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Showing posts from January, 2024

बाहर दुख है भीतर आनंद है । बाहर प्रदर्शन है भीतर दर्शन है ।बाहर संसार है भीतर भगवान हैं ।बाहर भटकाव है भीतर ठहराव है ।बाहर हराम है भीतर आराम है सुख है ।

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गाईये गुण गोपाल निरंतर :- श्री महाराज जी । तो गोपाल का गुण किसको गाना है ! तो मन को गाना है । मन कब गायगा गुण , तो जब मन अंतर्मुखी होकर , एकाग्र होकर श्री महराज जी के बतलाई साधना करेगा तब । एकांत साधना इतना आवश्यक क्यों है ? क्योंकि बाहर बहिर्मुखता है भीतर अंतर्मुखता है । बाहर अशांति है बेचैनी है , भीतर शांती है । बाहर श्रूति ज्ञान है , भीतर आत्मक तथा परमात्मक तत्वज्ञान है प्रैक्टिकल नौलेज है ।  बाहर प्रतिभूत ज्ञान है, भीतर अंतर्भुत ज्ञान है ।  बाहर अज्ञान है भीतर ज्ञान है । बाहर माया का अंधकार है,भीतर मायाधीश का प्रकाश है बाहर दुख है भीतर आनंद है ।  बाहर प्रदर्शन है भीतर दर्शन है । बाहर संसार है भीतर भगवान हैं । बाहर भटकाव है भीतर ठहराव है । बाहर हराम है भीतर आराम है सुख है । बाहर मृत्यु है , भीतर जीवन है । बाहर प्यास है भीतर तृप्ति है । बाहर फुहरता है , भीतर सु़ंदरता है । बाहर परिदृश्य है , भीतर अंतर्दृश्य है । बाहर अवरोध है , भीतर निरंतरता है । बाहर विरोध है अंदर सहयोग है ।  बाहर अन्यता है भीतर अनन्यता है । बाहर अनित्य है भीतर नित्य है । बाहर लोक रंजन है , भीतर ...

अनन्यता के बारे में श्री महाराज जी का दिया सिद्धांत ज्ञान।

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मेन पॉइन्ट ध्यान में रखो कि अंतःकरण गन्दा है, इसको शुद्ध करने के लिये शुद्ध में डुबोना है। तो इतनी चीज शुद्ध हैं - भगवान, भगवान को पा लेने वाला सन्त और भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम। इतने में कहीं मन रहे सब ठीक है, वो अनन्य है। लेकिन इसके नीचे जो चार हैं - सात्विक, राजस, तामस और मायिक सामान - इनमें अटैचमेन्ट कहीं हुआ तो अनन्यता भंग हो गई। जैसे आप संसार में अपनी माँ से प्यार करते हैं, अपने बाप से प्यार करते हैं, अपनी बीबी से प्यार करते हैं, अपने पति से करते हैं, अपने बेटा, भाई, बहन, नाती, पोते से प्यार करते हैं, तो कोई बुरा नहीं मानता। किसी माँ ने कहा कि तुम अपनी स्त्री से क्यों प्यार करते हो जी, खाली हमसे किया करो। अरे हमारे चार बेटे हैं, तो किसी बेटे ने कहा कि और बेटों से प्यार न करना पापा, खाली हम ही से करना। तो जैसे संसार में अपने ब्लड रिलेशन में प्यार करना मना नहीं। ऐसे ही भगवान कहते हैं कि हमारे परिवार में खूब प्यार करो, हमारे सन्त से, हमारे नाम से, हमारे गुण से, हमारी लीला से, हमारे धाम से। तो हमारा ही प्यार कहलायेगा वो। क्योंकि इनमें भेद नहीं होता। भगवान का नाम, रूप, लीला, ग...

