरो बटे सौ। अभी-अभी एक लड़का एक लड़की दोनों एक दूसरे में आसक्त थे और साथ ही जियेंगे साथ ही मरेंगे वादा करो खोपड़ा करो और लम्बी चौड़ी बातें हुई और तभी एक लड़की आई और उसने कहा हैलो और लिपट गई, उस लड़के से। तो पहली लड़की ने देखा, हाँ! एक और भी है तुम्हारे। बदमाश हमको ठगते हो? धूर्त हो, मक्कार हो, चार सौ बीस हो। खत्म हो गया प्रेम। यानी ध्वंस का कारण आया, प्रेम समाप्त। अरे! आपकी विवाहिता बीबी हो, सगी माँ हो और जरा भी स्वार्थ की गड़बड़ी हुई चार आने, प्रेम चार आने कम हो गया। आठ आने हुई, आठ आने कम हो गया, बारह आने गड़बड़ी हुई, बारह आने कम हो गया। यानी आपके स्वार्थ के बेपेंदी के लोटे के आधार पर आपका प्यार टिका है। तो ध्वंस का कारण हो और फिर भी प्रेम क्षीण न होने पाये। यह कैसे होगा?*

*गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्॥* 
(नारद भक्ति दर्शन सूत्र - ५४)

*अब आये फिर नारदजी। नारदजी कहते हैं, भाई! यह तब होगा जब तुम जिससे प्रेम करते हो उससे कोई स्वार्थ भावना तुम्हारी न हो। यानी कुछ माँगो मत। देना-देना-देना। इतना देना सीखो कि अघाओ न। सब कुछ देकर के भी यह फील करो, हाय ! मैंने कुछ भी नहीं दिया। यह भी ध्यान रखना। सब कुछ समर्पण करके अगर अहंकार आ गया मैंने सब कुछ दे दिया, हो गया बंटाधार। सब कुछ दो और सब कुछ देने का अहंकार भी दे दो। यह सबसे खतरनाक शत्रु है अहंकार। हम लोग जरा सा दान करते हैं किसी संस्था में, किसी गरीब को, मैटीरियल जगत् में, तो चाहते हैं मेरा नाम अखबार में निकले, मेरा नाम यहाँ दीवाल पर लगा दिया जाय और इतना भूल जाते हैं कि दान तो गुप्त जो होता है, उसको दान कहते हैं। और कोई जाने न। क्योंकि कोई जानेगा और प्रशंसा कर देगा तो अहंकार हो जायेगा। सब चौपट हो गया। जैसे महापुरुष और भगवान् चोरी चोरी सेवा करते हैं शरणागत की, बिना बताये और अगर वह पूछेगा तो भी कह देंगे नहीं-नहीं मैंने तो कुछ नहीं किया तुम्हारे लिये। ऐसे ही, हमको करना है। यानी किसी प्रकार की कामना रख कर के ईश्वरीय जगत् में कदम नहीं रखना। देना देना सीखो। जो कुछ है बस। कहीं से उधार नहीं लाना है। मेरा मन तो गन्दा है क्या दूँ भगवान् को? अरे! तो वही तो शुद्ध करेंगे। कोई गन्दा कपड़ा यह कहे, ऐ निर्मल पानी ! मैं तेरे पास नहीं आऊँगा क्योंकि तू निर्मल है गन्दा हो जायेगा। ये ठीक है निर्मल पानी गन्दे कपड़े के सम्पर्क से गन्दा हो जायेगा। यह सही है लेकिन भगवान् और महापुरुष गंदे को शुद्ध कर देंगे और स्वयं भी शुद्ध रहेंगे, इतना अन्तर है। जैसे गंगाजी में कोई गन्दा नाला बह के जाता है वह गंगा जी बन जायेगा। गंगा जी गन्दा नाला नहीं बन जायेंगी। अग्नि के कुण्ड में जूता-चप्पल, गन्दगी कुछ भी डाल दो, वह अग्नि बन जायेगा। अग्नि जूता चप्पल नहीं बन जायेगा। अग्नि अपनी पर्सनेलिटी में रहेगा। इसलिये यह मत सोचो कि हमारे पास तो जो है सब डर्टी है। भगवान को कैसे दें? अरे वह लेने को तैयार हैं-*

*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।* 
*तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।*
(गीता ९-२६, भाग. १०-८१-४) 

*अरे, मैं पत्ता भी खा लूँगा, जल भी खा लूँगा। प्यार से दो। तुम जो दोगे, मैं ले लूँगा। इतनी कृपाओं के कानून बना रखे हैं भगवान् ने। हम उनको समझते नहीं, उनकी इंपोर्टेंस नहीं रियेलाइज करते। इसलिये लापरवाह हैं। स्वार्थ युक्त जो संसार में कृपा करने का दावा करते हैं, इन पर तो विश्वास है। देखो हमारी बीबी हमारी बीमारी में रात भर बैठी रही, कितना प्यार करती है हमसे। अरे, बेवकूफ! तुझ से प्यार नहीं करती, वह तो इसलिये बैठी रही कि तुम मर जाओगे तो उसका क्या होगा, इस स्वार्थ के लिये। तू भोला है, नहीं समझता। वह अपने मतलब के लिये सब हिसाब बैठा रही है। तो संसार का जितना भी प्यार है उसमें लेना, लेना, लेना। यही सीखा हमने अनादि काल से अब तक। अब हम को नया पाठ पढ़ना है- देना, देना, देना। बिल्कुल उल्टा है। विपरीत दिशा है ईश्वरीय जगत्। यह अन्धकार है, वह प्रकाश है। इतना बड़ा अन्तर है। माँगते, माँगते, माँगते अनन्त जन्म बीत गये। संसारियों से माँगा, देवी-देवताओं से माँगा और भगवान् से माँगा और भिखमंगे बनते गये। छोड़ो माँगना, अब देना सीखो। तब भगवान के कान में जूँ रेंगेगी, अरे! यह तो माँगता ही नहीं कुछ।*

*जाहि न चाहिय कबहुँ कछु तुम सन सहज सनेह।* 

*भगवान को सोचना पड़ता है, अब तो मामला सीरियस है। यह कुछ नहीं लेना चाहता, लेकिन फिर भी यहाँ कह रहा है- श्याम मोहिं देहु प्रेम निष्काम। माँग तो रहा है। हाँ माँग तो रहा है। क्यों माँग रहा है, यह फिर बतायेंगे।*

*बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय।*

*-जगद्गुरूत्तम १००८ स्वामी श्री कृपालु महाप्रभु जी के प्रवचन का अंश।*

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