प्रश्न - धर्म , अर्थ, काम और मौक्ष को कैतव क्यों कहा गया है ?

प्रश्न - धर्म , अर्थ, काम और मौक्ष को कैतव क्यों कहा गया है ?
उत्तर ( श्री महाराज जी द्वारा ) - धर्म, अर्थ, काम ऐ बंधन कारक है। यानि यह पुनर्पि जननम पुनर्पि मरनम, यानी आवागमन के चक्र में बांधने वाला कारक है इसलिए इस त्रिकर्म को कैतव कहा गया है।

और मौक्ष अपवर्ग है, यह तो बड़ा खतरनाक है। इसे गौरांग महाप्रभु ने पिशाचनी की संज्ञा दिए हैं।

क्यूंँकि मौक्ष प्राप्त होने के बाद ज्ञानि खुद ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। आनंदस्वरूप हो जाता है। फिर मैं और मेरा का संभावना खत्म हो जाता हैं।
आनंद पा कर आनंदित होना‌ और आनंद स्वरूप बन जाना दोनों में बड़ा भारी अंतर है।
अब शुभकर्म किया तो स्वर्ग मिलेगा, स्वर्ग भी माया के अधिन है। मनुष्य हीं शुभकर्म करके, ‌ यानी जीव ही कर्म धर्म करके देव लोक में इंद्र वरूण कुबेर बनतें हैं। और फिर जब उनके सारे पुण्य क्षीण हो जाते हैं स्वर्ग के भोग द्वारा तो फिर धरती पर उनको मनुष्य का शरीर भी नहीं मिलता। देवता एक भोग योनि हैं अन्य जीव की तरह, देवता कर्म नहीं कर सकते क्यूंकि शरीर नहीं है मनुष्य के तरह उनके पास। और जब उनके सारे पुण्य समाप्त हो जातें हैं तो धरती पर कीड़ा मकोड़ा का यौनि प्राप्त करते हैं।

इसलिए ये त्रिवर्ग धर्म, अर्थ काम के द्वारा मनुष्य ही स्वर्ग या पृथ्वी के राजा तक बनतें हैं।

इसलिए इसे कैतव कहा गया है, कैतव यानि दोषपूर्ण।

अब आपको जानकर आश्चर्य होगा की उसमें भी मौक्ष को महा कैतव कहा गया है ! वो इसलिए कि एक तो अरबों में कोई एक ज्ञानी, अपनी साधना के वल पर, ध्यान साधना के द्वारा, अष्ठांग योग द्वारा, षठसंपत्ति रूपी पुरूषार्थ द्वारा, अपने अंत:करण ( मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के अशुद्धि को जला कर भष्म कर देते हैं। ये पंच कोष ( अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष ) को भष्म कर देते हैं। और अंत में उनके शरीर में केवल सत्ता रह जाती है।

सत्ता का मतलव‌ है आत्मा, यानि अरबों में कोई एक ज्ञानी जब मौक्ष की कामना लेकर सगुण साकार भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करके माया से परे हो जाता है तो फिर निराकार ब्रह्म में उनका लय हो जाता है। और इस प्रकार ज्ञानि आवागमन से मूक्त हो जातें हैं एवं स्वयं आनंदस्वरूप हो जाते है। जैसे मीठे जल की नदियां समुद्र में मिल कर अपना स्वरूप खो कर समुद्र रूपी खाड़ा जल हो जाता है। ठीक उसी प्रकार ज्ञानी जब स्वयं आनंदरूप हो जातें हैं तो आनंद महसूस उन्हे कैसे हो सकता है भला ?

एक उदाहरण - एक रसगुल्ला है, यह रस मय है। अब इस रसगुल्ले को हम खाते हैं तो हमें इस रसगुल्ले के रस के आनंद का अहसास होता है। लेकिन अगर हम खुद हीं रसगुल्ला में समाहित होकर खुद रसगुल्ला बन जाएं तो फिर क्या हम रसगुल्ले के आनंद को कभी महसुस कर पाएंगें ? इस प्रकार मौक्ष प्राप्त करने के बाद ज्ञानि का संसार भी गया, और खुदआनंदस्वरूप हो गए जिससे आनंद का एहसास भी गया हाथ से। यानी मानुष तन भी कभी नहीं मिलेगा ज्ञानि को, कि फिर से भक्ति करके सगुण साकार भगवान श्रीकृष्ण के परमानंद को पाने के काबिल हो, उनके प्रेम को पाने सके। इसप्रकार मोक्ष पाने के बाद ज्ञानि जब खुद ही रसगुल्ला बन गया तो ना कभी संसार मिलेगा फिर से और ना परमानंद की अनुभूति होगी उनको। - श्री महाराज जी ।

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