कृपालु त्रयोदशी। तेरह दोहे हैं कुल। उसी में सब शास्त्र वेद का सिद्धांत भर दिया है।

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हमसे पहले हमारे देश में पूरे कलयुग में चार जगद्गुरु हुए हैं - आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी थे। ये सन्यासी थे और निर्गुण निराकार ब्रह्म के प्रचार के लिए, श्रीकृष्ण ने उनको भेजा था और कहा था - स्वागमैंः कल्पितैस्त्वं च जनान्मव्दिमुखान्करु। मां च गोपय येन स्यात्सृष्टिरेषोत्तरोत्तरा।।  (पद्मपुराण, उत्तरखंड७१.१०७ ) तुम जाओ और वेदों का प्रचार करो। बौद्ध धर्म ने वेदों का तिरस्कार किया। तो हमारे भारत के लोग, दुनिया के लोग, वेद के निन्दक हो गए हैं। तो वेद का प्रचार करो और सगुण साकार के विपरीत बोलो यानी मेरे खिलाफ बोलो 'मव्दिमुखान्कुरु।' लेकिन स्वयं भक्ति करना मेरी। भगवान् के कार्यों को कोई नहीं समझ सकता। अति विचित्र भगवंत गति को जग जान जानइ जोग।। उसके बाद और जगद्गुरु जो हुए उन सबने राधाकृष्ण की या लक्ष्मी नारायण की भक्ति का प्रचार किया। लेकिन उन सब लोगों ने जो ग्रंथ लिखे सब संस्कृत भाषा में लिखे। वेदों का भाष्य किया, गीता का भाष्य किया,उपनिषदों का भाष्य किया, कुछ ने भागवत का भी भाष्य किया। लेकिन कुछ जगद्गुरुओं ने तो इतनी कठिन संस्कृत में भाष्य किया है, उनको तो ये मामूली संस्कृत भाषा का प...

कैसे भगवान का चिंतन मनन भजन किर्तन करने से तथा अच्छे कर्म ( इस जन्म के क्रियामाण कर्म ) करने से अनंत जन्मों के संचित कर्मो से इस जन्म में मिला हुआ खड़ाब प्रारब्ध कम हो जाते हैं । इस कहानी से सबकुछ स्पष्ट हो जाएगा आप सबको । 🙏❤️🙏

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कैसे भगवान का चिंतन मनन भजन किर्तन करने से तथा अच्छे कर्म ( इस जन्म के क्रियामाण कर्म ) करने से अनंत जन्मों के संचित कर्मो से इस जन्म में मिला हुआ खड़ाब प्रारब्ध कम हो जाते हैं । इस कहानी से सबकुछ स्पष्ट हो जाएगा आप सबको । 🙏❤️🙏  यह कहानी एक किसान की है, बिहार में लखीसराय जिले में एक गांव था छोटा सा, उस गांव में एक ऐसा किसान रहता था जो हमेशा भगवान में मन लगाकर अपना कर्म करता था । अंग्रेज का जमाना था अट्ठारह सौ साठ ईसवी की बात है , तो उस गांव में एक किसान था, जो दिन रात मन ही मन राधा कृष्ण , राधा कृष्ण का जाप किया करता था और अपना काम करते रहते था ।   वो सोते जागते उठते बैठते हर एक काम करते हुए भगवान का नाम लेता था , पत्नी घर संभालती थी और वो खुद बैल को लेकर के खेतों में हल जोतता था , फसल बो कर उससे जो भी कुछ उपजा होता था , उससे अपना जीविका चलाता था , उसके पास दो बैल ,एक गाय, एक भैंस था , एक दिन उसके पास एक अट्ठारह उन्नीस साल का एक युवक आया , युवा के चेहरे पर तेज था लेकिन गरीब लग रहा था भेष भूषा से , वो उस किसान के दरवाजे पर आकर , किसान से आग्रह किया कि मुझे नौकरी चाहिए...

प्र: १७- महाराज जी जैसे बिजनिस मैन है कोई सबेरे से रात तक काम करता है, तो साधना हो नही पाती तो धन से सेवा कर लेता है | क्या इससे अध्यात्मिक लाभ मिलेगा ?

