'अबुद्ध' प्रारब्ध के अधीन, 'बुद्ध' नहीं ।

बहुत प्रेरक प्रसंग :- 
'अबुद्ध' प्रारब्ध के अधीन, 'बुद्ध' नहीं ।

एक बार एक भिक्षुक भेषधारी निरंजना नदी के पास से गुजर रहे थे । रेत गीली थी और उस पर उनके पद चिन्ह बनते जा रहे थे । संयोगवश उसी मार्ग से एक ज्योतिष भी ज्योतिष विद्या ग्रहण कर काशी से लौट रहा था । अभी-अभी ज्योतिष ज्ञान में निष्णात हुआ वह , अति उत्साहित अपने विचारों में खोया बढ़ा चला आ रहा था । रेत पर पड़े असाधारण पद चिन्हों ने उसका ध्यान आकर्षित किया । उसने गौर से नज़र डाली । उसका ज्योतिष ज्ञान कह रहा था कि यह चक्रवर्ती सम्राट के पद चिन्ह हैं ।

ज्योतिष गहण चिन्तन में खो गया । वह सोचने लगा - 'किन्तु ....किन्तु ! यदि यह चक्रवर्ती सम्राट के चरण चिन्ह हैं, तो एक चक्रवर्ती सम्राट भला जन साधारण की भाँति इस भरी दुपहरी में पैदल क्यों चलेगा ? और वह भी इस भाँति नंगे पैर ! बड़ी उलझन में पड़ गया वह ! एक पल के लिए सारा ज्योतिष शास्त्र पहले कदम में ही थोथा मालूम पड़ा । अभी अभी तो लौटा था निष्णात होकर ज्योतिष विज्ञान में वह ! जो पोथी उसे अबतक प्राणों से प्यारी थी , वही अब उसे थोथी जान पड़ने लगी । 
निराश - हताश उसने सोंचा - 'अहो! चलो, इसको नदी में डुबाकर अपने घर चला जाऊँ ? ज्योतिष तो कहता है कि चक्रवर्ती सम्राट होने के इतने स्पष्ट लक्षण तो कभी कभी युगों में किसी व्यक्ति में दृष्टिगोचर होता है । अगर ऐसे पद चिन्ह का आदमी रेत पर भरी दुपहरी में नंगे पैर चल रहा है तो आज मेरा सब परिश्रम व्यर्थ हो गया ! अब किसी को ज्योतिष के आधार पर कुछ कहना उचित नहीं है ।

लेकिन इससे पहले कि वह अपने शास्त्र को उठाकर नदी में फेकता , उसने सोंचा - 'जरा चलकर देख भी तो लूँ, इस विरले व्यक्ति को । यह चक्रवर्ती आखिर है कौन , जो पैदल चल रहा है !

 वह निशान का अनुसरण करता आगे बढ़ता गया । एक वृक्ष की छाया में वह पद चिन्ह समाप्त हो गया । उसने पाया कि वहाँ एक भिक्षुक विश्राम कर रहा था । अब तो वह और मुश्किल में पड़ गया क्योंकि उसका चेहरा भी उसके चक्रवर्ती होने का संकेत दे रहा था । और तो और उससे ललाट पर निशान भी चक्रवर्ती सम्राट होने के थे । उसकी आँखें बंद थीं और उनके दोनो हाथ पालथी में रखे थे । हाथ पर नज़र डाली , हाथ भी चक्रवर्ती के थे । महान अचरज में वह ज्योतिष पड़ गया । समस्त चिन्ह चक्रवर्ती के थे, किन्तु आदमी भिक्षुक था । वह भिक्षा का पात्र लेकर एक वृक्ष के नीचे बैठा था । भरी दुपहरी में नितांत अकेला था वह ! 

हिलाकर उसने उस भिक्षुक से कहा - ' महानुभाव , मेरी वर्षो की मेहनत व्यर्थ किए दे रहे हो, सब शास्त्र नदी में फेक दूँ या क्या करुँ ? मैं काशी से वर्षो की मेहनत करके लौट रहा हूँ । तुममें जैसे पूरे लक्षण प्रकट हुए हैं , ऐसे सिर्फ उदाहरण मिलते हैं ज्योतिष शास्त्रों में , प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं ! ऐसा आदमी तो कभी- कभी लाखों वर्षों में मिलता है । पहले ही कदम में तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया । तुम्हे होना चाहिए चक्रवर्ती सम्राट ! और... तुम यह भिक्षापात्र लिए इस वृक्ष के नीचे ? 

उस भिक्षुक ने कहा -' तुम्हे संयोगवश ऐसा व्यक्ति मिल गया, जो अब प्रारब्ध को दोष दे कर अकर्मण्य नहीं है । लक्षण बिल्कुल ठीक कहते हैं । जब मैं पैदा हुआ था तो यही होने की सभी संभावनाएँ थी । अगर मैं बंधा हुआ चलता , पुरुषार्थ न करता तो वही घटित होता । पुरुषार्थ ने मुझे समझा दिया है कि 'अबुद्ध' प्रारब्ध के अधीन है , 'बुद्ध' नहीं, क्योंकि बुद्ध प्रारब्ध बदलना जानता है!
जो अजाग्रत है, जो पुरुषार्थहीन है वह अवश्य प्रारब्ध के अधीन है, जन्म जन्मांतर तक ।

परन्तु , जो जाग्रत है, वह हरिगुरु की अहैतुकी कृपा का लाभ उठा प्रारब्ध बनाता है, बिगड़ी बनाता है | भाग्य उसे नहीं बनाता ,वरन वह भाग्य को बनाता है | बुद्ध काल, कर्म, ईश्वर, गुण पर दोष नहीं लगाता, बल्कि पुरुषार्थ पर ध्यान देता है |

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