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प्र: १७- महाराज जी जैसे बिजनिस मैन है कोई सबेरे से रात तक काम करता है, तो साधना हो नही पाती तो धन से सेवा कर लेता है | क्या इससे अध्यात्मिक लाभ मिलेगा ?   उत्तर ( महाराज जी द्वारा) :- हाँ हाँ , धन से करे लेकिन उस समय भी ये लक्ष्य रखे , सदा ध्यान यही रहे की हम जो कुछ धन कमा रहे हैं परमार्थ के लिए | भगवत् निमित्त सेवा के लिये कर रहे हैं ये चिन्तन बनाता रहे | धन कमाना दो प्रकार से होता है - एक तो अपने लिये , एक परमार्थ के लिये | नम्बर दो परमार्थ के लिये भी अगर कोई करे , तो केवल धन ही का चिन्तन न करे, किसके लिये हम धन कमा रहें है उसका चिन्तन भी साथ चले | और धन कमाने में अगर अधिक धन मिले , तो उसको अपना नही माने ; अगर हानि हो जाय , नुकसान हो जाय तो फिलिंग न हो , वो हमारे श्यामसुन्दर को ऐसे ही मंजूर होगा | हमारी परीक्षा ले रहे हैं , ठीक है-ठीक है , हम अपना काम करेंगें | ज्यादा दो चाहे कम दो , हम क्या करें | हमारी ड्यूटी परिश्रम की पूरी वही रहेगी | कम दोगे तो हम कम सेवा कर देगें , अधिक दोगे तो अधिक कर देगें |  " एक नाव में तमाम यात्री जा रहे थे नदी पार कर रहे थे | एक बाबाजी भी बैठे थे...

पर उपदेश कुशल बहुतेरे!

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पर उपदेश कुशल बहुतेरे! 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹 जब तक माया नहीं जाएगी तब तक जीव भगवान को नहीं जान सकता , उन्हें पाना तो बहुत दुर कि बात है, बड़े बड़े सरस्वती बृहस्पति तथा स्वर्ग के देवी देवता भी माया के अधीन है, संसार के ज्ञानियो की कौन कहे, और माया का गुण है अहंकार, जब तक माया नहीं जाएगी तब तक अहंकार जीव पर हावी रहेगा , वो स्वयं को बहुत बड़ा बुद्धिमान मानेगा, समर्थ मानेगा , और यही सबसे बड़ी मुर्खता का पहचान है, स्वयं को सबसे अधिक ज्ञानी मानना सबसे बड़ी मुर्खता है । दीनता ,विनम्रता, सहिष्णुता स्वयं को छोटा मानना और दुसरे को सम्मान देना भगवान की ओर चलने वाले का प्रथम गुण है ।  शंकराचार्य के पास एक व्यक्ति आया, मैं ओरिजनल जगद्गुरु शंकाराचार्य की बात कर रहा हुं , वो आजकल के गद्दीधारी किसी शंकराचार्य की नहीं, तो उसने शंकराचार्य जी से कहा मैने सभी शास्त्रों का अध्ययन किया है , ज्ञान प्राप्त किया है , तप व्रत उपवास, दान , यज्ञ, योग जप आदि किया है , मुझे अपना शिष्य बना लीजिए , मुझे दीक्षा दिजिए । बैधी भक्ति के लिए गुरू अपने शिष्य को दीक्षा देते हैं, और दीक्षा के लिए गुरू सबसे पहले शिष्य की प...

*कहीं भी कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो बदनाम ना हो। सबसे अधिक बदनाम भगवान् हैं। उसके बाद संत लोग हैं। उसके बाद गृहस्थी लोग हैं। क्यों?*

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*कहीं भी कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो बदनाम ना हो। सबसे अधिक बदनाम भगवान् हैं। उसके बाद संत लोग हैं। उसके बाद गृहस्थी लोग हैं। क्यों?* *भगवान् और संत इसलिए बदनाम है कि उनका एरिया अलग है। और हम लोगों का एरिया अलग है, तो हम उनकी बुराई करते हैं माया वाले। अरे देखो वो महात्मा बीवी छोड़ दिया, उसने बच्चा छोड़ दिया, बाप छोड़ दिया, मां छोड़ दिया, भगोड़ा है, कायर है और जंगल में जा कर राधे-राधे कर रहा है। हम लोग बुराई करते हैं संतों की। और भगवान् की तो दिन-रात बुराई होती है कि संसार बना दिया, माया लगा दिया, हमको मार दिया। माया और ब्रह्म में विरोध है इसलिए माया के एरिया वाले ब्रह्म का विरोध करेंगे ही, बदनाम करेंगे ही। और मेजोरिटी है इतनी बड़ी माया वालों की। और संसार संसार की बुराई करता है उसका रीजन यह है कि हर आदमी अपने को अच्छा समझता है। समझता है का मतलब कहलवाने का प्रयत्न करता है। लोग हमको अच्छा मानें तो कैसे अच्छा मानेंगे? जब दूसरे की बुराई करेंगे। तभी लोग हमको अच्छा मानेंगे। उसमें यह खराबी है, उसमें यह खराबी है। हर एक को बदनाम करने को एक-दूसरे लोग तैयार रहते हैं। स्त्री-पति की शादी होती है, ...

पंचम मूल जगद्गुरु उत्तमई 1008 स्वामी श्री कृपालु जी महाराज।

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काशी विद्वत परिषत द्वारा जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगद्गुरु' तथा उपाधियों की व्याख्या: 'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिये गये प्रवचन एवं संकीर्तनों में उनका यह स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को भी जनसाधारण के लिये बोधगम्य बनाना उनकी प्रवचन शैली की विशेषता है। गूढ़ से गूढ़ शास्त्रीय सिद्धान्तों को इतनी मनमोहक सरल शैली में प्रस्तुत करते हैं कि मन्द बुद्धि वाले भी निरंतर श्रवण करने से ऐसे तत्वज्ञ बन जाते हैं जो बड़े-बड़े विद्वान तार्किकों को भी तर्कहीन कर देते हैं। सरलता और सरसता के साथ साथ दैनिक जीवन के क्रियात्मक अनुभवों का मिश्रण उनके प्रवचन की बहुत बड़ी विशेषता है। बोलचाल की भाषा में ही; जिसमें कुछ अंग्रेजी के शब्द भी आ जाते हैं, वह कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को जीवों के मस्तिष्क में भर देते हैं। श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष ही ऐसा करने में सक्षम हो सकता है। जब प्रवचनों में प्रमाण स्वरूप शास्त्रों वेदों के श्लोक बोलते हैं तो ऐस...

कपुयाचरण और दुसरा अध्यात्मिक तुष्टी । भक्ति में बाधक हैं ये सारे दोष

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श्री महाराज जी - संक्षेप में सुन लो , डिटेल नहीं करूंगा । दो प्रकार दोष होता है सबमें , एक होता है कपुयाचरण और दुसरा अध्यात्मिक तुष्टी ।  भक्ति में बाधक हैं ये सारे दोष - कपुयाचरण तीन प्रकार का होता है ।  एक होता जिह्म भाव । :- ह्रदय में कपट हो और राधे राधे बोलते हैं , दुसरे में दोष देखने की बीमारी है , वो ऐसा है , वो ऐसा है , अरे महापुरूषों को भी नहीं छोड़ते , लोग अपनी उसी दोष बुद्धि से भगवान और महापुरूषों को भी देखतें हैं , विश्वास नहीं भगवान पर कि भगवान हमारे अंदर बैठे हैं ,‌ वो हमारे ह्रदय में वहीं पर वैठे हैं जहां पर हम है, तो यह जिह्म भाव हैं , केवल मुख से राधे-राधे , राम-राम, हरे राम हरे राम बोलतें हैं , वो माला लेकर जपतें जातें हैं, पर मन में तमाम संसार भरा परा है, दुसरे में दोष देखते रहतें हैं । दुसरा है अनिर्त भाव :- अपने दोष को छुपाना , और‌ खुद को अच्छा कहलवाने का शौख रखना । खुद को भक्त दिखाने का नाटक करना , जोर-जोर से रोने का नाटक करना । । तो इसको अनिर्त भाव कहतें हैं , इसका कोई फल नहीं उल्टे अहंकार आया और नुकसान हो गया । और एक है माया भाव :- लोक रंजन की ...

प्रश्न: क्या गुरु - भक्ति से भगवत्प्राप्ति हो जायेगी ?

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प्रश्न: क्या गुरु - भक्ति से भगवत्प्राप्ति हो जायेगी ? उत्तर : गुरु की भक्ति से भगवत्प्राप्ति अपने आप हो जायेगी लेकिन दोनों को साथ रखना चाहिए। क्यों? इसलिये कि केवल गुरु की भक्ति करने में हमारी निष्ठा सदा दृढ़ नहीं रह सकती। डाँवाडोल अवस्था होगी क्योंकि वो प्रत्यक्ष है। भगवान् तो प्रत्यक्ष है नहीं। जब भगवान् प्रत्यक्ष होता है तो उसमें भी दोष बुद्धि होती है हमारी। ऐसे ही गुरु में दोष बुद्धि होगी। तो दोनों की भक्ति जब साथ-साथ करोगे तो मन शुद्ध होता जायेगा और भगवान् की लीलाओं में भी मन जल्दी लगेगा। श्रीकृष्ण की बाल लीलायें हैं, अनेक प्रकार की लीलायें हैं जिसमें जिसकी जैसी रुचि हो अपनी-अपनी रुचि के अनुसार मन का प्रेम होना चाहिये। प्रश्न : गुरु जीव पर अहेतुकी कृपा क्यों करता है? उत्तर : गुरु जीव पर अहेतुकी कृपा करता है जिससे जीव भगवत्प्राप्ति अर्थात् आनन्द प्राप्ति कर सके, क्योंकि प्रत्येक जीव आनन्द चाहता है और वह उसे संसार में ढूँढ़ रहा है, जहाँ आनन्द नहीं है। अतः गुरु ही अहेतुकी कृपा कर उसे सही रास्ता ही नहीं बताता बल्कि उसे उस गन्तव्य स्थान पर पहुँचा भी देता है  प्रश्न: गुरु जीव पर कृप...

प्रश्न : सांसारिक विद्या भी जब किसी गुरु के बिना नहीं आती है। फिर आध्यात्मिक विद्या कैसे आयेगी? शास्त्र कहता हैं कि वो गुरु से ही शिष्य को मिलती है। 'आचार्यवान् पुरुषो हि वेद' फिर आप कैसे कहते हैं कि आपका कोई गुरु नहीं है ?

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प्रश्न : सांसारिक विद्या भी जब किसी गुरु के बिना नहीं आती है। फिर आध्यात्मिक विद्या कैसे आयेगी? शास्त्र कहता हैं कि वो गुरु से ही शिष्य को मिलती है। 'आचार्यवान् पुरुषो हि वेद' फिर आप कैसे कहते हैं कि आपका कोई गुरु नहीं है ? उत्तर : १६ वर्ष के पश्चात् की हमारी सब बातें लोकवत् नहीं हैं, संसारी नियम-कानून के अनुसार नहीं हैं, जबकि लोग उसी के अनुसार समझना चाहते हैं। ऐसा कोई विषय नहीं है, चाहे वह संसारी हो या आध्यात्मिक, जिसको मैंने ए बी सी डी से शुरू किया हो। भारत का कोई व्यक्ति बता दे कि हमने उससे कुछ सीखा हो, पढ़ा हो। एक अक्षर भी पढ़ा या सीखा हो, तब तो कहा जा सकता है कि बुद्धि तीव्र थी, इसलिए जल्दी सीख लिया। लेकिन ऐसा कोई निमित्त ही नहीं दिखायी देता। किसी ने हमें किताब लेकर पढ़ते भी नहीं देखा। सब यही समझते हैं कि संसार में कोई निमित्त होना ही चाहिए। रामकृष्ण आदि अवतारों तथा आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी कोई निमित्त बनाया जबकि हमने कोई निमित्त ही नहीं बनाया तो क्या बतावें। संसार वालों में इस बात को समझने की शक्ति नहीं है। १६ वर्ष की उम्र में किसी व्यक्ति को एक भाषा का भी पूर्ण ज्ञा...

प्रश्न: अनन्त सन्त हमें मिले लेकिन हमने उनकी शरणागति क्यों स्वीकार नहीं की ?

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प्रश्न: अनन्त सन्त हमें मिले लेकिन हमने उनकी शरणागति क्यों स्वीकार नहीं की ? उत्तर: अहंकार के कारण क्या अहंकार ? ज्ञान का अहंकार क्या मतलब? हमने अपनी बुद्धि से महापुरुषों को तौलने की अनधिकार चेष्टा की योगेश्वराणां गतिमन्धबुद्धिः कथं विचक्षीत गृहानुबन्धः । (भाग ५-१०-२०) जब योगीश्वरों की गति को ही कोई विश्व में नहीं समझ सकता तो योगीश्वरों से भी आगे हैं महापुरुष, उनकी गति को कौन समझ सकेगा और हमने समझने की चेष्टा की जरा देखें तो कैसा महात्मा है? हाँ, देखा। ऐसा मुँह है, ऐसी नाक है, ऐसी आँख है, इतना लम्बा है, इतना चौड़ा है, यह उमर है, यह रंग है, यह रूप है। यह क्या देख रहे हो ? अरे देख रहा हूँ कैसा महात्मा है। यह क्या देख रहे हो? महापुरुष यह शरीर नहीं है। महापुरुष तो इसके भीतर वाली आत्मा है और वहाँ तुम जा नहीं सकते। एक बार जनक की सभा में अष्टावक्र गये। वे आठ जगह से टेढ़े थे। सोचिये, आठ जगह से टेढ़ा आदमी आप लोगों ने कहीं नहीं देखा होगा। दो जगह, तीन जगह से टेढ़ा भले ही देख लिया हो। यह छः फुट के शरीर को आठ जगह से टेढ़ा करो तो नौ-नौ इंच पर टेढ़ापन आयेगा।  सोचो, किस तरह का शरीर होगा। तो जनक सभ...

प्रश्न: महाराज जी क्या आप दीक्षा देते हैं?

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प्रश्न: महाराज जी क्या आप दीक्षा देते हैं?  श्री महाराज जी द्वारा उत्तर :- देते हैं। अधिकारी को देते हैं। दीक्षा माने समझते हो ? दीक्षा माने दिव्य प्रेम। वो दिव्य प्रेम पाने के लिए दिव्य बर्तन चाहिए, यानि दिव्य अंतःकरण। ये अंतःकरण जो है, ये मायिक है, प्राकृत है, ये दिव्य प्रेम को सहन नहीं कर सकता। किसी भिखारी की एक करोड़ की लाटरी खुल जाती है तो हार्टफेल हो जाता है उसका। तो अनन्त आनन्दयुक्त जो प्रेम है, वह प्राकृत अंतःकरण में नहीं समा सकता। तो पहले अंतःकरण की शुद्धि करनी होगी। ये बाबा लोग आजकल जो ठगते हैं लोगों को कान फूँक फूँक करके, ये सब वेद विरुद्ध है। ये पाप कर रहे हैं, उनको सबको नरक मिलेगा, हजारों-लाखों वर्ष का। और ये जो कान फुंकाते हैं, इन मूर्खों को इतना समझ नहीं है कि गुरु जी से पूछें कि आप क्या दे रहे हैं? मंत्र! ये मंत्र का क्या मतलब है ? हरेक मंत्र का यह अर्थ है कि हे भगवान् ! आपको नमस्कार है। वो अगर हिन्दी में कहें, उर्दू में कहें, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी में कहें, तो भगवान् खुश नहीं होंगे? और फिर अगर तुम कहते हो हमारे मंत्र में पावर है, तो तुमने जब कान में दिया तो उस पा...

अनादिकाल से विश्व में सनातन रूप से दो बाद चल रहे हैं, एक का नाम अध्यात्मवाद, एक का नाम भौतिकवाद । वास्तव में अध्यात्म और भौतिकवाद इन दोनों का अन्योन्य परमावश्यक सम्बन्ध है जैसे हमारी आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है।

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श्री महाराज जी के श्री मुख से :-  🙏❤️🙏❤️🙏❤️🙏❤️🙏❤️🙏❤️🙏 अनादिकाल से विश्व में सनातन रूप से दो बाद चल रहे हैं, एक का नाम अध्यात्मवाद, एक का नाम भौतिकवाद । वास्तव में अध्यात्म और भौतिकवाद इन दोनों का अन्योन्य परमावश्यक सम्बन्ध है जैसे हमारी आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है। बिना शरीर के आत्मा नहीं रह सकती और बिना आत्मा के शरीर नहीं रह सकता। शरीर के उत्थान के लिए भौतिकवाद है। आत्मा के उत्थान के लिए अध्यात्मवाद है। कौन संन्यासी आज तक पैदा हुआ है जो भिक्षा माँग कर पेट न पालता हो ? संसार मिथ्या है तो क्यों भिक्षा माँग कर पेट पालते हो ? क्यों जल पीते हो हमारी सृष्टि का ? तो भौतिकवाद के बिना एक क्षण भी कोई जीवित नहीं रह सकता। केवल हम अपने श्वास को ये हवा न दें, देखो दो मिनट में संसार समाप्त हो जाये।  जिस दिन जीवात्मा शरीर धारण करती है उसी दिन से भौतिकवाद आवश्यक होता है। अर्थात् माँ के पेट में जब आत्मा प्रवेश करती है सातवें महीने में तो उस शरीर का सम्बन्ध आत्मा से पूर्ण रूप से हो जाता है। यानी सब विटामिन, प्रोटीन जो कुछ माँ के पास है वह बच्चे को मिलने लगता है और फिर बाहर आने के बाद भी ...

प्रश्न : पंचकोष क्या है ?

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श्री महाराज जी से एक साधक का - प्रश्न : पंचकोष क्या है ? उत्तर: कोष मन की अवस्थाओं का नाम है। वे पाँच हैं- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय अन्नमय तथा प्राणमय कोष के आधीन जब मन रहता है तो वह अत्यन्त निम्न स्थिति है। इसको काटना बहुत मुश्किल है। गुरु को भी इसको काटने में बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। अन्नमय कोष जब कट जाता है तब अन्न की विभिन्नता का मन पर कोई असर नहीं होता। प्राणमय कोष में पंच प्राण होते हैं जिनमें मन प्रमाद आदि अनेक दोष उत्पन्न होकर मन को साधना से विरत कर देते हैं। इसके कट जाने पर वह विरत न कर पायेंगे। योगीजन अनेक प्रयत्नों से इनको वश में कर पाते हैं लेकिन प्रेम से अपने आप ही दोनों कोष कट जाते हैं। मनोमय कोष से साधक को अनेक अनुभव होने लगते हैं और साधक को आनन्द आने लगता है। इसका कट जाना तब जानना चाहिये कि स्त्री की गोद में बैठे हैं और उसके अनेक प्रयत्न करने पर भी मन में विकार नहीं उपन्न हो रहा है। विज्ञानमय कोष अहंकार का कोष है। अपनी स्थिति का सूक्ष्म अहंकार साधक को आगे नहीं बढ़ने देता है। आनन्दमय कोष माया की अन्तिम सीढ़ी है। इसमें आने पर संसार की कोई बाधा असर न...

प्रश्न: एक साधक ने प्रश्न किया है कि भगवान् और महापुरुष के चरण धोकर के जो चरणामृत लिया जाता है, उसका क्या महत्व है ?

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प्रश्न: एक साधक ने प्रश्न किया है कि भगवान् और महापुरुष के चरण धोकर के जो चरणामृत लिया जाता है, उसका क्या महत्व है ? श्री महाराज जी द्वारा उत्तर : शास्त्रों में कहा गया है कि शुद्ध पर्सनैलिटी माने भगवान् और महापुरुष, इनका शरीर अलौकिक होता है, देखने में प्राकृत लगता है। महापुरुष का सम्बन्ध भगवान् से रहता है और इनकी इन्द्रियाँ, इनका मन, इनकी बुद्धि सब भगवान् से संबद्ध होती हैं इसलिये इनका शरीर दिव्य होता है, इनके कर्म भी दिव्य होते हैं। भले ही हम देख रहे हैं अर्जुन मर्डर कर रहा है, हनुमान जी लंका जला रहे हैं। ये क्रिया हम देखते हैं उल्टी-सीधी लेकिन उनका शरीर सदा अलौकिक और उनके कर्म भी अलौकिक,केवल जन्म प्राकृत हैं। किन्तु जो अवतारी महापुरुष होते हैं उनका जन्म भी दिव्य होता है। अवतारी महापुरुषों का जन्म कर्म दोनों दिव्य होता है जैसे भगवान् का ऐसे ही - जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । (गीता ४-९) ऐसे ही। और जो मायाबद्ध अवस्था में संसार में आते और यहाँ आकर भगवत्प्राप्ति करते हैं तो जिस क्षण से उन्होंने भगवत्प्राप्ति की उस क्षण से उनका शरीर दिव्य हुआ और उनके कर्म भी दिव्य होते हैं...